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जीवन का आधारः जैविक कर्म और धर्म

जीवन का आधार जैविक कर्म और धर्म

जीवन का आधारः जैविक कर्म और धर्म

संसार, दृश्य और अदृश्य। दृश्य में प्राणी और बनस्पति, और अदृश्य में शूक्ष्म जीवाणु। एक कोशिकीय जीवाणु और बहु कोशिकीय प्राणी, दोनों की असंख्य प्रजातियां। अगर संसार को जड़ और चेतन के रूप में ले तो ये सभी चेतन (लिविंग) संसार के भाग हैं। इन सभी की उत्पति होती है डी एन ए या आर एन ए से। ये एकल (मोलीक्यूल) या समूह (जीन, गुण) अथवा समूह-के-समूह गुणसूत्र (क्रोमोजोम) के रूप में होते हैं। हर प्राणी और जीव का सृजन और जीवन संचालन इन्हीं से होता है, इन्हीं के नियत्रण में होता है। जीव के अस्तित्व का मूल आधार ये ही हैं।
हर जीव के अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रकृति-नियत दो कर्म होते हैं- स्वसुरक्षा व स्वजन सुरक्षा। स्वसुरक्षा के लिए शरीर सभी चेतन और अवचेतन, जीन नियत, निर्धारित और नियंत्रित, सभी शारीरिक कर्म करता है। जीन इसके लिए तंत्र विकसित व संचालित करता है। स्वजन सुरक्षा अपने ही अंश, अपने ही डी एन ए से प्रजनन कर अपनी प्रजाति की शास्वतता बनाये रखता हैं। यौन क्रिया द्वारा प्रजनन, जीन नियत, जीव का मूल आधार होता है। हर जन्म प्राणी के अपने अंश से ही होता है, अपनी पुनरावृत्ति कर जीव अपनी निरंतरता बनाये रखता हैं। हर जन्म प्राणी का पुनर्जन्म होता है। जीन वो जैविक कण है जिसमें प्राणी की पूरी कुंडली रहती है। सुई की नौक पर समा जाए इतने से डी एन ए में शरीर की असंख्य कोशिकाओं के सृजन और संचान की संपूर्ण कुंडली। वही जीन, जिनसे माता पिता का शरीर बना, पिता के शुक्राणु और माता के ओवम के समागम से संतति को जन्म देते है। माता पिता के अपने गुणसूत्रों से ही संतति उत्पन्न होती है और प्राणी प्रजाति की निरंतरता बनी रहती है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, संसार के सभी प्राणी वही करते हैं जो मैं नियत करता हूं। डी एन ए यही करता है। डी एन ए ही करतार है।

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प्राणियों में मानव मस्तिष्क सबसे विकसित होता है। इसके तीन भाग होते हैं। अग्र – चेतन मस्तिष्क, अधो – अवचेन मस्तिष्क और इनके संधिस्थल पर सिथत संधि मस्तिष्क जो चक्राकार होने के कारण लिम्बक लोब कहलाता है। यह चेतन व अवचेतन मस्तिष्क से प्राप्त सभी संवेगो में समन्वय कर शारीरिक क्रियाओं का संचालन करता है। जीव के भरण-पोषण, ऊर्जा नियोजन, आंतरिक व बाहरी खतरों से सुरक्षा व प्रजनन के लिए यौन क्रियाओं का संचालन लिम्बिक लोब ही करता है। स्वसुरक्षा व स्वजाति सुरक्षा का केन्द्र स्थल यही मस्तिष्क होता है। निम्न श्रेणी के प्राणियों में निम्न स्तर (मानव मस्तिष्क के अधो भाग के समकक्ष) का मस्तिष्क होता है। जिन प्राणियों और जीवों में मस्तिष्क नहीं होता उनमें भी स्वसुरक्षा व प्रजनन द्वारा स्वजाति सुरक्षा का प्रावधान होता है। हर जीव के अस्तित्व का आधार यही है। अधो मस्तिष्क द्वारा संचालित क्रियाएं जो प्राणी का अस्तित्व बनाये रखने को आवश्यक होती हैं, सब अवचेतन में स्वतःस्फूर्त होती हैं।


हर जीव और जीवाणु (जो डी एन ए का मात्र एक अणु होता है) अपने अस्तित्व के लिए अपने परिवेश पर निर्भर रहता है। बिना परिवेश अस्तित्व संभव नहीं। परिवेश जीव के अस्तित्व का अभिन्न अंग है। जीव, परिवेश से प्राप्त संवेगों और संसाधनों के भरोसे ही जीवित रहते हैं। जीव के आंतरिक संवेग व परिवेश के बाहरी संवेगों का क्रियात्मक समन्वय ही जीवन है। जीवन सहअस्तित्व से ही संभव है। किसी जीव का एकाकी अस्तित्व नहीं होता। मानव का भी नहीं। अपने मस्तिष्क के बदौलत वह अहंकार कितना भी कर ले जैविक संसार में वह एक नगण्य इकाई है। जैसा सदगुरू ने कहा, अगर संसार से सभी मानव लुप्त हेजायें तो भी जैविक संसार पर नगण्य प्रभाव होगा लेकिन अगर संसार से बाकी सब जीव लुप्त होजायें तो सभी मानव छः महिने भी जीवित नहीं रह पायेंगे। जिस कोशिका से प्राणियोंकी उत्पति हुई और अंततोगत्वा मानव शरीर बना, वह एक शुक्ष्म बनिस्पतिक जीव के प्रवेश व सहअस्तित्व से ही हुआ और वह प्राणियों की कोशिकाओं में माइटोकोंड्रियो के रूप मे अवस्थित है। कोशिका इसी के द्वारा सांस लेती है और जिंदा रहती है। इसके अतिरिक्त हर प्राणी के शरीर पर और उसके अंदर लाखों करोड़ो शुक्ष्म जीव और जीवाणु सहअस्तित्व में रहते हैं।
उच्च कोटि या श्रेणी के प्राणियों में प्रजनन, काम, यौनजीन सापेक्ष होता है। काम भावना और यौन क्रिया सभी प्राणियों की आदिम प्रवृति है। यह यौनजीन (यौन गुण्सूत्र) द्वारा नियत और नियंत्रित होती हैं। यौन-गुणसूत्र प्राणी शरीर में यौन तंत्र विकसित करता है। सारी यौन क्रियाएं यौन-जीन प्रेरित होती हैं। यौन मस्तिष्क, यौन हॉरमोन्स, कामेंन्द्रियां, जननेन्द्रियां और इनमें समन्वय के लिए विकसित विस्तृत तंत्र के माध्यम से ही यौन क्रिया संभव होती है। शरीर की हर कोशिका में (लाल रक्त कणों को छोड कर) यौन गुणसूत्र होता है़।
यौन क्रिया यौन हॉरमोंन्स द्वारा संचालित होती है। लिम्बिक सिस्टम के विशिष्ट भाग, जनन ग्रंथियां (नर में टेस्टीज और मादा में ओवेरी- वृषण व अंडकोश) प्रेरक हॉरमोन्स स्रावित करते हैं, जो यौन जीन में अवस्थित यौन घड़ी द्वारा नियंत्रित होते है। इन प्ररेक हॉरमोन् से जननग्रंथियां उतरोत्तर परिपक्व होती है। परिपक्व होती जननग्रंथियां यौन हॉरमोन्स स्रावित कर अपनी परिपक्वता की सूचना यौन मस्तिष्क व जनेनेन्द्रियों को देती है। ये हॉरमोन काम केन्द्रों व जननेद्रियों को संवेदनशील बनाते है। इन संवेगों की सुखद स्मृति संग्रहित होती रहती है। काम केन्द्र सुख हॉरमोन्स के माध्यम से संवाद और समन्वय करते हैं। नर और मादा के शरीर में काम परिपक्वता के प्रतीक परिलक्षित होते हैं। काम भाव चहरे और शरीर में आकर्षण उत्पन्न करते हैं। यह सब अवचेतन में होता है, स्वतःस्फूर्त। काम आकर्षण एक जैविक प्रक्रिया है, जिसके फलस्वरूप नर मादा से प्रणय निवेदन करता है, उसकी ओर अग्रसर होता है। यह सारे प्राणी जगत में साश्वत प्रक्रिया है। मादा को जैविक अधिकार है कि वह इसे अस्वीकार करे, नकारे। यौन सम्बन्ध स्थापित करने के लिए अलग अलग समाज में भिन्न भिन्न मान्यतायें है। संयमित यौन सम्बन्धों के लिए सामाजिक मान्यतायें उचित व अनिवार्य है। सभी समाज में बलात् यौन सम्बन्ध स्थापित करना या चेस्टा करना अनुचित, शारीरिक हिंसा व आपराधिक कर्म माना गया है। लेकिन प्रणय निवेदन अपनेआप में शारीरिक हिंसा नहीं है, अतः मात्र इस लिए कि मादा ने इसे नकारा था, इसको भी इसी श्रेणी का जघन्य अपराध मानना अतिरेक है, गलत है, अप्राकृतिक है। प्रणय निवेदन हर नर का प्रकृति नियत मूल जैविक अधिकार है और इसे नकारना हर मादा का। यौन सक्षम दो वयस्क व्यक्तियों के बीच इसे विकृत कर्म नहीं माना जाना चाहिए।


शुक्राणु प्रेरित नर, और ओवम (स्त्री बीज) प्रेरित मादा, दानों का मिलन प्रकृति नियत है। आधार है वे यौन हारमोन्स जो स्रावित हो कर काम केन्द्रो को इस ओर प्रवर्त करते हैं। कामेच्छा, कामक्रिया सब इन्हीं से प्रेरित होती है। यौन क्रिया, समागम और संसर्ग। यौन क्रिया आदिम प्रवर्ति और संसर्ग सन्तान प्राप्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था। स्त्री और पुरुष। माता और पिता। गर्भाशय और कोख। गर्भ और मातृत्व। संतति और ममता। गर्भाशय का कोख बनना और स्त्री का मां बनना अति गूढ विस्तृत जैविक प्रक्रिया है्र। गर्भाशय का कोख बनना और गर्भधारण के बाद भ्रूण-मातृ संवाद से माता की एक एक कोशिका और अंग ममतामय हो जाते हैं। भ्रूण एक सजग प्राणी है। उसके सृजन की अनुभूति ममता का आधार और अपने अस्तित्व की सार्थकता अनुभूत होती है। मातृत्व से दूजा और कोई सुख स्त्री के लिए नहीं है, आदिम और अंतिम। पुरुष के लिए पितृत्व। इसे समझना दुरूह है, अनुभूत करना नहीं। हर प्राणी करता है, उसके अस्तिात्व का आधार है।
काम सुख, गर्भ सुख, मातृत्व सुख, सृजन और संतिति सुख की अनुभूति मस्तिष्क के विशिष्ठ सुख केन्द्रों में होती है। ये महिलाओं में चार और पुरुषों में दो होते हैं। चरम सुख की अनुभूति यहीं होती है। ज्ञानेन्द्रियों, जननेन्द्रियों, कामेन्द्रियों, कोख और शरीर के आंतरिक सभी काम केन्द्रित संवेग टेम्पोरल लोब द्वारा घनिभूत कर सुख केन्द्र को भेजे जाते हैं। वैज्ञानिकों ने चूहे के इन केन्द्रांे पर सूक्ष्म माइक्रो इलेक्ट्रोड लगाये। पिंजरे में लगाये एक पेडल को दबाने पर शूक्ष्म तरंगें उत्पन्न हो कर उन इलेक्ट्रोड को उद्वेलित करती। सुख केन्द्र जाग्रत हो उठते और सुख की अनुभूति होती। घूमते चूहे का पंजा जब पहली बार पेडल पर पड़ा तो उसे सुख का अनुभव हुआ। बार बार जब ऐसा ही हुआ तो उसकी समझ में आगया कि यह आनन्द पेडल के दबने से होता है। फिर क्या था चूहा पेडल दबाता, सुख का अनुभव करता, एक चक्कर लगा कर वापस पेडल दबाने आ जाता। खाना पीना छोड़ कर यही करता रहता। बंदरों और मनुष्यो में सुख केन्द्रों को स्टिम्यूलेट करने पर चरम सुख के केन्द्रों की पहिचान हुई। सुख संवेगों को पहिचाना गया।
आदिम सुख, आत्म सुख। संसर्ग और समागम से शुरू हुआ यह सुख गर्भाधान पर चरम पर होता है। गर्भाशय कोख बनता है और गर्भ कोख मे रोपित होता है। मां का रोम रोम रोम रोमांचित होता है, पोर पोर पुलकित। अवचेतन में ममता व्याप्त हो जाती है। इस अवस्था में स्वतः गर्भपात होने पर मन खिन्न हो जाता है। सामाजिक मान्यताओं या कानूनी प्रावधानों के कारण जब महिला को अपने इस गर्भ को नष्ट करवा कर गर्भपात करवाना होता है तो मन ग्लानि से भर जाता है जो जीवन पर्यन्त उसे सालता है। हर नया गर्भधारण उसे झकझोरता है, ममता मलिन हो जाती है। प्रकृति के विरुद्ध इस कर्म की उसे भारी कीमत चुकानी पडती है।
डॉ. श्रीगोपाल काबरा
15, विजय नगर, डी-ब्लाक, मालवीय नगर, जयपुर – 302017
मोबाइलः 8003516198

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