कामयाबी के पदचिन्ह
सभी अपनी कामयाबी के पदचिन्ह छोड़ कर जाना चाहते हैं। मानव सभ्यता विकसित ही शायद इसी लालसा से हुई कि हम अपने फुटप्रिंट छोड़ सकें। इसलिए लोगों में चांद और दूसरे ग्रहों पर जाने की होड़ लगी हुई है । वहाँ अपने फुटप्रिंट छोड़ रहे हैं। एवरेस्ट की चढ़ाई पर भी, पाताल लोक तक की गहराइयों तक भी..। सभ्यता विकसित होने के साथ ही आदमी ने अपने फुटप्रिंट के मायने भी बदल दिए। आदमी है ना, खुद ही अपने मानक बनाता है और खुद ही उन्हें सुविधा अनुसार बदलता रहता है। कदमों के निशान सिर्फ कदमों से नहीं, आदमी की हरकतों से ज्यादा पहचाने जाने लगे हैं। एवरेस्ट पर यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरा कचरा इस बात का पुख्ता सबूत है । आदमी अपनी सभ्यता का कूड़ा-करकट वहाँ इतना छोड़ आया है कि पर्यावरण प्रेमियों को चिंता होने लगी है।
वैसे हमारे ज़माने के तो बाप भी कम नहीं थे । हमारे स्कूल के मासाब भी उनसे बढ़कर । गाहे बगाहे हमारी टान्ट पर अपने उसूलों के पदचिन्ह छाप ही देते थे । लेकिन सच बताएं ,पदचिन्ह पड़ते टान्ट पर थे,लेकिन हमारे डगमगाते क़दमों की चाल तो सीधी कर ही देते थे ।
देश में महापुरुषों के पदचिन्हों पर चलने की होड़ सी लग गई है ।इसलिए नए-नए महापुरुषों के क़दमों को ढूंढा जा जा रहा है। उन्हें इतिहास के दबे पन्नों से उखाड़ा जा रहा है ।अपनी सुभीता के अनुसार उन पर पड़ी धूल-मिटटी हटाते हुए उन्हें प्रस्तुतीकरण योग्य बनाया जा रहा है। सभी को अपनी जाती, धर्म, मजहब, रंग रूप कद-काठी के महापुरुष चाहिए ताकि उसकी पहनी जूती उसके कदमों में फिट आ जाए । काटे नहीं । वरना नाहक ही जूता बदलना पड़ेगा। सभी अपने-अपने महापुरुषों के जूते चमकाने में लगे हैं । पदचिन्ह क़दमों के नहीं क़दमों में पहने जूतों के । कदम घिस गए तो आदमी बदल नहीं सकता न । कदम इतने घिस गए की पदचिन्ह ही नहीं बन पा रहे । सीधे सपाट.. । इसलिए घिसे क़दमों पर जूते पहन दिए गए हैं ।जूतों पर भी संकीर्ण विचारधाराओं के मोटे मोटे उभार बना दिए हैं ,ताकि पद-चिन्ह अच्छी तरह उभर सके । पूजा क़दमों की नहीं जूतों की हो रही है । जूतों की नक़ल कापियां बाजार में बांटी जा रही है । जो कब्र में दफ़न हैं ,उनके भी जूते निकाल लिए हैं ।जो ज़िंदा हैं और आउट ऑफ़ थे कॉन्टेक्स्ट हो गए हैं ,उनकी जूतियाँ छीन ली गयी है । अब वो बिना जूतियों के एक कदम नहीं चल पाए । पार्टी में आदमी की कोई हैसियत नहीं ,हैसियत सिर्फ जूते की होती है । पार्टियां आपस में लड़ रही हैं ।सरेआम सर-फुटब्बल,गाली-गलोच ,बयान-बाजी ,छींटाकशी ।जूता फुटप्रिंट छोड़ने के साथ ही दुसरे के माथे पर मारने के काम भी आ रहा है । जूतम-पैजार चल रही है । पार्टी के महापुरुषों के जूते अच्छी मार देते हैं । इन महापुरुषों के जूते तो इनकी धरोहर है । महापुरुष जी वसीयतनामा में इनकी पार्टी को ये जूते लिखवाकर गए हैं । नेताओं ने भी क्षेत्र,जाती ,मजहब के अनुरूप महापुरुषों के जूतों की चमकदार फोटो अपने घोषणा पत्र में चिपका दी है । इसी बीच पार्टी के कुछ नेता महापुरुषों को बदलना चाहते हैं । उनके कदमों में खुजली चल रही है । बहुत हो गया अब हमारे जूतों के पदचिन्ह छोड़ने का समय आ गया । कई जिनके जूते घिस चुके हैं ,तलवे तो उनके पहले ही सपाट हो गए हैं ।फिर भी आमादा हैं ‘नहीं जूता नहीं बदलेंगे, इसी से फुटप्रिंट बनाएंगे ।पहनना है तो इसे ही पहनो.. । हमारे बाप दादा ने भी यही पहना था ।‘ युवा पीढ़ी अपने अपने जूते दिखाकर कह रही है, ‘आपके जूते घिस गए हैं , अब ये इतने अच्छे फुटप्रिंट नहीं बनाएंगे ।हमें आगे आने दो ।हम नई पीढ़ी है । हमारा जूता ज्यादा मजबूत है, ज्यादा उभारदार हैं , अच्छे और गहरे प्रिंट बनाएगा ।‘ लेकिन नहीं… ।
आजकल फुटप्रिंट भी बड़े अलग तरीके से छोड़े जाते हैं। एक निहायत ही उच्च किस्म के सर्जन थे । उन्हें अपने फुटप्रिंट छोड़ने का बड़ा शौक था। आए दिन ऑपरेशन थिएटर में मरीज के पेट में कभी कैंची, कभी स्पंज, कभी खुद के चश्मे तक छोड़ देते थे। एक तरह से उनकी कार्यशैली में ये अपने कार्य के कॉपीराइट का मुद्दा था । कहीं कोई दूसरा इनके किये ऑपरेशन को अपना बताकर शाबासी लूट ले । समस्या तब होती है जब सब अपने कार्यक्षेत्र को छोड़कर दूसरे के कार्यक्षेत्र में अपने फुटप्रिंट छोड़ आते हैं।
सभी अपने फुटप्रिंट छोड़ रहे हैं, विविध लोग, उनके विविध फुटप्रिंट।
हमारे श्रीमती जी भी अपनी पाक कला के रहस्मयी सूत्रों के फुटप्रिंट छोड़ ही देती हैं। खाने में कभी बाल आ जाए है ,तो हम अपने आपको बड़ा सोभाग्यशाली समझते हैं , हम उन्हें श्रीमती जी के पाक कला के फुटप्रिंट मानकर एक्सेप्ट कर लेते हैं।
सभ्यता की इस दौड़ में, कदम घिस चुके है । जूतों का बाजार सज गया है । धड़ल्ले से फुटप्रिंट छोड़े जा रहे हैं । ऑनलाइन टेक्नोलोजी ने सोशल मीडिया के जरिये भी अपने कदम फैला दिए । लोग भोचक्के हैं ।असली क़दमों की जगह जो जूता मिल रहा है,जो परोसा जा रहा है ,उसे ही चूम रहे हैं ,उसे अपने क़दमों में पहन कर बस फुट-प्रिंट छोड़े जा रहे हैं । कौन समझाए की जूते की मजबूती और उसकी चमक से ज्यादा जरूरी है कि कदमों के निशान ।सही क़दमों के निशान जो ये भी बता सके की कहाँ और कैसे पड़ने है। लेकिन जब कदम ही दिशाहीन हैं ,वो और उनके जूते क्या किसी को दिशा दे पायेंगे । ऐसे पदचिन्हों पर चलकर आदमी कहाँ कोई दिशा तय कर पायेगा । सब चकरघिन्नी हो रहे हैं । लेकिन यह भी सच है कि जूते चाहे जितने भी नए क्यों न हों, असली फुटप्रिंट तो उसी का रहेगा जो राह देखने के बजाय राह बनाने की हिम्मत रखता है। यही वो पदचिन्ह होंगे जो इतिहास में अमिट रहेंगे, बाकी सब तो रेत की तरह बह जाएंगे।
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