55 साल पहले, गाँव की एक सुबह]
हल्की ठंडी हवा चल रही है। मिट्टी के कच्चे आँगन में एक साधारण सी शादी की तैयारी हो रही है। ढोलक की धीमी थाप, और औरतों की हँसी-ठिठोली के बीच, एक दुबला-पतला, नशे में लड़खड़ाता आदमी बार-बार बाहर चला जाता है।
वो है — घर का मालिक, पाँच बेटों और चार बेटियों का पिता, जो कोलकाता के जूट मिल (चटकल) में काम करता है… पर कमाई का ज़्यादातर हिस्सा शराब और जुए में उड़ा देता है।
गाँव में घर — जैसे-तैसे चलता है। सबसे बड़ा बेटा, उम्र बस 12-14 साल, अपनी किताबें छोड़, होटल में बर्तन माँजता है। कुछ दिन बाद, वो गाँव के ही दो लोगों के साथ नासिक चला जाता है, जहाँ राजमिस्त्री का काम सीखकर, बच्चा होते हुए भी बड़ा आदमी बनना सीख लेता है।
इसी बीच, बाकी चार बहनें, छोटे भाई और माँ — दूसरों के खेत में मज़दूरी (बनिहारी) करके पेट पालते हैं। माँ ने एक-एक बकरी पाली, सोचकर कि उन्हें बेचकर घर का खर्च निकलेगा… लेकिन जब भी बकरी बड़ी होती, नशेड़ी पिता लौटकर आता, बकरी बेचता और सारा पैसा उड़ा देता।
सालों की मेहनत और आँसुओं के बाद, माँ और बच्चों ने अपने रहने लायक एक पक्का सा घर खड़ा किया। फिर एक भाई सऊदी चला गया, घर की हालत सुधरी। धीरे-धीरे बहनों की शादियाँ अच्छे घरों में हो गईं। भाइयों की भी शादियाँ हुईं, और एक समय घर में हँसी लौट आई।
लेकिन… परिवार बढ़ने के साथ-साथ, दिल छोटे होने लगे। बड़े भाई के तीन बच्चे थे, बाकी तीन भाइयों के अभी कोई नहीं। मन में बातें उठने लगीं — “इनका खर्च ज्यादा, हमारा कम”… और कुछ ही महीनों में, साथ खाने वाले पाँच भाई अलग-अलग चूल्हे जला बैठे।
सालों से कोलकाता में पड़े पिता को सिर्फ इसलिए बुलाया गया कि सबसे छोटे बेटे की शादी है, और अगर पिता न आए तो गाँव में बातें होंगी। तय हुआ कि शादी के बाद उन्हें वापस भेज देंगे।
लेकिन… शादी के बाद, माँ ने बहाना बनाया — “ईद आ रही है, ईद मना कर जाएंगे।” ईद गई तो बोली — “सर्दी का मौसम है, सर्दी बीत जाए फिर।” और इसी तरह एक साल गुजर गया।
और फिर हुआ वही डरावना सच…
पिता ने, नशे में, घर की ज़मीन बेच डाली। सारा पैसा अपने पास रखा, किसी बेटे-बेटी को एक रुपया तक नहीं दिया। घर में बड़ा झगड़ा हुआ, पर पिता न कोलकाता लौटे, न नशा छोड़ा। आज भी वो घर पर हैं — नशे में, गालियाँ देते हुए।
सबसे छोटा भाई, जो शादी से पहले बड़े भाई के घर में खाता-रहता था, शादी के बाद अपनी पत्नी के कहने पर अलग हो गया। और फिर पाँच भाइयों का पाँच चूल्हा जलने लगा।
धीरे-धीरे, प्यार और अपनापन खत्म हो गया। अब कोई भाई-बहन आपस में ढंग से बात नहीं करता। एक ही घर में, सब ऐसे रहते हैं जैसे अजनबी… या शायद दुश्मन।
आज, घर आधा-अधूरा बना पड़ा है। जितना हिस्सा किसी का है, बस उतना ही रंग-रोगन और प्लास्टर होता है। कोई भी पूरे घर के बारे में नहीं सोचता।
आँगन की मिट्टी में, बीते जमाने की हँसी कहीं गुम हो चुकी है… और हवा में अब सिर्फ शिकायतें और खामोशी तैरती हैं।
ये कहानी असल में किसी एक घर की नहीं… ऐसे सैकड़ों घरों की है, जहाँ गरीबी, नशा और रिश्तों में आई दरारें, पीढ़ियों तक असर छोड़ देती हैं।
और सबसे डरावनी बात — कभी हँसी-खुशी गूँजने वाला आँगन, अब सिर्फ एक मकान बनकर रह जाता है… घर नहीं।
लेखक परिचय:
वसीम आलम
जिला सिवान, बिहार
बहुत सुंदर