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देव सो रहे हैं और आम आदमी पिट रहा है….? व्यंग्य

एक थकी हुई जनता की प्रतीकात्मक छवि जिसमें साहब कुर्सी पर झुके हैं, चपरासी दीवार से टेक लगाए ऊंघ रहा है और बैकग्राउंड में लिखा है – "देव सो रहे हैं..." – दर्शाता है सामाजिक तटस्थता और भाषाई राजनीतिक विडंबना।

देव सो रहे हैं। सोना अच्छी बात है। इससे तनाव कम होता है। ज्यादा सोने से अपना नहीं दूसरों का तनाव बढ़ता है। कौन नहीं सो रहा? साहब/बाबू/किसान/व्यापारी/सरकारी आदमी सो रहा है, लेकिन चपरासी ओंघ रहा है, उसे सोने का अधिकार नहीं है। चपरासी प्रहरी है जो सोए हुए बाबू और साहब की निद्रा में कोई खलल न डाले इसलिए ओंघता है। केवल सेना के प्रहरी जाग रहे हैं, देश के लिए, जनता के लिए। 

सोना एक कला है, सोने की तरह महंगी है। विन्डो सीट के अभाव में मुंबईकर खड़े-खड़े घोड़े की तरह सो लेता है। बाबू कुर्सी पर, चपरासी दिवार के सहारे, पति बिस्तर पर तो पत्नी जमीन पर इच्छाओं को मारकर सो रही होती है। 

देव सोने से वे काम रुकते हैं, जिनमें मुहर्त की जरूरत होती है। कुछ काम ऐसे होते हैं, जिन्हें जागकर करना होता है। जनता सो रही है, लेकिन उसे जगाने के लिए कभी भाषा तो कभी धर्म का सहारा लेना पड़ता हैं। लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर वह सो जाती है। जाति/धर्म/भाषा के नाम पर जागती है, उसके जागने का फायदा उसे नहीं होता। जिस समय उसके योगदान की सख्त जरूरत है, उस समय भी वह सोती है। वोट देने के समय सो जाती है। आतताइयों के खिलाफ सो जाती है। अपराधियों से मुकाबला नहीं करती, उन्हें शरण देती है, क्योंकि उनकी छत्रछाया में सोना है। सोना में उसका स्वार्थ है। वह नहीं चाहती कि उसकी नींद में कोई खलल डाले?

सेहत के लिए डाॅक्टर सोने की सलाह देता है। इनवेस्टर सोने का फायदा उठाते हैं।  जनता गलत जगह इनवेस्ट कर सो जाती है। सोने से खुद की सेहत बनती है लेकिन घर की सेहत बिगड़ती है। सोना फायदेमंद नहीं रहता है। जनता जब सोती है तो नेता का फायदा होता है, नेता सोता है तो दुश्मन का फायदा होता। घर मालक सोए तो घर का सत्यानाश, गृहणि बेवक्त सोए तो घर बरबाद होता है। विद्याथर््िायों को जब नींद ज्यादा आने लगे तो उनका भविष्य सो जाता है।

सत्ता बदलती है, सोती नहीं है। सत्ता बदलते ही साहब बदल दिए जाते हैं। साहब लौकी के समान होते हैं, आने से पहले एक फुट और सोने के बाद पांच फुट बढ़ जाते हैं। बहुत कम साहब नारियल की तरह कठोर और भीतर से नरम होते हैं। साहब तुरई की तरह बीच-बीच में कड़वे निकल पड़ते हैं। स्टाॅफ नज़रों में वे हमेशा करेला होते हैं। साहब कुत्ते की नींद सोते हैं। जरा सी आहट पर सतर्क हो जाते हैं। उनकी भाषा स्टाफ समझता है। आम जनता के बीच साहब नहीं जाते। आम भाषा से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। साहब सो रहे हैं या जग रहे मालूम नहीं पड़ता। बाबू सोता हुआ दिखाई देता है। साहब की मुंडी पेन्डुलम होती है, अंदाजा लगाना मुश्किल होता है, वे सहमत हैं या ….. 

नए साहब की भाषा को लेकर स्टाॅफ में मतभेद था। न जाने कौन से प्रांत के हैं? साहब केवल प्रशासनिक भाषा बोलते है। जिससे विवाद कम हल ज्यादा निकलते हैं। बाबू की भाषा मिमयाने की होती है। भाषा के प्रवाह में कहीं पिट न जाए, इसलिए उसकी भाषा आम आदमी की होती है। उसकी मिमयाने में भलाई है। बाबू के दहाड़ने से घर गिर जाएगा। बाबू रंगहीन पदार्थ है। सत्ता या साहब परिवर्तन कोई फर्क नहीं पड़ता। सीट बदल सकती है, आॅफिस नहीं। कांड होने पर सीधा ससपेंड होता है, इन्क्वारी बाद में। जनता को जनता की और साहब को साहब की भाषा में मिमयाना होता है। 

साहब भारत की तटस्थ और विनम्र हैं, लेकिन राजनीतिपटु होते हैं। वे किसी विवाद में नहीं पिटते। साहब की भाषा समय और स्थान के अनुसार बदलती है। साहब वही लोकप्रिय होते हैं, जो जनता की भाषा में जवाब न देकर प्रशासनिक भाषा में जवाब देते हैं। साहब की मातृभाषा क्या है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? साहब कौनसी भाषा बोलते हैं, उससे फर्क नहीं पड़ता है। साहब स्टाॅफ के लिए जरूरी है और जनता के लिए स्टाॅफ। साहब को जनता से क्या? बच्चे कार में जाते हैं, कार में आते हैं। सारे कार्य स्टाॅफ करता है। बस साहब को प्रशासनिक भाषा का ज्ञान होना चाहिए, यही कारण साहब कभी नहीं पिटते। पिटता आम आदमी है-भाषा के नाम पर या प्रांत के नाम पर? 

सुनील जैन राही

पालम गांव

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