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आवारा कुत्तों का लोकतंत्र-व्यंग्य रचना

"सड़क किनारे लोकतंत्र का प्रतीक कुत्ता पूँछ हिलाते हुए बैठा है, आसपास लोग बहस में उलझे हैं—कोई कुत्ता प्रेमी, कोई सुरक्षा चिंतित माता-पिता, तो कोई नगर निगम का अधिकारी।"

शहर के हर मोड़ पर लोकतंत्र बैठा है, पूँछ हिलाता हुआ। कहीं वह आवारा कुत्ते के रूप में चौकीदारी कर रहा है, तो कहीं इंसानों को सड़क की असलियत बता रहा है कि फुटपाथ भले ही पैदल लोगों लिए होता हो, पर जैसे दुनियां में जाने कहां कहां आतंकियों का कब्जा है, जाने कहां कहां सेनाओ का कब्जा है , रसूख वालों का व्यापार में कब्जा है कुछ उसी तरह आवारा पशुओं का कब्जा हमारे देश की गलियों , सड़कों पर है ।
घर के ठीक बाहर डर है।
आवारा पशुओं का , चीते का , गाय बैल का कुत्तों का , बंदरों का । और तो और छेड़ छाड़ करते असामाजिक तत्वों बलात्कारियों का डर भी है। तेज गति से गलत दिशा में मोटरसाइकिल चलाते छपरी शोहदों ,भागते वाहनों का डर हम पर हावी है।
बच्चा स्कूल जाता है, तो उसके सकुशल लौटते तक माँ का दिल धक धक करता है कि मोहल्ले का आवारा रक्षक कालू कहीं उसकी पानी की बोतल या टिफिन को प्लास्टिक आतंक समझकर बच्चे पर हमला न कर दे । अस्पतालों में एंटी रैबीज़ की कतारें बताती हैं कि यह डर केवल व्हाट्सऐप पोस्ट पर नहीं, रोज का यथार्त आँकड़ा है।

इधर अदालत ने भी सड़क किनारे बैठकर विवेक का बिस्कुट खोला है। शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली एनसीआर की सड़कों से कुत्तों को हटाकर बाँझीकरण कर स्थायी रूप से शेल्टर में रखा जाए। भाषा में करुणा भी थी और कड़कपन भी, समझदारी के साथ , जैसे दादी दूध में हल्दी घोलकर कहें , पी लो , खाँसी ठीक हो जाएगी। पर आदेश सुनते ही पुराना नियम बीच में कूद पड़ा बाँझीकरण और टीकाकरण के बाद कुत्तों को उसी क्षेत्र में वापस छोड़ना चाहिए। अदालत को यह बात निरर्थक लगी, पशुप्रेमियों को यह अमानवीय लगी, और नगर निगम को यह कठिन लगी।

दिल्ली में अब सड़क से ज़्यादा शोर सोशल मीडिया पर है। कोई पशु प्रेमी , कुत्तों की आज़ादी का गीत गा रहा है, तो कोई स्कूल के बाहर बच्चों की सुरक्षा का नारा लगा रहा है। कुत्ता प्रेमियों का तर्क है कि सड़कों से कुत्ते हटाने से पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ेगा और चूहे-बंदर जैसे दूसरे आवारा पशु सत्ता संभाल लेंगे। प्रशासन कहता है कि डर का माहौल खत्म होना चाहिए। अदालत कहती है , आदेश लागू करो। और इस बीच मोहल्ला समिति में वही चर्चा है “कुत्तों को हटाएँ या बिस्कुट का ब्रांड बदलें?” काले कुत्ते को रोटी खिलाकर शनि की वक्र दृष्टि से बचने की सलाह देने वाले बाबा गुमसुम से हैं । अखबार के पृष्ठ फड़ फड़ा रहे हैं।

सुबह पार्क में कुत्ते को बची हुई रोटी खिलाकर आत्मा तृप्त करते लोग , शाम को कुत्तों से सुरक्षा बैठक में बच्चों के लिए ‘डॉग-फ्री कॉरिडोर’ माँगते हैं। निवासी संघ की बैठक में पहला एजेंडा कुत्तों के खाने का प्रबंध, दूसरा कुत्तों को हटाने की याचिका, तीसरा गेट पास का रंग पर सब चर्चा में जुटे हैं।

आवारा कुत्ता नियंत्रण का सिद्धांत कहता है कि समस्या का स्थायी समाधान केवल कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण का सतत कार्यक्रम है। यह चुनाव प्रचार की तरह वार्डवार, मोहल्लावार किया जाना चाहिए। पर शहरों में हम दो काम शिद्दत से करते हैं , शॉर्टकट और कॉन्ट्रैक्ट। शॉर्टकट से फोटो आ जाता है, कॉन्ट्रैक्ट से फाइल चलती है, पेमेंट हो जाता है और अगले मौसम में वही कुत्ते नए पिल्लों के साथ फिर फिर लौट आते हैं।

स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि कुत्ते के काटने के बाद समय पर रेबीज का टीका ही जान बचा सकता है। पर हम अक्सर पहले बहस करते हैं, इलाज के लिए अस्पताल बाद में पहुंचते हैं। यह हमारी राष्ट्रीय आदत है चाहे मुद्दा कुत्ते काटने का हो या चुनाव का।

असल में कुत्ता नायक भी नहीं, खलनायक भी नहीं। वह हमारे शहर का अनकहा इतिहास है जो हमारी कचरे की थैली से लेकर हमारी असुरक्षा तक सब पढ़ लेता है। तय हमें करना है ,उसे समस्या मानकर शेल्टर में बंद करें, या समस्या वहीं पकड़ें जहाँ से वह पैदा होती है । कचरा प्रबंधन, नसबंदी, टीकाकरण और सामुदायिक जिम्मेदारी , हाट टॉपिक बने हुए हैं।

अदालत की घड़ी, नियमों की किताब और मोहल्ले की बैठक जब एक मत हो, तब शायद शहर के मोड़ पर बैठा लोकतंत्र भी पूँछ हिलाकर कहेगा , आज रात चैन से सोओ।

और हाँ, कुत्ता काटे तो बहस में समय बर्बाद करने से पहले तुरंत रेबीज का टीका लगवा लीजिए, दोषारोपण और बहस बाद में भी हो जाएगी।

विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल

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