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संगिनी-कविता-बात अपने देश की

एक धुंधले सुनहरे आकाश के नीचे एक व्यक्ति अकेला चल रहा है, उसके पीछे उसकी परछाई समानांतर चलती है — प्रकाश और अंधकार के इस संयोजन में परछाई एक अविचल संगिनी के रूप में उभरती है।

मैं आगे वो पीछे,वो आगे मैं पीछे

होड़ नही आगे पीछे की

चलते रुकते दोनों साथ

अनुशासन सिखाती वो

संग सदा रहती मेरे

ज्यों मेरी संगिनी हो

दिनकर रश्मि जैसे बढ़ती

वैसे ही बढ़ती है वो

समझाती पल पल की क़ीमत

जीना मुझे सिखाती वो

संग सदा रहती मेरे

ज्यों मेरी संगिनी हो

तेरा मेरा भाव छोड़कर

साथ सदा

अपनों से रखने का

संदेश बड़ा दे जाती वो

सदा संग रहती

ज्यों मेरी संगिनी हो

जीवन पल पल घटता जाता

ज्यों भानु-प्रभा होती जाती मंद

दौर बड़ा ही नाज़ुक जीवन का

सर्व जन को बताती वो

सदा संग रहती मेरे

ज्यों मेरी संगिनी हो ।

संगी साथी बिछड़ेंगे सब

सहचरी सदा रहेगी वो

अन्तिम साँसें जब हम लेंगे

शतानक साथ रहेगी वो

सदा संग रहती मेरे

ज्यों मेरी संगिनी हो

पकड़े नही पकड़ाती है

वो परछाई ही है सबकी

जो अंतशय्या पर जलती है साथ

निःस्वार्थ सहचरी रहना सिखाती वो

सदा संग रहती मेरे

ज्यों मेरी संगिनी हो।

रचनाकार -आशा पालीवाल पुरोहित आशु

परिचय

आशा पालीवाल पुरोहित आशु

सेवानिवृत्त व्याख्याता

एम. ए. बीएड

कांकरोली (राजसमंद )

313324

प्रदेश उपाध्यक्ष

विप्र फाउंडेशन जॉन 1 A राजस्थान

सचिव- मकान इकाई राजसमंद ,

सदस्य – साकेत साहित्य संस्थान

सदस्य- इन्द्रधनुष राजस्थान साहित्य दर्पण

सदस्य- प्रणय साहित्यिक दर्पण

सदस्य- वर्ण पिरामिड (जसाला)

15 वर्ष से लेखन ।

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