जब पूरा देश
झंडे के नीचे
गूंजते नारों में
आज़ादी का उत्सव रच रहा है,
मैं खोज रहा हूँ —
“स्वतंत्रता के शेष रहे प्रश्न ?”
मंगल-यानों और मिसाइलों के बीच
गली का बच्चा अब भी
कूड़े में रोटी ढूँढ़ता है —
क्या यह ‘विकास’ है, या
विसंगतियों की विजय-गाथा?
शब्दों की खाल ओढ़े
सत्ताएँ जब भी
जनता की पीठ पर
वायदों की गोंद चिपकाती हैं,
तो क्या यह
“जन-गण-मन का महोत्सव” है
या केवल
मंचित छल का ‘राष्ट्रीय नाट्य’?
हम आज़ाद हैं —
कहने को,
भाषा की, धर्म की, जात की,
लिंग की, विचार की —
लेकिन सोच की ज़ंजीरें
आज भी खनकती हैं
थिरकते बहकते इन कदमों पर ।
वो खेत
जहाँ हर वर्ष
किसान को ‘अन्नदाता’ कहकर
मारा जाता है —
क्या वह खेत भी
खुश है स्वतंत्रता पर?
क्या वह बेटी
जिसके सपनों में भी
संकोच की चादर तनी है,
या वह बेटा
जिससे पौरुष की परिभाषा
हर दिन दंगे करवाती है —
क्या वे भी
स्वतंत्र हैं?
आज़ादी के इस पर्व पर
रंग-बिरंगे पताके लहरा रहे हैं —
पर क्या
उन्मुक्त मन का झण्डा कभी
फहराया हमने?
स्वराज, शायद
कभी राज से हटकर ‘स्व’ की ओर
देखना चाहता है —
पर हमारा ‘स्व’
अब भी
प्रचार, प्रपंच और प्रोटोकॉल में
क़ैद है।
मैं पूछता हूँ —
क्या यह वही आज़ादी है
जिसके लिए
हज़ारों हाथों ने शस्त्र उठाया,
कई संतों ने उपवास किया,
कई युवाऑ ने फाँसी चूमी?
या फिर
ये बस छुट्टी है —
कैलेंडर की?
मैं खोज रहा हूँ —
“स्वतंत्रता के शेष रहे प्रश्न ?”