गली में आज चाँद निकला..
ये हैं हमारे शहर के चिरंजीवी नेता श्री चांदमल जी। चिरकाल से जीवित हैं तो सिर्फ चुनाव लड़ने के लिए। चांदनी रात में छत पर टहलते हुए, वो बेचैनी से चांद को निहार रहे थे। शहर अंधेरे में डूबा हुआ था, और ऊपर चांद जैसे मुस्कुरा रहा था। आज उन्होंने चांद को देखा, जो कभी बादलों में छिप जाता, कभी बाहर निकल कर चांदनी बिखेरने लगता , लेकिन दिल में छाया हुआ घटाटोप अंधेरा चांद के आसपास के अंधेरे से भी ज्यादा गहरा था। सच तो यह है कि उनका दिल धीरे-धीरे डूबता जा रहा था।
कल टिकट फाइनल होने वाला था। अंदेशा ये था कि उनके शहर में चांद खिलने का मौका , इस बार नए चांद को देने का विचार था, यह खबर भी आलाकमान के किसी नजदीकी सूत्र ने उन्हें दे दी थी । यूं तो उन्होंने खूब तैयारी की थी, पिछले दो महीने से लगातार दिल्ली के सौरमंडल के चक्कर काट रहे थे। कुछ अफवाहें भी थीं कि उनके धुर विरोधी छेदीलाल भी टिकट की दौड़ में शामिल हो गए थे। एक ही पार्टी के होते हुए भी उनकी दुश्मनी ऐसी थी, जैसे वे विरोधी पार्टी के सदस्य हों। चांद का खिलना तय है, किसके भाग्य में होगा, यह निर्णय बस बाकी है। अभी तो सभी चाँद आलाकमान की चौखट पर उनके घर को रोशन कर रहे हैं। आलाकमान के माथे पर धारण होकर ये चंद्रमा अलौकिक नजर आ रहे हैं।
अगर कल चांद न उगा, तो फिर पाँच साल की लंबी अमावस की रात कैसे कटेगी, इसकी चिंता उन्हें सता रही थी।
मन ही मन गरिया रहे थे आलाकमान को, खुलकर गरिया रहे थे अपने विरोधी छेदीलाल को, जिसने ऐन-वक्त पर सब गुड़-गोबर कर दिया था। अपनी दावेदारी के लिए कितनों से फोन कराया, पार्टी फंड के लिए अपनी तिजोरियों की चाबी तक सौंप दी थी। आलाकमान कहते हैं, “चांदमल पुराना चाँद है, दाग कुछ ज्यादा दिखने लगे हैं, और रोशनी फीकी पड़ गई है।” उन्होंने कहा, “यह भी क्या बात हुई? रोशनी तो कम होनी ही थी। अपने हिस्से की चांदनी बांटने में जिन्दगी लगा दी चांदमल ने, अपने समर्थकों को, जान-पहचान वालों को। अपने लिए क्या रखा? कुछ नहीं।”
चांदमल अभी भी छत पर डटे हुए हैं। देख रहे हैं कि बादल जैसे घिर आए हैं। चाँद को बादलों की ओट में छिपते हुए देख रहे हैं। अंधेरा घिर आया है। वो धीरे से सीढ़ियाँ उतरे, बिस्तर पर लेट गए और चादर ओढ़ ली। आज की रात उनके लिए घटाटोप अनिश्चितताओं से घिरी रात साबित हो रही है।
**गली में आज चाँद निकला..**भाग २
चुनावी मौसम क्या आया, यूं समझिए कि चांद निकलने का मौसम आ गया है। जिसे टिकट मिल गया, समझो कि वह चाँद-तारे तोड़ लाया। इस बार तो नए-नए चांद अपने-अपने खेमे के छुटभैये से लेकर बडके भैयन तारों के साथ दिल्ली के चक्कर लगा रहे हैं।
चांद को खिलने का टिकट मिल जाए, बस चांद तैयार है। कमर कसके… । वायदों की चांदनी बिखेरेगा । प्रजा सखी, बस तुम अपनी आशाओं की खीर खुले बर्तन में रखना। आज की रात वह खीर अमृत बन जाएगी, और फिर उसे खाते रहना पूरे पाँच साल।
देखो न, क्या मौसम आया है। प्रजा सखी झूम उठी है। झूमेगी क्यों नहीं भला? गली में आज चांद निकलने वाला है। सुनो, प्रजा सखी, तुम झरोखे में खड़ी होकर उसका इंतजार करना। वो आएगा, जरूर आएगा, अपनी खिली चाँद, मोटी तोंद और भरी जेब के साथ। अपने हजारों समर्थक उल्कापिंडों की फौज के साथ।
वो आएगा, तो अपने हिस्से की थोड़ी चांदनी जरूर बिखरा के जाएगा। पाँच साल से इस चांदनी का इंतजार प्रजा सखी कर रही थी। अपने दिल में उम्मीद के दीप जलाए रखे थे। भूखी-प्यासी जनता पाँच साल व्रत रखती है, अपना पेट काटकर इन चाँदों को पालती है। इन्हें आकाश तक उठाती है, आशा करती है कि ये बस ऐसे ही चमकते रहेंगे, चांदनी बिखेरते रहेंगे। अपने-अपने शहर का चाँद, अपने हिस्से का चाँद बस यहीं उनके आसपास चक्कर लगाते रहेंगे।
प्रजा सखी, तुम्हारे चाँद के दीदार का वक्त हो चला है। चुनावी मौसम है, आकाश साफ़ है। स्वार्थ और अवसरवादिता के बादलों से आज चाँद ढका हुआ नहीं होगा। आज प्रजा की विरह की पीड़ा कम करने वह निकलेगा। उसे दूर से ही निहारना, प्रजा सखी, उसके पास मत जाना। नहीं तो चाँद की असलियत तू सहन नहीं कर पाएगी। कितने ही खोखले वायदों से खुरदरा, स्वार्थलोलुपता और धूर्तता के दाग से भरा हुआ है ये तेरा चाँद ।
चार दिन की चांदनी है, प्रजा सखी। फिर वही अंधेरी रात की विरह में जीना तेरी नियति है। इससे पहले कि यह भी ईद का चाँद हो जाए, चल, तू दीदार कर। देख, तेरा चाँद कैसे निखर आया है। याद है, तेरी गली-मोहल्ले में ही पला-बढ़ा, एक छोटे से तारे के रूप में। बचपन से ही इसकी ख्वाहिश थी चाँद बनने की।आधी जिन्दगी दिल्ली के सौरमंडल के चक्कर लगाता रहा। तब जाकर इसे चाँद की मान्यता मिली है ।
क्या कहा? पता नहीं तुझे कौनसा चाँद नसीब होगा? अरे, ये तेरे वश में नहीं है । क्या फर्क पड़ता है, कौन सा चाँद तेरे हिस्से में आया? ये सभी चाँद एक जैसे हैं सखी..सिर्फ चार दिन की चांदनी बिखेरने ही आएंगे। उसके बाद तो इन्हें दिल्ली के सौरमंडल में ही चक्कर लगाने हैं।
सभी चाँद चुनाव के बाद अपना कक्ष बदल लेते हैं। सौरमंडल में अंदर का कक्ष लेने के लिए अपनी सिफारिशें लगाते फिरते हैं। चल, जल्दी चल, वोट कर, सखी।
सभी चाँद घात लगाए बैठे हैं। पाँच साल की चांदनी को समेटने के लिए अभी से तैयारी है। पाँच सालों में चंदा की चांदनी जमा की है। अब समय आ गया है कि उसमें से कुछ चांदनी अपने चुनावी सेक्टरों में बिखेरें।
चांदनी निकलकर वोटरों की आँखें चौंधिया देगी, उनके कदम बहका देगी..भुला देगी सब पुराने जख्म ।
आज फाइनल डेट है। टिकट वितरण की लिस्ट निकलने वाली है ,कोई एक चाँद खिलेगा और बाकी सब डूब जाएंगे। कुछ चाँद पहले ही दूसरे आकाश में उगने का अनुबंध कर चुके हैं, कुछ बागी होकर खिलेंगे। न जाने कितने चाँद आज अपने मामा के सामने आखिरी दांव पेश करेंगे। सिफारिश, धन, प्रतिष्ठा की चटाइयाँ बिछेंगी। चंदाओं का मामा आलाकमान दिल्ली में बैठा है। उसके इशारे की बस देर है।
इधर शहर विकल है, इस बार कौन सा चाँद खिलेगा? कई चाँद अपने उम्मीदवारी को पहले से तैयार मानकर चल रहे हैं, लेकिन उन्हें डर है कि उनके दामन में कुछ दाग दूसरे चाँदों ने लगा दिए हैं।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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