अकादमी सम्मान की रुकी हुई घोषणा

Vivek Ranjan Shreevastav Dec 19, 2025 व्यंग रचनाएं 0

जब साहित्य अकादमी में प्रेस कॉन्फ़्रेंस बिना प्रेस और बिना कॉन्फ़्रेंस के खत्म हो जाए, तब समझ लेना चाहिए कि साहित्य से ज़्यादा राजनीति बोल रही है—और व्यंग्य चुप नहीं रह सकता।

कुत्ता-गणना : शिक्षा व्यवस्था की ऐतिहासिक उपलब्धि

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 19, 2025 व्यंग रचनाएं 0

शिक्षक अब अ, आ, इ के साथ-साथ भौं-भौं व्याकरण में भी दक्ष हो रहे हैं।” “लोकतंत्र में अब सिर्फ़ इंसान नहीं, कुत्ते भी सर्वे-योग्य नागरिक हो चुके हैं।” “देश का भविष्य अब कक्षा में नहीं, गली-मोहल्लों में कुत्तों की गिनती में खोजा जा रहा है।” “सरकार की नज़र में संख्याबल सर्वोपरि है—चाहे वह इंसान का हो या कुत्ते का।”

भूमिका के बहुरुपिये-Satire Humour

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 17, 2025 व्यंग रचनाएं 0

भूमिका वह साहित्यिक ढाल है जिसके पीछे लेखक अपनी रचना की सारी कमजोरियाँ छुपा लेता है। यह किताब का परिचय नहीं, बल्कि लेखक की अग्रिम क्षमायाचना होती है—जहाँ दोष शैली का होता है, लेखक का कभी नहीं।

चौराहे पर बैठा राजा

Pradeep Audichya Dec 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

चौराहे पर बैठा वह कोई साधारण जानवर नहीं था—वह डर, लापरवाही और व्यवस्था की मिली-जुली पैदाइश था। उसकी गुर्राहट में कानून की चुप्पी और उसके सींगों में सत्ता की स्वीकृति चमक रही थी।

वाह रे ज़माना — डिज़ाइनर बेबी का

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 16, 2025 व्यंग रचनाएं 0

अब बच्चा भगवान की देन नहीं, माता-पिता की पसंद बनता जा रहा है। आँखों का रंग, करियर, आईक्यू—सब कुछ पैकेज में मिलेगा। पर सवाल यह है कि डिज़ाइन में मासूमियत का कॉलम क्यों छूट गया?

धुरंधर : शोर, शो, शॉक और थोडा सा सिनेमा

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 16, 2025 Cinema Review 0

धुरंधर उस दौर की फिल्म है जहाँ सिनेमा से ज़्यादा उसकी चर्चा तेज़ है। हाइप, राष्ट्रवाद, हिंसा और स्टारडम के बीच फँसी यह फिल्म दर्शक से सवाल भी करती है और उसे थकाती भी है। एक छोटे शहर के दर्शक की नज़र से पढ़िए—धुरंधर का ईमानदार, हल्का व्यंग्यात्मक और संतुलित रिव्यू।

वंदे मातरम के 150 वर्ष: एक गीत नहीं, राष्ट्र-धड़कन का उत्सव

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 15, 2025 Culture 0

वंदे मातरम कोई साधारण गीत नहीं है—यह वह ध्वनि है जो कभी कोड़ों की मार के बीच भी गूंजती थी और आज बहसों के शोर में दबाई जा रही है। इसके 150 वर्ष हमें यह याद दिलाते हैं कि राष्ट्र केवल सीमाओं से नहीं, स्मृतियों से बनता है।

लोकतंत्र का नया स्तंभ : चालीस प्रतिशत

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 15, 2025 व्यंग रचनाएं 0

इस देश में विकास कार्य अब सड़क, स्कूल और दरी से नहीं, सीधे प्रतिशत से तय होते हैं। विधायक विकास नहीं देखते, वे सिर्फ़ यह पूछते हैं—“हमें कितना प्रतिशत मिलेगा?” यह व्यंग्य लेख उसी आत्मविश्वासी भ्रष्टाचार का दस्तावेज़ है, जहाँ लोकतंत्र चार स्तंभों पर नहीं, चालीस प्रतिशत पर टिका है।

सितारे ज़मीन पर: जब ‘नॉर्मल’ की परिभाषा टूटती है और इंसान दिखाई देता है

डॉ मुकेश 'असीमित' Dec 14, 2025 Cinema Review 0

OTT पर देर से देखी गई आमिर ख़ान की सितारे ज़मीन पर एक होलसम, हार्ट-वार्मिंग सिनेमा अनुभव है, जो डाउन सिंड्रोम और लर्निंग डिसएबिलिटी जैसे संवेदनशील विषयों को बिना भावनात्मक शोर के, सहज मानवीय दृष्टि से प्रस्तुत करती है। यह फ़िल्म तारे ज़मीन पर की याद दिलाती ज़रूर है, लेकिन अपनी ईमानदार संवेदना के कारण अलग पहचान भी बनाती है।

ये आईना भी

Vidya Dubey Dec 13, 2025 हिंदी कविता 1

“टूटा आईना कभी दाग छुपा लेता है, कभी छुपे घाव दिखा देता है—एक ही प्रतिबिंब में बिखराव और आत्मबोध का सुंदर द्वंद्व।”