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पुष्कर स्नानः गर्भजल, जरायु और नाभिनाल-Amniotic fluid,Chord and Placenta

पुष्कर स्नानः गर्भजल, जरायु और नाभिनाल

पुष्कर स्नानः गर्भजल, जरायु और नाभिनाल
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
नाभिनाल -शिशु को आँवल (प्लैसेन्टा) से जोड़ती है नाभिनाल। इसमें अत्यधिक बल खाई हुई दो धमनियाँ (आर्टरी) होती हैं और एक शिरा (वेन)। धमनियाँ शिशु के शरीर से अशुद्ध रक्त आँवल को ले जाती हैं और शिरा, शुद्ध हुआ रक्त, और माँ के रक्त से प्राप्त पोषक तत्त्व, शिशु के शरीर को पहुँचाती है। इस त्रिसूत्री संरचना (जैसी यज्ञोपवीत की होती है) और कोख और शिशु के बीच जीवन सेतु का काम करने के कारण, नाभिनाल को गर्भस्थ शिशु के यज्ञोपवीत की संज्ञा दी जाती है। यज्ञोपवीत संस्कार में यह त्रिसूत्री उपनयन गुरु और शिष्य के बीच ज्ञान सेतु का कार्य करता है।

पुष्कर स्नान – माँ के गर्भ में गर्भजल को पुष्कर के जल की संज्ञा दी गई है। गर्भजल में स्नान पुष्कर स्नान के समान फलदायक है। दस माह की समाधि के बाद सांसारिक जीवन प्रारम्भ होता है। गर्भजल का भू्रण की सुरक्षा एवं विकास में अहम् महत्त्व है। इसकी भौतिक सुरक्षा के बिना कोमल भू्रण प्रारम्भिक अवस्था में ही नष्ट हो जाएगा। इसके अतिरिक्त माता की कोख और जरायु के माध्यम से प्राप्त रासायनिक संवादों को गर्भजल ही भू्रण तक पहुँचाता है और भू्रण से निकले रसायनों को गर्भाशय तक। गर्भजल में गर्भस्थ शिशु आनन्द से जलक्रीड़ा करता है। यह न हो तो वह हिलडुल ही नहीं पाए। गर्भजल के माध्यम से आए रासायनिक संवेदों के फलस्वरूप गर्भाशय उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। शिशु जब पूर्ण विकसित हो जाता है तो वह यह संवाद भेजना बन्द कर देता है और फलस्वरूप गर्भाशय प्राकृतिक संकुचन की अपनी प्रवृत्ति में लौट आता है और प्रसव आरम्भ हो जाता है। शिशु का कोमल सिर गर्भपथ से गुज़रे उसके पहले गर्भजल की थैली ही उसका मार्ग प्रशस्त करती है। गर्भजल से भू्रण का पोषण भी होता है। कुछ कथावाचक गर्भजल में शिशुजीवन को नरक की संज्ञा देते हैं। उनको गर्भजल की पावनता का ज्ञान नहीं, वे इसके जीवनदाई महत्त्व को नहीं समझते।

नाभिनाल की धमनियों की धड़कन से आँवल से रक्त लाने वाली शिरा का रक्त शिशु की ओर पम्प होता है, गतिशील होता है। इसकी लम्बाई के कारण ही शिशु गर्भ जल में स्वच्छन्द क्र्रीड़ा कर सकता है। शिरा से लौटने वाला रक्त स्वच्छ होता है अतः शिशु के हृदय को उसे प्राणवायु ऑक्सीजन से शुद्धीकरण के लिए फेफड़ों में भेजने की आवश्यकता नहीं होती। शिशु के फेफडे़ उस समय कार्य भी नहीं करते और न उनके पास श्वास से आई प्राणवायु होती है। अतः शिशु के शरीर में ऐसी व्यवस्था होती है जिससे बिना फेफड़ों में भेजे, शुद्ध रक्त को सीधा शिशु के पूरे शरीर में भेजा जा सके। यह व्यवस्था ख़त्म हो जाती है जब प्रसवोपरान्त बच्चा रोता है और उसके फेफडे़ काम करना शुरू कर देते हैं। तदुपरान्त शिशु का हृदय अशुद्ध रक्त को शुद्धीकरण के लिए फेफड़ों में भेजता है और वहाँ शुद्ध हुए रक्त को प्राप्त कर शिशु के पूरे शरीर को। यह सब पूर्वनिश्चित प्राकृतिक प्रक्रिया के अनुरूप होता है। इसके लिए प्रकृति गर्भपथ से गुज़रते शिशु को रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा और सक्षम बनाती है।

डॉ. श्रीगोपाल काबरा
15, विजय नगर, डी-ब्लाक, मालवीय नगर, जयपुर-302017 मोबाइलः 80035161

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