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जंगल की पुकार: हरियाली, जीवन और संरक्षण की कविता

एक घना हरा-भरा जंगल जिसमें सामने एक हिरण खड़ा है, ऊपर एक पक्षी उड़ रहा है और एक कौआ झाड़ी पर बैठा है; पृष्ठभूमि में धुंध से ढकी पहाड़ियाँ और ऊँचे-ऊँचे पेड़ दिख रहे हैं।

जंगल केवल पेड़ों और जानवरों का घर नहीं, बल्कि हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। यह हरियाली, शांति, और जैव विविधता का प्रतीक हैं, जो धरती को संतुलन और सांसें प्रदान करते हैं। लेकिन आज मानवीय लालच और विकास की अंधी दौड़ ने इन प्राकृतिक धरोहरों को संकट में डाल दिया है। प्रस्तुत कविता “जंगल की पुकार” न केवल जंगल की सुंदरता और उसकी विविधता का चित्रण करती है, बल्कि उसके संरक्षण की ज़रूरत को भी भावनात्मक और सशक्त शब्दों में सामने लाती है। आइए इस कविता के माध्यम से प्रकृति से एक बार फिर जुड़ने का संकल्प लें।

जंगल की पुकार

जंगल ये जंगल, हरियाली का घर,

पेड़ों की छाया, नदियों का स्वर।

पंछी जो चहके, जैसे गीत गाएँ,

हर कोना बोले, बस शांति सुनाएँ।

झरनों की बातें, फूलों की खुशबू,

धरती की गोदी में सजी है सबू।

हिरन की छलांगें, मोर की अदा,

प्रकृति का ये रूप है सबसे जुदा।

नीम, पीपल, साल, बबूल,

खड़े हैं प्रहरी बन, रहते हैं कूल।

जानवर, पक्षी, कीड़े भी यहाँ,

सबका है हिस्सा, सबका है जहां।

पर खतरे में है अब ये जादू भरा,

मानव की लालच ने इसे भी मारा।

कटते हैं पेड़, सिमटती हैं राहें,

घटती हैं साँसें, मिटती हैं चाहें।

संभालो इसे, बचालो इसे,

जंगल की पुकार को सुनो ज़रा।

ये सांसें हैं अपनी, ये जीवन का रंग,

जंगल ये जंगल, है धरती का संग।

डॉ. मुल्ला आदम अली,

तिरुपति, आंध्र प्रदेश

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