जो भी कर्म करें यदि हम उससे संबंधित सभी पहलुओं पर ध्यान नहीं दें, हमारे कर्म से हानि या क्षति कहां, कितनी होगी, हमारे कर्म से दूसरों पर हिंसा या उन पर अत्याचार कितना होगा तथा जो भी कर्म हम करने जा रहे हैं उस के लिये हमें कितना सामर्थ्य या पौरुष चाहिए इसका पूरा तोल-जोख किये बिना ही यदि हम उस कर्म को करें तो वह कर्म तामसी कर्म होता है। गीता अ. 18 श्लो. 25
चिकित्सा मानव सेवा का उत्कृष्टतम रूप माना जाता है और अपने शुद्ध और मूल रूप में है भी। लेकिन मानव शरीर पर किया गया हर अचिकित्सकीय एवं अपचिकित्सकीय कर्म हिंसा है। आधुनिक चिकित्सा में उत्तरोत्तर बढ़ता व्यवसायीकरण, यंत्रीकरण और संवेदनहीनता के फलस्वरूप चिकित्साजनित हिंसा या चिकित्सकीय हिंसा आज एक महामारी हो गई है। वैसे अपने विकृत रूप में चिकित्सा सदा ही हिंसा थी।
सन 1975 में ईवान इलिच ने प्रचिलित चिकित्सा के क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन और शोध के आधार पर अपनी पुस्तक लिमिटस आफ मेडिसिनः मेडिकल नेमेसिसः एक्सप्रोप्रियेसन ऑफ हैल्थ (चिकित्सा की सीमाः चिकित्सकीय प्रतिशोधः स्वास्थ्य का अधिग्रहण) में आएट्रोजेनेसिस (आइट्रोस=चिकित्सा/चिकित्सक: जेनेसिस=जनित) अर्थात चिकित्साजनित व्याधियों का विस्तृत विवरण दिया है। व्याधियों के लिए चिकित्सा तो सभी जानते थे। ईवान इलिनच ने इससे हट कर चिकित्सा से होने वाली व्याधियों के हिंसक रूप को प्रतिपादित किया। उन्होने ने जाने अनजाने में की गई चिकित्सकीय हिंसा को भी प्रामाणिक तथ्यों के साथ प्रस्तुत कर चिकित्सकों को कठघरे में खड़ा कर दिया। यह हिंसा अपने विविध रूपों में इतनी व्यापक है, इससे पहले इसका अंदाज किसी को नहीं था।
भूल-चूक से हुई व्याधियों के अलावा प्रमुख रूप में उपचार के दौरान की जाने वाले हिंसा वह है जो –
- बेअसर लइाज अर्थात लाइलाज रोगों में किया इलाज, यथाः अमायोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस नामक स्नायु रोग जिसमें शैनः शैनः उत्तरोत्तर बढ़ते मांसपेशियांे के लकवे से अंत होता है। इसी के समकक्ष है सेरीब्रल पाल्सी, क्रोनिक वायरल हेपेटाइटिस, स्यूडोमस्क्यूलर हाईपरट्रोफी व अन्य जन्मजात विकृतियां। इनके ठीक होने का आश्वासन दे कर इलाज करना हिंसा है।
- असुरक्षित इलाज, यथाः फैले हुए गंभीर, शारीरिक रूप से अशक्त कैंसर रोगियों का कीमोथेरापी और रेडियेशन से इलाज। वैसे तो कीमोथेरापी और रेडियेशन के गंभीर दुष्प्रभाव (साइड एफेक्टस) होते ही हैं, यह सर्वथा सुरक्षित नहीं है, लेकिन कैंसर रोग की घातकता के अनुपात में यह रिस्क लेने के अलावा कोई चारा नहीं है। ऐसे रोगियों का इम्यूनोकंप्रोमाइज्डि होने पर कैंसर के बजाय संक्रमण से मरना इसके साक्ष्य हैं। साथ ही ऐसे अनेक इलाज हैं जो बिना उचित सतर्कता और दक्षता के किये जाने पर घातक होते हैं, यथाः बिना पूर्ण परीक्षण के गर्भवती महिलाओं को उल्टी के लिए दी गई थेलिडोमाइड जिससे बिना हाथ पांव के सैंकड़ा बच्चों का जन्म हुआ; या बिना एलर्जी की जांच किए पेनिसिलिन का इन्जेक्शल लगाने पर एनाफाइलिटिक रिएक्शन से मौत होना।
- विषैले इलाज, यथाः बच्चे में वायरल बुखार होने पर एस्पिरिन देने पर रे‘ज सिन्ड्रोम से लिवर और स्नायु तंत्र को गंभीर नुक्सान होना या टी बी के इलाज में आईसोनेक्स और रिफाम्पिसिन दवाओं से कुछ रोगियों में गंभीर लिवर क्षति से मृत्यु या एक्सपायर हुई टेट्रासाइक्लिन दवा देने से किडनी को गंभीर क्षति होने, के फलस्वरूप (हिंसा) होती हैं। इलिच ने इन्हें ही क्लिनिकल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी है।
चिकित्सा में हिंसा का दूसरा रूप समाज और व्यवस्था से संबंध रखता है जिसे इलिच ने सोशल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी है। इसमें शरीर की सामान्य क्रियाओं और अवस्थाओं को रोगों का रूप दिया जाता है और इन बेबात की बीमारियों के लिए महंगी दवायें विकसित की जाती हैं। शरीर की सामान्य अवस्थाओं के रोगीकरण (डिजिजीफिकेसन/मेडिकलाईजेशन) के प्रमुख उदाहरण हैं गर्भ, प्रसव, ऋतुचक्र और रजोनिवृति का रोग के रूप में उपचार।
हिंसा के तीसरे रूप को इलिच ने कल्चरल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी है। इसमें सामान्य रोगों और व्याधियों से जूझने के पारम्परिक और घरेलू उपचारों को खत्म कर इनके प्रति भ्रम और भय पैदा किया जाता है।
इलिच ने यह अवधारणायें 1970 के दशक में प्रतिपादित की थी। इनमें अतिशयोक्ति हो सकती है लेकिन इनकी सत्यता आज भी कम नहीं हुई है, वरन् आधुनिक चिकित्सा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के फलस्वरूप चिकित्सकीय हिंसा बढी है, व्यापक हुई है।
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
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