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रेलवे अस्पताल की आत्मीय सेवा: मानवीय संबंधों की गर्माहट” मेरे संस्मरणों से

पिछले 8 सालों से रेलवे अस्पताल में मानद विजिटिंग सर्जन के पद पर कार्यरत हूं। यह दो घंटे की मेरी ड्यूटी मुझे मेरे मेडिकल स्पेस को थोड़ा विस्तार देने का मौका प्रदान करती है। अपने निजी प्रतिष्ठान की व्यब्सायिक मजबूरियों से अलग , यहां रेलवे कर्मचारियों की सेवार्थ स्थापित इस प्रसिद्ध रेलवे अस्पताल में सेवाएँ देने का और साथ ही कुछ हद तक उन तथाकथित समाज के मानकों के हिसाब से अपने आपको साबित करने का मौका मिलता है कि सरकारी सेवा कार्य से ही मरीजों की सच्ची सेवा की जा सकती है, निजी प्रतिष्ठान तो सिर्फ मरीजों की लूटपाट के लिए होते हैं। हालांकि यहां रेलवे अस्पताल, जो रेलवे के नीति निर्धारकों द्वारा प्राथमिकता के पायदान पर सबसे नीचे रखे जाने के कारण मेडिकल फील्ड को सबसे उपेक्षित उपक्रम का दर्जा लिए सीमित संसाधनों से सुसज्जित है , अस्पताल में मेरा काम सिर्फ और सिर्फ गिनी चुनी दवाइयाँ लिखने से ज्यादा कुछ नहीं है। कभी-कभार कुछ सादा फ्रैक्चर में जुगाड़ करके प्लास्टर का काम हो जाता है। ज्यादातर मरीजों में रिटायर्ड एम्प्लॉयीज ही होते हैं, जिन्हें शायद रिटायरमेंट के बाद में अपने आपको व्यस्त रखने का रेलवे अस्पताल सबसे बढ़िया स्थान होता है। उनके बच्चे और परिजन भी कोशिश करते हैं कि इन सीनियर्स को यहाँ भर्ती करा दिया जाए और इस तरह महीने में 10 या 15 दिन आराम से इनकी घर में खटपट और बेगार से निजात मिले। आजकल की जनरेशन का अपने माँ बाप के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता के जितने नजारे हम अपनी मेडिकल प्रैक्टिस के दौरान देखते हैं वो कभी कभार सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि आखिर हम किस दिशा में इस समाज को ले जा रहे हैं। रिटायर्ड होने के बाद यूँ तो हर डिपार्टमेंट से रिलेटेड कुछ न कुछ बीमारियाँ शरीर में घर कर हो जाती हैं लेकिन ऑर्थो की एक समस्या घुटनों का दर्द जो कि एक सदाबहार रूप में इन मरीजों के अपनी जगह बना लेती है। यहाँ OPD में इस समस्या के लिए गिनी चुनी दवाइयों की आपूर्ति है, लेकिन मरीज भी इस सीमित संसाधनों को ही अपनी नियति मान कर काम चला लेते हैं। वो अपने हिसाब से गोली के रंग रूप साइज का निर्धारण कर पार्टिकुलर एक या दो गोली का वर्णन करते हैं कि उस हरे रंग की छोटी सी गोली जो जरूर लिखना पिछले बार तुमने वो लंबी वाली दी ना उस से फायदा नहीं मिला, और धीरे धीरे मरीज इस बीमारी से ग्रसित अपने टेढ़े हुए पैर से धीरे धीरे चलते रेंगते किसी ऑटो वाले से घर से अस्पताल तक लाने और वापस ले जाने की व्यवस्था करके एक आशा के साथ बाहर OPD में लाइन लगाते नजर आ ही जाते हैं। लाइन में 80 प्रतिशत तादाद ऐसे मरीजों की ही होती है जो रिटायर्ड रेलवे कर्मचारी है, ज्यादातर दंपत्ति रूप में आते है एक दुसरे की लाठी का सहारा बने हुए,आपस में थोडा वार्तालाप थोडा घर ग्रहथी की उथल पुथल की नोक झोंक के साथ, चहरे पे पडी झुर्रियां उनके रेलवे विभाग कार्यकाल की वैतनिक जिम्मेदारिय और गृहस्थ जीवन की अवैतनिक जिम्मेदारियों दोनों की दास्तान वयान करती हुईउनके साथ कभी-कभार ही उनके बच्चों को साथ देखता हूँ, हाथ में एक पुरानी सी डायरी पकड़े, हिलते कांपते हाथों से मेरे टेबल पर अपनी डायरी रखते हुए, बड़े विनम्र अदब से अभिवादन करते हुए, मैं उनकी डायरी को लेता हूँ। डायरी के पन्नों को पलटते हुए, शिकायत पूछता हूँ, जो मुझे उनके दरवाजे में घुसते समय ही उनकी चाल से मालूम चल जाती है, लेकिन मेरा भी उद्देश्य संवाद स्थापित करने का होता है क्योंकि जिनका भी उद्देश्य सिर्फ बीमारी ही नहीं बताना, उस 5 मिनट में वो अपनी सारी व्यथा, बेटों का व्यवहार, बहू का व्यवहार, बेटी की शादी में आया इश्यू, दामाद से लड़ाई, पड़ोस से झगड़ा, पेंशन की देरी से लेकर रेलवे अस्पताल में व्याप्त असुविधाओं सभी का वर्णन करके अपने आप को तारो ताजा महसूस करवा जाते हैं और मुझे भी ये लगता है कि मैंने उन्हें 10 दिन की दवा के साथ शायद दस दिन के लिए उनके सीने के गुबारों को भी सुनकर उनका दिल थोड़ा हल्का कर दिया है। एक आत्मीय संबंध पिछले 8 सालों से इन मरीजों के साथ बन गया है, सभी चेहरे परिचित से हो गए हैं, अब नाम उन्हें बताने की जरूरत नहीं होती, ज्यादातर के नाम मेरे द्वारा उनके दरवाजे में घुसने से पहले ही लिख लिए जाते हैं और दवाइयाँ जो लिखनी हैं वो भी सोच ली जाती हैं, उनके आशानुरूप फला कलर की दवाई की अनुपस्थिति में उन्हें दूसरी दवाई उसके स्थान पर लिखने के साथ कैसे उन्हें संतुष्ट करना है ये सब भी ध्यान में रखना पड़ता है, खांसी का सिरप और दर्द की जेल दो दवाइयाँ ऐसी हैं जो हर पर्ची में लिखनी ही है, उन्हें पहले ही लिख के रखता हूँ, सब कुछ एक अलिखित SOP की तरह चलता है। इसी बीच में एक युगल जिस से मेरा आत्मीय संबंध बहुत ज्यादा ही जुड़ गया, लखन लाल और सावित्री (यहाँ मैंने निजता के हनन दावे के कारन नाम बदल दिया है), दोनों बहुत ही नियमित 15 दिन के अंतराल में मेरे पास आते थे, सिलसिला मेरी पोस्टिंग के पहले साल से ही शुरू हो गया और हमारे उस समय के DMO ने मुझे इस युगल का विशेष ख्याल रखने के बारे में निर्देशित किया था। बहुत ही सज्जन सीधा युगल, चुपचाप धीरे धीरे एक दूसरे को सहारा देते हुए आते, अपनी लाल कवर चढ़ी डायरी, कांपते हाथों से डायरी पकडे हुए , दोनों के चेहरे पर कभी उदासी या परेशानी के भाव नहीं देखे , शायद दंपत्ति का असल निश्छल प्रेम फलता फूलता ही इस उम्र में है |वो नियमित रूप से नेक्स्ट विजिट के निर्धारित दिन से एक दिन पहले ही आकर दवाइयाँ लिखवा लेते, सेम बीमारी, सेम दवाइयाँ, और उनका भी रेलवे अस्पताल की पेंशन डायरी का संजीदगी से उपयोग लेना मुझे भी कुछ थोड़ा बहुत उसकी संतुष्टी थी की में इस नौकरी के कारन ही इन सभी पेंशनर्स को सीमित दवाइयों के साथ असीमित आशाओं की चमक उनकी आँखों में दे पा रहा था , । ये सिलसिला दो साल तक चला, फिर एक बार वो अकेले आए, मैंने पूछा आंटी नहीं आई ?, उन्होंने कहा डॉक्टर साहब वो बीमार है, घुटनों में ज्यादा दर्द है, चल नहीं पाती इसलिए मैं ही उनकी डायरी ले आया। मैंने सहर्ष दोनों डायरियां ली और दोनों की दवाइयाँ लिख दी। अगली बार भी अंकल अकेले ही आए, साथ में दोनों डायरियाँ पकड़े हुए , मैंने दुबारा आंटी का हाल पूछा, बोले और भी परेशानी है, खाट पकड़ ली है। मैंने कहा कुछ और दवाइयाँ चल रही है? उन्होंने कहा हाँ, हार्ट की परेशानी और BP की महीने भर की दवाइयाँ भी लिखवा ले जाता हूँ, लेकिन आप 10 दिन की ही लिखते हैं इसलिए 10 दिन में आना पड़ता है। मैंने उन्हें 30 दिन की दवाई लिखी, इसके लिए स्पेशली मुझे डिस्पेंसरी में बोलना पड़ा, कारण भी स्पष्ट था, रेलवे में अमूमन मरीज दवाइयाँ 30 दिन की ले जाकर घर पर पटक देते हैं, उपयोग नहीं करते, एक इम्प्रेशन ऐसा बना रखा है कि रेलवे की दवाइयाँ काम नहीं करती। यहाँ मरीज कई बार मुझ से बाहर की दवाई लिखने का अनुरोध करते लेकिन मैं उन्हें समझाता, दवाइयाँ वो ही हैं, आप क्यों नहक पैसे बर्बाद करें। दवाइयां लिखने के दौरान ही मैंने उन्हें सलाह दी कि रेलवे के जरिए घुटनों के ऑपरेशन करवा लो, कई पेंशनर्स इस सुविधा का लाभ ले चुके है , लेकिन वो फफक के रो पड़े। मैंने पूछा क्यूं क्या हुआ अंकल? बोले डॉक्टर साहब, बेटे से कई बार इसके लिए कहा लेकिन वो ले जाने को तैयार नहीं, अब वाइफ बीमार, मैं अकेला कैसे जाऊँ? उनकी परेशानी समझ में आ रही थी, एक विवशता पहली बार उसके चेहरे पर मैंने देखी, शख्स जो सदैव मुस्कुराहट वाला, आज अंदर से टूटा नजर आ रहा था। खैर उसे सांत्वना देकर विदा किया, उसके बाद कई बार वो आता रहा, अपने लिए और वाइफ की दोनों डायरियों में दवाइयाँ लिखवाता और बिना कोई बात कहे चुपचाप चला जाता, मैं भी अब उस बारे में ज्यादा बात करके उसे और दुखी नहीं करना चाहता। धीरे-धीरे समय बीतता गया, एक बार OPD में वो आए लेकिन आज वो चेहरे पर चमक नहीं, उदास, धंसी हुई आँखें, पैर भी अब घुटने के और अधिक टेड़े होने से चलना भी मुश्किल हो रहा था, हाथ में लाठी आ गयी थी , धीरे-धीरे मेरे पास आए। मैंने आदत के मुताबिक उन दोनों के नाम पहले ही रजिस्टर में अंकित कर लिए, लखन लाल और सावित्री। डायरी मांगी, अंकल ने डायरी पकड़ा दी। मैं चौंका, दूसरी डायरी ? मैंने पूछा,“डॉक्टर साहब अब आपको सिर्फ मैं ही परेशान करूंगा, वाइफ चली गई हमेशा के लिए। मैं स्तब्ध सा कुर्सी पर स्थिर हो गया ,लेखनी ठहर गयी , ऐसा लगा कोई अनजानी सी वरदान की छाया मेरे सर से हटा ली गयी हो । मैंने पूछा कितना समय हुआ? अंकल बोले -6 महीने। ओह! मैं अपने आप को कोस रहा था, इस आपाधापी भरी जिंदगी में मैं ये भूल ही गया था कि मेरी ओपीडी में नियमित आने वाले ये सज्जन को 6 महीने हो गए थे मुझे दिखाए और मैं एक अपराधबोध सा असंवेदनशीलता के इस कृत्य से लज्जित सा उनकी डायरी में दवाइयाँ लिखता गया।उसके बाद भी कई विजिट उन सज्जन की रही ,धीरे धीरे उनके जोड़ों के बढ़ते दर्द ,उनकी बदती अक्षमता कमजोरी मुझे मेरी लाचारी और कुछ नहीं कर पाने की विवशता को भी बढ़ा रही थी, समय निकलता गया ,करीब एक साल बाद एक बार ऐसे ही रूटीन opd में मरीजों को देख रहा था की टेबल पर उनकी वो ही चिर परिचत डायरी दिखी,मैंने नजरे ऊपर कर के देखा एक सुन्दर सा नौजवान खड़ा हुआ मुस्करा रहा था,मैंने पूछा अंकल कहा ? ,वह कुछ लापरवाही भरे रूखे स्वर से बोला अंकल ने अब खाट पकड़ ली है, वो नहीं आ सकते उनके लिए एक महीने की दवाई लिख दो , में बिना कुछ बोले डायरी में दवाइयां लिखने लगा गया.एक अदितीय गहरे संवाद जो मैंने उन अंकल के साथ स्थापित किये थे उन्हें सीने में दबाये ,एक विचार मेरे मन में आ रहा था ,मरीजों को उपचार के रूप में केवल दवाएँ लिखने की मेरी सीमाओं के बावजूद, हमारी बातचीत के माध्यम से विकसित भावनात्मक बंधन, शायद, इन सम्मानित आत्माओं के लिए अधिक महत्व रखते हैं। यह माना जा सकता है कि हमारे पेशे के भीतर, यह मानवीय संबंध और सहानुभूति है जो न केवल चिकित्सक को बल्कि रोगी को भी संतुष्टि की गहरी भावना प्रदान करती है। दरअसल, चिकित्सा पेशे की सर्वोत्कृष्टता और सुंदरता इसकी मानवता में अंतर्निहित है।

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