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मेरी बे-टिकट रेल यात्रा-यात्रा संस्मरण

A comic-style train scene showing a medical student hiding nervously during a ticketless train ride, while a ticket checker enters from the opposite end. A notice about fines for ticketless travel is visible in the background.

मेरी बे-टिकट रेल यात्रा
डॉ. मुकेश असीमित

ज़िंदगी में हर किसी के अपने-अपने ‘डेरिंग टास्क’ होते हैं — कुछ ऐसा थ्रिल, जो जीवन की सपाट दिनचर्या में ज़रा सी किक भर दे। अभी जब पुरानी बातें याद कर रहा हूँ, तो वो हॉस्टल के दिन आँखों के सामने तैर जाते हैं, जब हर दिन कोई न कोई नया ‘कांड’ होना तय होता था। कोई “जान न पहचान, मैं तेरा मेहमान” वाले भाव से किसी अजनबी के कमरे में घुस जाता, तो कोई सिंगल-साइडेड लव में डूबकर किसी लड़की को प्रपोज करके ही थ्रिल महसूस करता। किसी को शराब-सिगरेट में किक मिलती, तो किसी को धरना, हड़ताल, सिनेमा हॉल में तोड़फोड़ या दूसरे कॉलेज के लड़कों को राह चलते पीट आने में आनंद आता। कुछ तो अजनबी की शादी में नकली बाराती बनकर शामिल हो जाते, और कुछ ऐसे भी थे जो पचास बार रिजेक्ट होकर भी 51वीं बार फिर से रिजेक्ट होने में ही रोमांच ढूँढते थे।

इन्हीं सब थ्रिल के बीच एक और खास किस्म की ‘किक’ थी — बिना टिकट यात्रा करना। और साथ ही, टीटी को मूर्ख बनाना भी उसमें शामिल रहता। कैसे पकड़े न जाएँ, इसके लिए बाकायदा तकनीकें सीखनी पड़ती थीं, जैसे कोई प्रायोगिक प्रयोग हो। बाकी सब किकों में असली किक पिछवाड़े पर पड़ने की रिस्क रहती थी , लेकिन यहाँ रिस्क सिर्फ़ चालान का था, और वह भी कभी-कभार ही होता।

अब बात करें सिटी बसों की तो हम, यानी इस देश के विशेष नागरिक — Happy Jolly Medicoge प्रजाति के सदस्य — शायद हमारे ही पूर्वज, यानी हमारे सीनियर्स ने कभी सरकार से यह माँग की हो कि हमें ‘रेयर स्पीशीज़ संरक्षण अधिनियम’ के अंतर्गत संरक्षित घोषित किया जाए। और उसमें यह भी जोड़ा जाए कि सिटी बस में बिना टिकट यात्रा करना,थडी पर फ्री की चाय पीना,सिनेमा हाल में फ्री का सनीमा देखना ये सब  हमारे मौलिक  संवैधानिक अधिकार है। दरअसल, हमें हमारे सीनियरों ने साफ़-साफ़ सिखा दिया था कि यदि कोई मच्छर — मतलब कोई फर्स्ट ईयर का जूनियर — गलती से टिकट ले ले, तो उसे हैप्पी जोली मेडिकोज के स्वर्णिम अध्याय में एक काला अध्याय जुड़ने के बराबर माना जाएगा  ।

हमारे लिए तो टिकट न लेना गर्व का विषय था। सिटी बस के कंडक्टर भी अक्सर या तो हमारे चेहरे पर लज्जित होकर, या गले में लटके स्टेथोस्कोप और कंधे पर टंगे एप्रन को देखकर ही हमारा लिहाज करके हमें  छोड़ देते थे। शायद उन्हें लगता था की कौन हरिद्वार काशी जाए ,चलती गाडी में ही  कुछ आत्माओं को फ्री यात्रा  कराकर कुछ धर्म-पुण्य कमा लिया जाए। और हम इसी को अपनी “धाक” मान बैठे थे।

लेकिन ट्रेन यात्रा में ये सब इतना आसान नहीं था। वहाँ सीन और सिस्टम दोनों अलग थे। हाँ, एक बार वाकई में ट्रेन लेट होने के कारण मजबूरी में बिना टिकट यात्रा करनी पड़ी। लेकिन उसमें मज़ा नहीं आया, क्योंकि टिकट न लेने का वो निर्णय पूर्व नियोजित नहीं था — बल्कि अचानक परिस्थिति ने मजबूर किया। दरअसल, मेरा घर स्टेशन के बहुत पास था। उस ज़माने में जब ट्रेन आती थी, तो उसके इंजन का हॉर्न साफ़-साफ़ सुनाई देता था। आज जितना शोर नहीं था — सड़कों पर ट्रैफिक भी कम होता था, ज्यादातर रिक्शा या साइकिलें ही चला करती थीं।

हमें पक्की सूचना थी कि ट्रेन दो घंटे लेट है। इसलिए हम आराम से चाय-वाय पी रहे थे। लेकिन उस दिन ट्रेन ने धोखा दे दिया ,वो सिर्फ़ डेढ़ घंटे ही लेट थी। । जब बाहर सड़क के शोर में अचानक  बदलाव महसूस हुआ और ट्रेन से सफ़र करने वाले यात्रियों के आवागमन का शोरगुल बढ़ा, तब हमें आभास हुआ कि शायद कुछ गड़बड़ है। हम दौड़े स्टेशन की ओर। वहाँ देखा तो दो जगह भारी भीड़ थी — एक टिकट खिड़की पर और दूसरी जनरल डिब्बे के दरवाज़े पर। समय इतना कम था कि हम दोनों में से सिर्फ़ एक ही जगह धक्के खा  सकते थे। ऐसे में प्राथमिकता साफ़ थी — ट्रेन पकड़नी है, टिकट बाद में देखा जाएगा।

वैसे भी ‘भूत होते हैं’ जैसे ही सर्वमान्य और सर्वप्रचलित भ्रम यह था कि इतनी भीड़ में कौन सा टीटी जनरल डिब्बे में घुसता है?

लेकिन आज की कहानी थोड़ी अलग थी — यह कोई अचानक आई मजबूरी नहीं थी, बल्कि पूरी प्लानिंग के साथ, होशो-हवास में की गई एक साजिश थी। हमारा स्टेशन घर के बहुत पास था। एक दिन मुझे कोटा जाना था। सुबह-सुबह स्टेशन पहुँचा और टिकट खिड़की पर जाकर कहा, “कोटा जाना है, स्लीपर टिकट मिल जाएगा क्या?” क्लर्क ने सूखा सा जवाब दिया, “स्लीपर का चार्ट बन चुका है, जनरल का टिकट लो।” मैंने पचास रुपये का नोट दिया, तो वह झल्ला गया — “खुल्ले लाओ!”

अब ज़रा सोचिए — सुबह-सुबह खुले कहाँ से मिलते? जेब में बस वही पचास का नोट था। फिर भी मैं इधर-उधर दौड़ा — पान वाले के पास गया, एसटीडी बूथ तक गया, लेकिन सबने मना कर दिया। तभी मेरे भीतर वो पुरानी हॉस्टल वाली किक’ की घंटी बजी — “चलो, आज बेधड़क बिना टिकट चलते हैं… देखा जाए!”

लेकिन जैसे ही यह फैसला लिया, डर की पहली लहर भीतर गहराने लगी। मन में आया — टिकट क्लर्क ने मुझे पहचान तो लिया है, कहीं वो टीटी को बता न दे कि एक लड़का बिना टिकट चढ़ गया है। मैंने प्लेटफॉर्म जाने से पहले दीवार के कोने से झांककर देखा — क्लर्क अपने काम में मग्न था। फिर मैं निश्चिंत होकर प्लेटफॉर्म की ओर कूच कर गया।

जैसे ही प्लेटफॉर्म पर पहुँचा, चमकते बोर्ड ने फिर से डराया — “बिना टिकट यात्रा दंडनीय अपराध है — ₹500 जुर्माना या 6 महीने की जेल।” मन फिर डगमगाया। पचास का नोट जेब में था ही, सोचा बुक स्टाल से कोई मैगज़ीन ले लूं ताकि छुट्टे मिल जाएं और टिकट खरीद लूं। लेकिन दुकानदार भी भड़क गया — “भाई साहब, जेब में खुले रखा करो!” अब बात साफ़ थी — भगवान भी चाहता था कि बेटा, आज तो किक लेकर ही रह।

ट्रेन आई — जनरल डिब्बे में भीड़ ऐसे थी जैसे कोई मेला लगा हो। किसी तरह धकियाते-मींमियाते डिब्बे में घुसा। भीतर तो और भी हाल बुरे थे — हर सीट पर दो-दो आदमी चिपके हुए थे। मैंने किसी बुज़ुर्ग यात्री से करुण भाव से कहा, “भाई साहब, बस कोटा तक ही जाना है।” दया दिखाते हुए उन्होंने खुद को थोड़ा समेटा और एक इंच भर जगह बना दी। मैंने अपना ‘इंच भर का बॉटम’ उसी पर टिकाया और एक पैर को इस तरह ज़मीन पर जमाया जैसे कोई गिरती दीवार को बल्ले का सहारा दे रहा हो। डिब्बे की गैलरी में खड़े लोग भी ट्रेन के झटकों से मेरे गिरने के रिस्क को बैलेंस कर रहे थे।

थोड़ी ही देर में बातचीत शुरू हो गई। लगभग सब ही यात्री बिना टिकट थे और अपने-अपने ‘रोमांचक’ अनुभव साझा कर रहे थे — किसने किस टीटी को कैसे चकमा दिया, कौन किस स्टेशन पर बिना टिकट कैसे भागा। सबका यही निष्कर्ष था — “अगर टिकट लेकर ही बैठना है तो स्लीपर क्यों नहीं लेते? जनरल डिब्बा तो सरकार को फ्री कर ही देना चाहिए!” इन बातों से मेरी ‘किक’ सातवें आसमान पर पहुँच गई थी, लेकिन मैं भीतर ही भीतर टीटी के घुसने की संभावनाओं की गणना भी करता जा रहा था।

तभी कुछ पुलिसवाले सीटी बजाते हुए डिब्बे में घुसे और सामान चेक करने लगे। मुझे लगा अब टिकट भी पूछेंगे। डर की चौथी किश्त भीतर दर्ज हो गई। उधर ट्रेन छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती जा रही थी — कुछ लोग उतरते, उससे ज्यादा चढ़ते। मन किया कि किसी छोटे स्टेशन पर उतरकर टिकट ले आऊँ, लेकिन फिर सवाल उठा — किससे कहूँ कि “भैया, टिकट लेकर आ रहा हूँ, अगर ट्रेन चल पड़ी तो चेन पुलिंग कर देना।” डर की पाँचवीं किश्त मन में जमा हो गई।

इतने में एक और संकट — वॉशरूम की हाजत भी लग गई। किसी तरह लंबी कतार झेलकर नंबर आया। अंदर बैठा तो लगा, क्यों न बचे हुए 15 मिनट का सफ़र यहीं काट लिया जाए! न कोई पूछेगा, न मिलेगा कोई टिकट चेक करने वाला। पर तभी किसी ने जोर से दरवाज़ा खटखटाया। मजबूरी में बाहर निकलना पड़ा। डिब्बे के भीतर ऊपर की एक स्लीपिंग बर्थ खाली दिखी — मैंने तुरंत झट से चढ़कर अपना बैग सिरहाने रख लिया और खुद को फिट कर लिया।

नींद तो नहीं आ रही थी, पर आंखें मूंदकर ऐसे लेट गया मानो गहरी निद्रा में हूँ। तभी ट्रेन ने एक झटका मारा — किसी ने चेन पुलिंग कर दी थी। देखा, कुछ लोग डिब्बे से उतरकर भाग रहे हैं, और पीछे-पीछे रेलवे पुलिस वाले सीटी बजा रहे हैं। फुसफुसाहटों से पता चला कि टीटी डिब्बे में घुस आया है। जो लोग अगले स्टेशन पर उतरने वाले थे, उन्होंने टीटी को देखकर चेन पुलिंग कर दी और कूदकर भाग निकले।

अब डर का चरम था — मैं पूरी तरह कांप रहा था। थोड़ी देर भाग-दौड़ और गालियों के बाद टीटी और पुलिस वाले वापस डिब्बे में लौटे। सौभाग्य से वे डिब्बे के दूसरे छोर से चढ़े थे — मैंने तुरंत इस छोर के दरवाज़े की ओर कूच कर दिया। हिसाब लगाया — स्टेशन पाँच मिनट दूर है, जब तक टीटी यहाँ आएगा, मैं उतर चुका होऊँगा।

ये पाँच मिनट का सफ़र ऐसा लग रहा था जैसे जीवन-मृत्यु के बीच झूलता मीलों लंबा रास्ता हो। ट्रेन जब स्टेशन पर स्लो हुई, तो मैं एक छलांग में उतर पड़ा — सीधे पुल की ओर दौड़ा। वैसे तो मेरा डिब्बा एग्ज़िट गेट के पास ही था, पर वहाँ से निकलना खतरनाक होता — टिकट चेकर की नज़र में आने का डर था। इसलिए मैंने लंबा रास्ता चुना — क्योंकि चोरी में शॉर्टकट नहीं अपनाना चाहिए!

पुल पार करके शहर के दूसरे छोर पर पहुँचा, वहाँ से ऑटो किया। ऑटोवाला मुझे ओवरब्रिज घुमा कर मेरी मंज़िल तक ले आया। दस रुपये देने पड़े — लेकिन फिर भी दो रुपये बचा लिए, और साथ में पा ली ढेर सारी ‘किक’।

हे भगवान! अब ऐसी ‘किक’ दोबारा मत देना — दिल ज़ोर से धड़कता है!

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

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