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साठा सो पाठा-व्यंग्य रचना

व्यंग्यात्मक कार्टून जिसमें दुनिया के वरिष्ठ नेता—पुतिन, मोदी, ट्रंप, नेतन्याहू, खोमनेई—हाथ में ताश के पत्तों की जगह देशों के नक्शे और स्टीयरिंग पकड़े हैं, और मंच पर खड़े होकर जोश में दुनिया की दिशा तय कर रहे हैं, जबकि दर्शक हतप्रभ हैं।

साठा सो पाठा

हमारे यहां पचास पार आदमी को समाज बड़े ही प्यार से समझा देता है कि अब तुम्हारा असली काम सुबह अखबार में मृत्यु-समाचार पढ़ना, दोपहर में घर के बाहर कुर्सी डालकर पड़ोसी के व्यवहार पर रिसर्च करना और रात को नींद न आने पर रामचरितमानस का पाठ करना है। साठ पार होते ही यह सम्मानजनक उपाधि “बाबा” से संबोधित की जाने लगती है । जिसके साथ यह अनिवार्य निर्देश जुड़ा होता है , अब आराम करो , तुम्हारे बस का कुछ नहीं रहा।

लेकिन फिर दुनिया के नक्शे पर नज़र जाती है तो कुछ नया ही समझ आता है। पुतिन 72 में भी रूस के ड्राइवर बने स्टीयरिंग पर ऐसे बैठे हैं जैसे मोहल्ले का बुजुर्ग ऑटो वाला, जो कहता है “मीटर से नहीं, अपनी रेट लिस्ट से जाऊंगा।” पुतिन युद्ध विराम को ही विराम लगाए हुए हैं।
जिनपिंग भी 72की उम्र में चीन को उसी नाप-तौल से चला रहे हैं जैसे शादी में मामा जी मिठाई बंटवाते हैं “सबको बराबर मिलेगा, पर मेरी मर्जी से।”

हमारे अपने नरेंद्र मोदी 74 में भी सुबह चार बजे उठकर न सिर्फ देश को जगाते हैं, बल्कि सोशल मीडिया को भी हलवा-पूरी खिलाकर वापस सुलाते हैं। वे हमारे मन की नहीं , अपने मन की बातें ही करना चाहते हैं।
नेत्यानाहू 75 में भी इजराइल को उसी आत्मविश्वास से चला रहे हैं जैसे बुजुर्ग पड़ोसी अपने घर के गेट पर “अनधिकृत प्रवेश वर्जित” का बोर्ड लगाकर समझता है कि पूरी गली उसकी है।

ट्रंप 79 में भी रैलियों में ऐसे गरजते हैं जैसे मोहल्ले के वरिष्ठ सदस्य पंचायत में हल्ला मचाते हैं। “ये मुद्दा मैं ही उठाऊंगा, और मेरी ही बात मानी जाएगी।” ट्रंप टैरिफ से वे अमेरिका को फिर से महान बनाने के प्रयोग कर रहे हैं। भले ही इसका असर उल्टा हो। वे स्वयं भू शांति दूत बनना चाहते हैं। नोबल शांति पुरस्कार के लिए वे पहले देशों को भिड़ा कर अपने हथियार बेचना चाहते हैं, फिर समझौते करवाकर वाहवाही लूटने मे जुटे हुए हैं।

और खोमनेई 85 में भी आदेश ऐसे सुनाते हैं जैसे पुराने जमाने के मदरसे के मौलवी, जिनकी छड़ी के डर से बच्चे और उनके वालिद दोनों दूर भागते हैं।

ये सब देखकर किसने कहा कि साठ के बाद आदमी का दिमाग और शरीर सिर्फ ताश खेलने और डॉक्टर की पर्ची संभालने के लिए रह जाता है? सच तो यह है कि साठ पार आदमी “रिटायर” नहीं होता, “री-फायर” होता है। अनुभव, जिद, और आदतों का ऐसा टिफिन बॉक्स लेकर आता है कि दुनिया की सबसे कठिन परिस्थितियों में भी अपना नमक-मिर्च मिला सकता है।

उम्र महज नंबर है। हमारे यहां साठ पार आदमी को शादी-ब्याह में खाना सर्व करने का काम मिलता है, जबकि विदेशों में उसे देश सर्व करने का । हम अपने बुजुर्ग को कहते हैं “अब आप आराम करो,” जबकि बाहर वाले कहते हैं “आओ, तुम ही तो अनुभव का बम हो।”

इसलिए जब आप साठ पार हों, तो पेंशन फार्म भरने के बजाय अपना चुनावी मेनिफेस्टो लिख डालें। दुनिया के सबसे खुराफाती बुजुर्ग साबित कर चुके हैं कि उम्र बस कैलेंडर का पन्ना है, जिसे चाहे नोटिस बोर्ड पर टांगो, चाहे दुनिया का नक्शा बदलने में इस्तेमाल करो। बस एक बात याद रखिए , चेहरे पर आत्मविश्वास और बालों में थोड़ी-सी सफेदी होनी चाहिए, ताकि लोग आपको देखकर कहें “वाह, अनुभव बोल रहा है!” और आप मन ही मन मुस्कुराकर सोचें “बोल तो खुराफाती स्वभाव रहा है, अनुभव तो बहाना है।”

विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल

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