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“आज़ादी के दिन का अधूरा सपना”-लघु कथा

"गांधी मैदान के किनारे फटे-पुराने कपड़ों में नंगे पाँव बच्चे लकड़ी के टुकड़े उठाकर भाग रहे हैं, पीछे लहराता तिरंगा और लौटती भीड़; आज़ादी के दिन का अधूरा सपना।"

“आज़ादी के दिन का अधूरा सपना”

15 अगस्त की सुबह थी। देश अपनी आज़ादी का 79वाँ पर्व मना रहा था।
मैं और मेरे दो दोस्त पटना के गांधी मैदान पहुँचे, जहाँ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आगमन होना था। लेकिन हम थोड़ी देर से पहुँचे, और भाषण समाप्त हो चुका था।
चारों ओर देशभक्ति के गीतों की गूँज धीमे-धीमे मिट रही थी, तिरंगों की कतार हवा में लहरा रही थी, और भीड़ बिखरकर अपने-अपने घरों की ओर लौट रही थी।

मैदान के किनारे नज़र पड़ी — कुछ टेंट, जिनमें वे लोग रहते थे जिनके पास ‘घर’ नाम की कोई पक्की दीवार नहीं थी।
हम वहीं टहलते रहे। तभी मैंने देखा — कुछ नन्हे-नन्हे बच्चे, नंगे पाँव, फटे-पुराने कपड़ों में, मैदान के एक कोने से लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े उठा रहे थे।
वे दौड़ते हुए अपने टेंट की तरफ भाग रहे थे।
उनके चेहरों पर एक अजीब-सा डर था — जैसे यह लकड़ी कोई उनसे छीन न ले।

मैंने एक बच्चे को रुकने को कहा, पर उसने मुझे ऐसे देखा मानो मैं उसका दुश्मन हूँ। वह और तेज़ भाग गया।
उस एक नज़र में, उसकी सारी मजबूरी, उसका बचपन, उसकी भूख और उसका डर — सब साफ़ झलक गया।

मैं पास की एक बेंच पर बैठ गया।
तिरंगा अब भी हवा में लहरा रहा था, लेकिन मेरे भीतर एक सन्नाटा उतर आया था।
मैं सोचने लगा —
आज, जब हम गर्व से ‘स्वतंत्र’ कहला रहे हैं, उसी आज़ाद भारत में ऐसे बच्चे भी हैं, जिनके लिए एक टुकड़ा लकड़ी भी खजाना है।

शायद, असली आज़ादी उस दिन आएगी, जब किसी बच्चे को छत के लिए लकड़ी नहीं, सपनों के लिए कलम ढूँढ़नी पड़ेगी।

लेखक परिचय:

वसीम आलम
जिला सिवान, बिहार

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