खच्चर रुक गया।
आगे देखा — खच्चरों की लंबी कतार — क्षितिज तक फैली हुई।
जैसे पूरा कारवां थम गया हो और क्षितिज में लुप्त हो रहा हो।
तब जानकारी मिली — “आगे लैंडस्लाइड हुआ है, ट्रैफिक रुका हुआ है!”
इसी बात की पुष्टि इस बात से भी हुई कि अब सामने से कोई खच्चर लौट भी नहीं रहा था।
हमने अपनी छिली हुई जाँघों को थोड़ी हवा देने के लिए पैरों को थोड़ा फैलाया, सुस्ताया।
पहले तो खच्चर पर ही एक घंटे बैठे रहे।लेकिन जब पीठ का अब और जबाब देते नहीं बना तो
फिर उतरकर पास के एक संकरी पहाड़ी कटाव में बने सीढ़ीनुमा शेल्टर पॉइंट पर जाकर बैठ गए।
छह घंटे वहीं अटके रहे।
भीड़, फिसलन, थकान — पर साथ में उन हज़ारों श्रद्धालुओं के चेहरों पर जो संयम और विश्वास दिखा — उससे दिल को तसल्ली मिली —
“चलो, हम अकेले नहीं हैं इस यज्ञ में!”
वो विश्वास जो भीतर ही भीतर डगमगा रहा था, अब फिर मजबूत होने लगा।
जैसे ही ट्रैफिक खुला, दोबारा खच्चर पर चढ़े।
पर उसकी रफ्तार ऐसी मानो घोंघा भी उसे ओवरटेक कर जाए।
हर घंटे में मुश्किल से 100 मीटर का सफर तय हो रहा था।
इतनी देर तक बैठे रहे कि कमर और पीठ भक्ति भाव से अपने आप झुकने लगीं।
हमारी मानसिक श्रद्धा अब शारीरिक थकावट में बदल चुकी थी।
आखिरकार कह ही दिया —
“भैया, थोड़ा पैदल चलते हैं… खच्चर को पीछे से ले आना!”
दो किलोमीटर ही पैदल चले थे कि सांस फूलने लगी।
अब खच्चर की राह देखने लगे — डर भी था, कहीं वो वापस तो नहीं चला गया? नहीं ,हमने बुकिंग तो बोर्ड से कराई है ! हमने जेब में श्राइन बोर्ड की दी गयी रसीद को टटोला..वो नदारद..ओह याद आया ,वो तो खच्चर वालों ने पहले ही ले ली थी..! अब हमें विशवास हो गया था की ,हमारे साथ धोखा हुआ है..वो निश्चित ही वापस हो लिए होंगे !
फिर देखा — कुछ और यात्री भी हमारे तरह इंतज़ार में थे।
थोड़ी और तसल्ली मिली — “चलो, हम अकेले नहीं हैं इस विपत्ति में भी। जो इनके साथ होगा वो हमारे साथ भी हो जाएगा l ”
बीच-बीच में “हर हर महादेव!” के नारे वातावरण में ऊर्जा का संचार करते रहे।
श्रद्धा की आग में थकान की राख जमती रही।
रास्ते में एक दृश्य ने तो दिल ही हिला दिया —
दो वृद्ध श्रद्धालु पालकी में लौटते दिखे —
एक का सिर लटक रहा था, मुँह से झाग निकल रही थी।
रेस्क्यू टीम उन्हें नीचे ले जा रही थी — शायद हार्ट अटैक हुआ था।
उस पल दिल काँप गया —
“भक्ति और श्रद्धा में अंधापन भी नहीं होना चाहिए।”
चार घंटे बाद हमारा खच्चर फिर दिखाई दिया। ऐसा लगा की जैसे मुर्दे में जान फूंक दी हो !
दुबारा यात्रा शुरू हुई।
अब हर पहाड़ी पर चढ़ते समय लगता — “हाँ! यही तो आखिरी चोटी है!”
लेकिन जैसे ही चढ़ाई खत्म होती — एक और नई चोटी सामने!
शायद अगर बाबा बर्फानी एकसाथ पूरी कठिनाई दिखा देते तो आधे श्रद्धालु वहीं से लौट जाते!
इसलिए उन्होंने भी चतुराई से रास्ता ‘डोज़ वाइज़’ दिखाया।
और हम आगे बढ़ते रहे… एक विश्वास, एक पुकार और एक लक्ष्य लिए — बाबा बर्फानी के दरबार तक!
हमने सोचा था — “11 बजे बाबा के दर्शन कर लेंगे” —और 4 बजे तक तो वापस बालटाल पहुँच लेंगे l
लेकिन प्पहुंचने में ही पञ्च बंज चुके थे , वहां एक सूचना ने और हमारे धैर्य की परीक्षा ली
“बस एक घंटा और है … 6 बजे बाद दरवाज़े बंद हो रहे हैं, दर्शन नहीं होंगे!”
अब आया असली ट्विस्ट!
जिन पालकी पर बैठे लोगों को हम राजा-महाराजा कहकर ताने मार रहे थे —
“यार! कैसे लोग हैं ये… भला आदमी के ऊपर कोई आदमी लदता है क्या?”
अब खुद उन्हीं की ओर उम्मीद से देखने लगे।
वैसे हम तो खच्चर पर चढ़ने वालों को भी लानत की दृष्टि से ही देखते थे —
“यार! जानवरों पर क्रूर हिंसा है ये…”लेकिन वो तब तक था, जब तक जेब में हेलिकॉप्टर के टिकट फड़फड़ा रहे थे।
जैसे ही हेलिकॉप्टर की हवा निकल गई और जेब में रखे टिकटों ने फड़फड़ाना बंद किया,
हमारे अरमान भी चुपचाप फड़फड़ाना बंद कर जमीनी हकीकत तक आ पहुँचे थे ।
बाबा बर्फानी की वो अद्भुत यात्रा.-भाग प्रथम के लिए यहाँ क्लिक करें
तभी एक पालकी वाला तेज़ आवाज़ में बोला —
“काहे साहब! क्या सोच रहे हैं? पंद्रह मिनट में पहुँचा दूँगा — गारंटी से बाबा के दर्शन करवा दूँगा!”
“इतना पास आकर बिना दर्शन के लौटेंगे शाब ?”
पालकी ने जहाँ छोड़ा, वहाँ से आया एक आख़िरी इम्तिहान — 500 सीढ़ियाँ!
उन्हें देखकर ही साँस फूलने लगी।
आज का इंसान जो एस्केलेटर और लिफ्ट से ऊपर-नीचे होता रहा है, अब इन पत्थर की सीढ़ियों पर चढ़ना…
लेकिन अब जब मंज़िल इतनी पास थी, तो कौन रुकता?
याद आ गया वो प्रेरक वाक्य —
“खजाना बस तीन-तीन फुट खुदाई दूर है…”
प्रेरणा मिली — और खटाखट सीढिया चढ़ बैठे ।
और फिर… जैसे ही बाबा बर्फानी के दर्शन हुए —
सारी थकान, सर्दी, डर, दर्द और टपकती टेंट की रातें — सब विस्मृत हो गईं।
पर कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई थी…
वापसी भी किसी रोमांच से कम नहीं थी —
अंधेरा हो चुका था, फिसलन थी, कीचड़ था, ढलान था…
ऊपर चढ़ो तो खच्चर की पीठ से चिपक जाओ,
नीचे उतरो तो मुँह खच्चर की पीठ पर!
तभी हमारे सामने ही एक खच्चर से एक युवती (करीब 25 वर्ष की) धड़ाम से गिरी।
संकरी गली में खच्चर और लड़की दोनों एक-दूसरे पर ही गिर गए —
“एक इधर गिरा, एक उधर गिरा” — का विकल्प था ही नहीं।
खच्चर वाले ने तैश में आकर खच्चर हटाया, लेकिन युवती की कोहनी टूट चुकी थी।
दृश्य इतना भयावह था कि एक क्षण को हमने रुककर मदद करने की सोची —
मगर खच्चर वाले ने मना कर दिया—
“साहब, रोज़ का काम है ये! पीछे आते होंगे मेडिकल की टीम वाले, कुछ मिलिटरी वाले लोग… सब संभाल लेंगे।
हमारी मजबूरी है साहब, खच्चर छोड़ा तो फिर हमारे जाने का क्या ठिकाना?”
रात गहराने लगी थी…
यात्रा की कई उदास यादों के ऊपर बाबा बर्फानी के दर्शन का भाव थोड़ी राहत का मरहम बनकर बैठा था।
मन में एक संतोष था —
“चलो, जो हमारे शहर से बेरंग लौट चले हैं, उन्हें कहने का मौक़ा मिलेगा —
‘बाबा हर किसी पर मेहरबान नहीं होते साहब, जिसे बुलाना होता है, उसे ही बुलाते हैं।’”
यह एक अनुभव था — जो जीवन भर यादों की बर्फ में जमा रहेगा।
🙏 हर हर महादेव! 🙏

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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देवों के देव महादेव 🙏
abhaar aapka pratkriya ke liye..har har mahadev