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कालीधर लापता — एक आधी-अधूरी भावुकता की खोज-फ़िल्म समीक्षा

अभिषेक बच्चन एक साधारण धोती-कुर्ता पहने व्यक्ति के रूप में घाट पर बैठे हैं, पीछे हल्का धुंधलका और गंगा किनारे का दृश्य। पास में बच्चा बल्लू खड़ा है, और दोनों के बीच एक भावुक संवाद चल रहा है। दृश्य में कहीं भी कुंभ जैसी भीड़ या संत नहीं दिखते, जिससे दृश्य अधूरा प्रतीत होता है।

फ़िल्म समीक्षा: कालीधर लापता एक आधी-अधूरी भावुकता की खोज

OTT प्लेटफ़ॉर्म Zee5 पर हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म कालीधर लापता को देखना मेरे लिए किसी भावनात्मक प्रयोग की तरह रहा। वजह? नाम में “लापता” था, तो स्वाभाविक ही “लपता लेडीज़” की याद आई, जो पिछले दिनों एक फ्रेश और दिल को छूने वाली फ़िल्म बनकर उभरी थी। उम्मीदें उसी तर्ज पर कुछ गुदगुदाने और फिर झकझोरने वाली कहानी की थीं। लेकिन जब एक मूवी फ्रीक को भी इसे दो बार में पूरा करना पड़े, तो समझा जा सकता है कि फिल्म में बांधकर रखने की ताकत थोड़ी कम रह गई।

कहानी का कथानक

कहानी का केंद्र है – कालीधर (अभिषेक बच्चन), एक अल्जाइमर से पीड़ित और हल्के मानसिक भ्रम में रहने वाला व्यक्ति, जो अपनी जमीन-जायदाद के पीछे पड़े भाइयों की चालबाज़ियों के चलते कुंभ मेले में “गायब” कर दिया जाता है। उसके दोनों भाई – मनोहर और सुंदर – खुद कर्ज में डूबे हैं, और कालीधर की बीमारी और ज़मीन उनके लिए बोझ बन गई है। वे उसे मेला-ग्राउंड में छोड़कर, खोया-पाया शिविर में गुमशुदगी दर्ज करा देते हैं।

कालीधर भटकते हुए एक अनजान गाँव में पहुँचता है, जहाँ उसकी मुलाकात होती है बल्लू (दैविक भगेला) से – एक 8 साल का अनाथ, मगर ज़िंदगी के तजुर्बे में किसी बड़े से कम नहीं। दोनों में शुरुआत में ठनती है, पर धीरे-धीरे दोस्ती पनपती है। बल्लू, कालीधर की अधूरी इच्छाओं को पूरा करने की ठान लेता है – किसी परी-कथा की तरह। लेकिन कहानी का यहीं तक आकर ठहर जाना, और आगे ठोस सामाजिक, भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक परतों में न उतर पाना, इसे सतही बना देता है।

अभिनय की बात करें तो…

अभिषेक बच्चन को अभिनय करते देखना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है, खासकर जब उन्हें सही किरदार और लेखन मिले। कालीधर लापता में उन्होंने अपनी पूरी कोशिश की है – कभी खोए हुए, कभी चिढ़े हुए, कभी भावुक, तो कभी भ्रमित इंसान के रूप में। लेकिन यही किरदार स्क्रिप्ट के चलते बार-बार अपनी बीमारी को भूल जाता है। कभी वह इंग्लिश के जटिल वाक्य बोलता है, तो कभी पूरी याददाश्त के साथ प्रेमिका को पहचानता है – और दर्शक सिर पकड़ लेते हैं। अल्जाइमर कोई कंबल ओढ़कर निभा लेने वाली बीमारी नहीं होती, और निर्देशक को यह बात शायद खुद याद नहीं रही।

दैविक भगेला के रूप में बल्लू इस फ़िल्म का सबसे बड़ा सरप्राइज है। उसकी मासूमियत, तर्कशक्ति, और संवाद अदायगी मन मोह लेती है। कई बार ऐसा लगता है कि पूरी फिल्म की आत्मा वही है – और सच कहें तो कई जगह वही इसे खींच भी ले जाता है। उसका एक संवाद – “इसीलिए मैं बड़े लोगों से दोस्ती नहीं करता, सब बाप बनने लगते हैं” – न सिर्फ हास्य पैदा करता है बल्कि गहराई भी।

कथानक में खोट या निर्देशक की भूल?

फिल्म की निर्देशक मधुमिता पहले भी तमिल फिल्म K.D. बना चुकी हैं, जिसका यह हिंदी रीमेक है। मूल फिल्म ने फेस्टिवल सर्किट में सराहना बटोरी थी, लेकिन हिंदी रीमेक में उत्तर भारतीय समाज और संस्कृति की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ गई। बंधारे का दृश्य हो या कालीधर का बिरयानी खाना – इन सब में ‘दिखाने’ का आग्रह इतना बढ़ गया कि सच्चाई खोने लगी।

स्क्रिप्ट का सबसे बड़ा दोष है उसका असंतुलन। कभी-कभी यह ‘वनवास’ (नाना पाटेकर अभिनीत) की याद दिलाती है, तो कभी लगता है लेखक भूल ही गए हैं कि कालीधर बीमार है। क्लाइमेक्स आते-आते फिल्म इतनी सपाट और भावविहीन हो जाती है कि दर्शक के मन में सवाल आता है – “क्या सिर्फ भावुकता के नाम पर सब कुछ परोस देना काफी है?”

कालीधर लापता जैसी भावनात्मक फिल्म में जिस परिवेश की कल्पना की गई थी—“कुंभ मेला”—वह पर्दे पर उतनी प्रामाणिकता से उतरता नहीं दिखा। दर्शक के रूप में जिस भीड़, रौनक और आस्था के समंदर की उम्मीद थी, वह बस बनारस के कुछ घाटों और कैमरे के सीमित फ्रेम में सिमट कर रह गया। अगर दो-चार नागा साधु भी जोड़ दिए जाते, तो शायद दृश्य का असर ज़्यादा गहरा होता। फिलहाल तो यह “कुंभ मेला” कम और “गंगा किनारे की शाम ” ज़्यादा लगा।

अब बात करें कालीधर के किरदार की – तो निर्देशक ने उन्हें अल्ज़ाइमर से पीड़ित और अनपढ़ बताया है, जो बार-बार अपना नाम तक भूल जाता है। पर फिर भी “केडी” नाम उसे बख़ूबी याद रहता है। एक दृश्य में तो वह दो अंग्रेज़ी शब्दों का स्पष्ट उच्चारण भी कर देता है, जिससे यह भ्रम और गहरा हो जाता है कि लेखक खुद भूल गया है कि उसका पात्र भूलने की बीमारी से जूझ रहा है। संभव है उस वक़्त निर्देशक की याददाश्त कमज़ोर पड़ गई हो — या शायद वह दृश्य ही out of context था। कुल मिलाकर, किरदार की मानसिक स्थिति को एकसार रखने में चूक हुई है।

एक और बेमेल प्रसंग है — शराब और चखने का दृश्य। यह पूरी तरह से थोपे गए सीन जैसा लगता है। खासकर तब, जब बल्लू जैसा 8 साल का बच्चा (जो मासूम और समझदार दिखाया गया है) बाल मजदूरी करके  शराब का इंतज़ाम करवाता है, और वह भी इसलिए कि कालीधर का “दिल टूटा” हुआ है। यह दृश्य केवल अस्वाभाविक ही नहीं, बल्कि संवेदनहीन और नैतिक तौर पर खटकने वाला है। एक तरफ फिल्म परिवारिक भावनाओं पर आधारित होने का दावा करती है, दूसरी तरफ बच्चों से बाल श्रम और नशे की खरीद जैसे संवेदनशील मुद्दे पर ऐसे दृश्य डालती है जो कहानी को ना तो आगे बढ़ाते हैं, ना ही किसी जरूरी सन्देश के वाहक बनते हैं। ये दृश्य दर्शक को विचलित करते हैं और फिल्म की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं।

इसके अलावा, कहीं-कहीं फिल्म की रफ़्तार इतनी धीमी और फैली हुई लगती है कि लगने लगता है जैसे कहानी को ज़बरदस्ती खींचा गया हो — जैसे दृश्य तो फिल्मा दिए गए हों, लेकिन मकसद अब खुद निर्देशक को भी याद न हो।

कुछ अच्छे पल भी हैं

फ़िल्म के कुछ संवाद जरूर गुदगुदाते हैं, जैसे —
हर रिश्ते की एक एक्सपायरी होती है,
बिना ढंग से मेहनत किए नींद भी नहीं आती,
या फिर वो मासूम दृश्य जब बल्लू, कालीधर के लिए लड्डू चुराता है।

इन छोटे-छोटे पलों में फिल्म थोड़ी राहत देती है, लेकिन वो स्थायी असर छोड़ने में चूक जाती है। फिल्म देखना वैसा ही अनुभव रहा जैसे मीठे-मीठे बोलों से भरा खत, जिसे पढ़कर सुकून तो मिले पर जिसे दोबारा पढ़ने का मन न हो।

निष्कर्ष: देख सकते हैं, भूल भी सकते हैं

कालीधर लापता एक “फील गुड” फिल्म बनने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन उसका गुड भाग थोड़ा कमजोर और फील बहुत अस्थायी है। यह उन फिल्मों में से है जिन्हें आप परिवार के साथ देख सकते हैं, हंस सकते हैं, शायद एक-दो बार भावुक हो सकते हैं – मगर अंत में यही कहेंगे: “चलो, ठीक था…”

अगर आप बॉब बिस्वास, लूडो, गुरु या रिफ्यूजी जैसी फिल्मों में अभिषेक की अभिनय क्षमता देख चुके हैं, तो यहां उन्हें देखकर आप संतुष्ट नहीं होंगे, बस सहानुभूति होगी कि उन्हें एक बेहतर पटकथा मिलनी चाहिए थी।

रेटिंग: ⭐⭐½ (5 में से 2.5)
प्लेटफॉर्म: Zee5
शैली: भावनात्मक ड्रामा
देखें जब: कोई ऑप्शन न हो और एक हल्की-फुल्की भावुक यात्रा पर निकलने का मन हो।

यदि आप फिल्म देख चुके हैं, तो आपके अनुभव जरूर साझा करें — क्योंकि जैसा कि कालीधर कहता है:
जाना अगर जरूरी हो, तो उसे जाने देना भी प्यार है।”
तो चलिए, इस फिल्म को भी वहीं जाने देते हैं।

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