कचरे का अधकचरा ज्ञान – व्यंग्य रचना
आज मेरा भी मन है कचरे के ऊपर अपना अधकचरा ज्ञान लुटाने का… कचरा कहाँ नहीं है? आज सोशल मीडिया का व्हाट्सएप ज्ञान, कथा पंडालों में कथावाचकों द्वारा कथा वाचन कम, मोटिवेशनल सेमिनार के प्रवचनों का कचरा अधिक, टीवी न्यूज़ वाले खबरों के नाम पर, नेताजी वादों और लुभावनी घोषणाओं के नाम पर, मोबाइल पर युवा पीढ़ी को मनोरंजन के नाम पर ओटीटी कंटेंट, रियलिटी शो, स्टैंड-अप कॉमेडी… जहाँ देखो, वहाँ कचरे की प्रदर्शनी लगी हुई है।
बुक स्टॉल हों या लिटरेचर फेस्टिवल—हर जगह कचरा प्रदर्शित हो रहा है। जो असली साहित्य है, वह बेचारा अपनी पुरानी, रफ़ जिल्द में सिमटा हुआ सिसक रहा है, और कचरा साहित्य, अच्छे पैकेजिंग कवर के साथ, पेड प्रमोशन और समीक्षाओं के चमकीले पृष्ठों से सुसज्जित होकर धड़ाधड़ बिक रहा है।
हमारा मस्तिष्क है न, सबसे बड़ा कचरा संग्रहण का स्थान! इस कचरे से वायु और जल प्रदूषण की समस्या तो नहीं है, लेकिन अगर सांस्कृतिक प्रदूषण की बात करें, तो यह सबसे गंभीर विषय है, जिसे केवल बड़े-बड़े सेमिनारों में ए.सी. हॉल में बैठकर ही चर्चा करने लायक समझा जाता है। सांस्कृतिक प्रदूषण की समस्या अगर आप गली-मोहल्ले में उठाने लगेंगे, तो कॉलोनी वाले आपको पागल करार दे देंगे। यह दार्शनिक विचार कम से कम किसी हँसते हुए पति के जहन में तो आ ही नहीं सकते।
सुबह-सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए निकलता हूँ, तो चौराहे के कोने में पड़ा कचरे का ढेर अपनी सड़ांध और बदबू से मेरी नाक पर हमला करके मुझे अभिवादन करता है। बरसों से देख रहा हूँ कि कचरे का यह ढेर अंगद के पाँव की तरह ज़िद्दी होकर पृथ्वी पर चिपका हुआ है। यूँ तो यह भी किसी विवाहित महिला की तरह है, जो नौ महीने के लिए अपने पैर भारी कर लेता है। फिर म्युनिसिपैलिटी वाले इस पर तरस खाकर इसकी “डिलीवरी” कराकर इसे ले जाते हैं। अब आप समझ गए होंगे कि यह कचरा यहाँ स्थायी क्यों रहता है!
म्युनिसिपैलिटी वाले भी कॉलोनी वालों की मानसिकता जानते हैं। जहाँ “कचरा नहीं डालें” का साइन बोर्ड लगा होगा, लोग वहीं कचरा डालेंगे। इसीलिए उन्होंने एक साइन बोर्ड तो लगा दिया है और दूसरा—इस कचरे का एक स्थायी भाग हमेशा वहीं छोड़ा जाता है। इससे कॉलोनी वालों को यह इत्मीनान हो जाता है कि कचरा यहीं डालना है। कई बार जब कचरा पूरी तरह साफ कर दिया जाता है, तो कॉलोनी वालों को हर जगह कचरा डालने के लिए नया ठिकाना खोजना पड़ता है। जहाँ भी सड़क पर थोड़ी खाली जगह दिखती है, वे उसे कचरे से सजाकर सड़क की खूबसूरती पर चार चाँद लगा देते हैं।
कुछ साल पहले नगरपालिका ने भावुक होकर यहाँ तीन कनस्तरनुमा कचरा पात्र भी लगवाए थे। लेकिन कॉलोनी वालों को उनकी शक्ल पसंद नहीं आई, इसलिए कभी उनके मुँह में कचरा नहीं डाला। हमेशा कचरा बाहर, उनके आसपास ही डालते। बेचारे कनस्तर सालों तक अपना मुँह खोले कचरे का इंतजार करते रहे। कभी-कभी कॉलोनी के उद्दंड बच्चों की टोली कचरे की थैली दूर से ही निशाना लगाकर उनके मुँह पर फेंकती और दस में से आठ बार निशाना चूकने से मायूस हो जाती। लेकिन धीरे-धीरे गली के बच्चे निशानेबाजी में अभ्यस्त हो गए।
इस कनस्तर की ऐसी दुर्दशा पर आँसू बहाकर नगर पालिका वालों ने आखिरकार इसे हटा ही दिया।
यूँ तो कचरा एक ऐसी समस्या है, जिसकी चर्चा में पूरा शहर और शहर का हर महकमा व्यस्त है। हर संबंधित विभाग ऊपरी आदेशों की पालना करके कचरा निस्तारण पर शानदार प्रोजेक्ट बनाते हैं, करोड़ों रुपये का बजट स्वीकृत करवा लेते हैं, लेकिन समस्या ऐसी ज़िद्दी है कि फाइलों से बाहर आना ही नहीं चाहती।
इधर ग्रीन ट्रिब्यूनल वाले चिल्ला-चिल्लाकर पेनाल्टी लगा रहे हैं, पर्यावरण बचाने की दुहाई दे रहे हैं, लेकिन मजाल है कि किसी के कान पर जूं रेंग जाए। आम जनता भी क्या करे? वह तो समभाव से इस कचरे को देखती है, क्योंकि यह कचरा, जो दिमाग में भरे कचरे से कहीं अधिक भयानक नहीं है। इसलिए कचरे में किसी को कोई समस्या नहीं आती।
शहर में कचरा भी अपनी किस्मत की बुलंदी पर इतरा रहा है। सूअरों का तो यह आश्रय स्थल है ही, कचरा बीनने वालों की जीविका भी इसी से चलती है। अब भला कचरा नहीं होगा तो इनकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी?
शहर में नालियां भी बनाई गई हैं—पानी के निकास के लिए। लेकिन वे काम आ रही हैं इस कचरे को समाहित करने के लिए। क्योंकि नल तो आते ही नहीं, और अगर नालियों में पानी बहेगा नहीं, तो फिर उन नालियों पर खर्च किया गया सरकारी पैसा फाइलों में कैसे दिखाया जाएगा? इसलिए नालियों को कचरादान बना दिया गया है। संसाधनों के वैकल्पिक उपयोग कोई सरकार से सीखे। कल अगर सड़क के गड्ढों पर आपको वृक्षारोपण दिखे तो आश्चर्य करने वाली बात नहीं।
नेताजी का राजनीतिक धंधा भी कचरे से ही चल रहा है। सिर्फ कचरे को देखने भर से और एक झाड़ू के साथ फोटो खिंचवाने से मोहल्ले के हजारों वोट नेताजी बटोर लेते हैं। कचरा भी अपनी किस्मत की बुलंदी पर इतरा रहा है। कहते हैं, “घूरे का भी साल में एक बार दिन फिरता है,” लेकिन यहाँ तो कचरे के रोज़ाना ही दिन फिर रहे हैं।
अब देखिए, कचरादान ही वह जगह है जहाँ रात के अंधेरे में मुँह काला करने वालों की करतूतें कपड़े में लपेटकर फेंकी जाती हैं। अखबार वाले भी कचरादान को ऐसी किसी ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए टटोलते नजर आते हैं।
शहर में सांड और गोवंश भी इन कचरे के ढेरों से विशेष लगाव रखते हैं। क्योंकि हमारी फितरत है, घर में बची हुई खाद्य सामग्री कुत्तों या गायों को खिलाने के बजाय कचरे में फेंकना ज्यादा पसंद करते हैं। डर लगता है, कहीं कोई धर्मलाभ न मिल जाए। फिर कचरे के ढेर को भी फलते-फूलते देखना है।
कचरे का ढेर ही वह जगह है जो दो धुर विरोधी पार्टियों को एक-दूसरे के माथे शहर की दुर्व्यवस्था का जिम्मेदार ठहराने के काम आता है। एक-दूसरे पर “कचरा” उछालने का कार्य करता है। कचरे की दलाली में हर कोई अपने हाथ काले कर रहा है।
कचरा है तो वसूली का गोरखधंधा है, नगर परिषद के कचरे निस्तारण के टेंडर हैं, ग्रीन ट्रिब्यूनल वालों का डंडा है। कचरे के कीचड़ में ही वसूली का स्वर्ण कमल खिलता है!
शहरवासी क्या करें?
कचरा उन्हें पसंद नहीं है, इसलिए वे इसे घर में भी नहीं रखना चाहते। और तो और, घर के सामने भी नहीं। हाँ, पड़ोसी के सामने कचरा उन्हें अच्छा लगता है, चाहे उसकी सड़ांध उनके घर तक भी क्यों न आ रही हो।
इसलिए यह कचरा लुढ़कते-लोटते एक घर से दूसरे घर के सामने सरकता रहता है। जहाँ आदमी इंच भर जमीन और इंच भर जोरू के लिए अपना हक जमाता फिरे, वहाँ कचरे पर कभी कोई अपना हक नहीं जमाता।
कचरा ही है जिसने आदमी को **गीता का ज्ञान दिलाया है—“कुछ लेकर नहीं जाना, सब कुछ यहीं छोड़ जाना है।” और इसलिए लोग इसे यत्र-तत्र-सर्वत्र छोड़ रहे हैं।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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