बाबा बर्फानी की वो अद्भुत यात्रा… 🚁भाग प्रथम
बचपन में कभी स्कूल की हिंदी पाठ्यपुस्तक में अमरनाथ यात्रा का एक संस्मरण पढ़ा था — लेखक के भीतर एक द्वंद्व चलता था, “या तो अमरनाथ पहुँचेंगे, या फिर अमरपुरी।” उस समय मन में यही प्रश्न उठता था — क्या वाकई इतनी खतरनाक होती है ये यात्रा? और फिर भी लोग क्यों खिंचे चले जाते हैं इस कठिन राह पर? क्या यह कोई यायावरी या तीर्थयात्रा से बढ़कर जुनून है?
समय के साथ समझ आया — हाँ, यह सिर्फ एक ट्रैक या ट्रिप नहीं, श्रद्धा, भक्ति और विश्वास की डोर है जो लोगों को खींच लाती है। मन में कहीं न कहीं एक इच्छा पल रही थी — इस रोमांच को स्वयं भी अनुभव करूं कभी, जब मौक़ा मिले।
और वो मौका आ ही गया। कुछ मित्रों से बात हुई, हिम्मत बढ़ी, प्लान बना। हमने डर का जिक्र किया तो यार बोले — “अरे अब वो ज़माना नहीं रहा, अब तो सब सुविधा से भरपूर हो गया है।” सच है, अब युग बदल चुका है।
अब की यात्रा न तो उतनी खतरनाक रही, न ही उतनी कठिन। हर मोड़ पर तैनात सेना के जवान, हर पग पर सुरक्षा बल,मेडिकल सेवाओं के अस्थायी कैंप , घाटियों में टेंट, और हर गली-नुक्कड़ पर लंगर। दिल्ली और आसपास के बड़े सेठ-ट्रस्टों ने पाँच सितारा लंगर लगाए हुए हैं — चेयर-टेबल के साथ प्रेमपूर्वक 56 भोग परोसे जा रहे हैं, कि अच्छे-अच्छे रेस्तरां भी शर्मा जाएं।
जानकारी मिली कि दो रूट हैं — पहलगाम और बालटाल। बालटाल वाला छोटा रूट है, एक दिन में यात्रा पूरी हो जाती है। पहलगाम वाला लंबा है, तीन दिन लगते हैं, मगर रास्ता थोड़ा आसान होता है। पर उतरते वक़्त दोनों ही बालटाल वाले रूट से ही नीचे आते हैं।
हमने हेलीकॉप्टर से यात्रा का प्लान बनाया उसके लिए बालटाल वाला रूट चुना — जो नीलग्राथ (सोनमर्ग के पास) से शुरू होता है। वहाँ से पंचतरणी तक हेलीकॉप्टर ले जाता है, और फिर मात्र 5 किलोमीटर की आसान पैदल यात्रा — चिकना, समतल रास्ता। सोचा — अब तो बच्चों का खेल है!
मगर किस्मत कौन सा अध्याय पढ़ रही थी, ये किसी को क्या पता!
पहला दिन श्रीनगर में बीता — झमाझम बारिश के बीच। दूसरे दिन सोनमर्ग पहुँचे, लेकिन बारिश पीछा नहीं छोड़ रही थी। नीलग्राथ हेलीपैड तक के रास्ते में लगातार बरसात। उसी दिन की हमारी हेलीकॉप्टर बुकिंग थी। पूरा दिन लाइन में लगे रहे — वेरिफिकेशन, आईडी बनवाने की लंबी लाइनें, धक्का-मुक्की, भगदड़, और बेचैनी।
शाम को सूचना मिली — “हेलीकॉप्टर सेवा रद्द, अब कल के लिए रेशेड्यूल होगा।”
थके-हारे हम नीलग्राथ में एक टेंट लेकर रुके। बारिश टपकती रही, टेंट की छत से पानी रिसता रहा, नीचे की जमीन गीली, ऊपर से कंपकंपा देने वाली ठंडी हवा। किसी तरह पूरी रात कांपते हुए काटी।
अगली सुबह चार बजे फिर हेलिपैड की लाइन में लग गए — उम्मीद थी, बाबा के दर्शन की आस थी। लेकिन… फिर वही अफरा-तफरी, लंबी लाइनें और अफवाहों का बाज़ार गर्म।
कल के बचे हुए यात्री + आज के शेड्यूल वाले — संख्या दोगुनी हो चुकी थी। लोग अनुमान लगा रहे थे — “इतने हेलीकॉप्टर उड़ेंगे तो शायद नंबर आ ही जाएगा।” दो-चार हेलीकॉप्टर उड़े भी, उम्मीद की किरण जगी… लेकिन जब हमारा नंबर आया — तब ऐलान हुआ —
“हेलीकॉप्टर सेवा रद्द!” 😞
उधर सुना — पहलगाम रूट वाले भी वापस लौट रहे हैं।
मन को थोड़ी तसल्ली मिली — जैसे दूसरों का संकट देखकर अपने संकट की धार थोड़ी मंद पड़ जाती है। अब यात्रा स्थगित।
बाबा को दूर से प्रणाम किया और भारी मन से टेंट की ओर लौटे। सोचा — सोनमर्ग में ही रुक जाते हैं आज। एक बार लंगर में शाम की प्रसादी पा लें — फिर लौट चलें…
कभी दर्शन नसीब होंगे तो बाबा खुद बुला लेंगे…
लाइन में थाली हाथ में लिए जब लंगर में भोजन के इंतज़ार में खड़े थे, तो आसपास खड़े कुछ यात्री खच्चर और पैदल यात्रा की बातें कर रहे थे। तभी न जाने किस अदृश्य प्रेरणा ने हमें भीतर तक झकझोर दिया — और हमने भी अचानक ठान लिया — “चलो! बाबा ने बुलाया है!”
साथी चौंक गए — “अरे डॉक्टर साहब, आप चलेंगे पैदल?” उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि जो व्यक्ति सिर्फ इसलिए शामिल हुआ था कि हेलिकॉप्टर से वीवीआईपी दर्शन कर लौट आएगा, वो अब खच्चर और पैदल यात्रा की तैयारी में लग गया है!
हम पहुँच ही गए बालटाल। एक टेंट लिया। रात के 12 बजते-बजते वहाँ पहुँचना हुआ, और सुबह 4 बजे यात्रा शुरू करनी थी।
खच्चर पहले ही बुक कर रखा था — सो मन थोड़ा निश्चिंत था, पर जो दृश्य सामने था वो किसी भी फिल्मी भीड़ वाले सीन को पीछे छोड़ दे।
ऐसी भीड़ जैसे पूरा देश अमरनाथ की लाइन में लग गया हो!
खच्चरों को देखा… और उन्होंने हमें।
इतने मरी-मरियल, थके-हारे से लग रहे थे — जैसे किसी दिहाड़ी मज़दूरी वाले की बुझी आँखों सी निरीहता उनमें ।
मन थोड़ा खिन्न हुआ — सोचा, कुछ दूरी पैदल तय करेंगे, कुछ इन पर — जैसा होगा, देखा जाएगा।
फिर शुरू हुई वो सर्पीले पहाड़ों की संकरी राह —
जहाँ एक तरफ से खच्चर ऊपर आ रहे हैं और दूसरी तरफ से नीचे जा रहे।
दोनों की पीठ आपस में रगड़ खा रही है।
खच्चर वाला बार-बार कह रहा था —
“साहब, पैर सटाकर चलिए, वरना सामने से आता खच्चर उखाड़कर ही ले जाएगा!”
शायद उसी डर से हम अपनी जांघों के अंदरूनी हिस्से तक छिलवा बैठे —
लेकिन सोचा, पैर उखड़ने से बेहतर है थोड़ा छिल जाना — “यह कष्ट स्वीकार!”
शुरुआत में रास्ता देखकर रोमांच हुआ — कुछ दूरी तक “वा वाह!” करते रहे।
सेल्फियाँ लीं, पैनोरमिक दृश्य देख मन पुलकित हुआ।
हल्की फुहार और पहाड़ी हवा ने मूड में थोड़ी रोमांटिक ट्यून भी घोल दी —
कोई गा रहा था — “हुस्न पहाड़ों का…”
लेकिन यह धार्मिक यात्रा में पिकनिक स्पॉट की मिश्रित भावना शायद बाबा बर्फानी को पसंद नहीं आया।
क्रमशः ——–भाग दो के लिए यहाँ क्लिक करें

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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बहुत अच्छा सफर का अनुभव
abhaar aapka patikriya ke liye