सिस्टम, सिस्टमैटिकली बच निकला है —व्यंग्य रचना

सिस्टम, सिस्टमैटिकली बच निकला है —व्यंग्य रचना

तो ख़बर ये है मित्र, कि सिस्टम हमेशा की तरह सिस्टमैटिकली — अपने बाल भी बाँका कराए बिना — फिर से बच निकला है, जैसे उसे संविधान की फुटनोट में कोई स्पेशल छूट मिली हो।

एक बार फिर, एक स्कूल की छत ढह गई — और हमेशा की तरह, मासूम बच्चे ढहती दीवारों के नीचे दब गए, कुछ घायल हुए, कुछ अनंत यात्रा पर निकल लिए…

आप कहेंगे, ऐसी तो और भी इमारतें ध्वस्त हुईं, भू-स्खलन हुआ, बाढ़ और करंट में भी अच्छे-खासे जान और माल की हानि हुई, फिर आप इस एक सरकारी इमारत के पीछे क्यों पड़े हैं?

बस इसीलिए कि ये सरकारी थी।

सरकार इधर खुद की जोड़-तोड़ में लगी है — कि एक बार फिर व्यस्त कर दिया न आपने उसे लीपापोती में — ‘हमें दुःख है’ की बजरी में, ‘दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा’ का सीमेंट और सरकारी ब्रांड मगरमच्छी आँसुओं का पानी मिलाकर जो लेपन तैयार हुआ है, उससे की जाएगी लीपापोती।

पीड़ितों की फटी चादर में मुआवज़े का पैबंद लगाया जाएगा।

क्यों?

क्योंकि छत सरकारी सिस्टम की थी — बिल्कुल सरकार और सिस्टम की तरह — लीक करती हुई, जर्जर, खंडहर, दीनहीन, ज़मीन से जुड़ी हुई… संवेदनशील!

इतनी संवेदनशील मित्र, कि एक हवा के झोंके से गिर जाए।

सरकार भी इतनी संवेदनशील, कि हादसे के तुरंत बाद दो शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया।

सरकार की संवेदना इतनी तीव्र कि ट्विटर पर श्रद्धांजलि, प्रेस में अति-विकट ‘दुःख जताया’ और टीवी पर बयान जारी होते ही टीवी स्क्रीन से आँसू टपकने लगे।

सरकार ने घोषणा भी कर दी — “सरकार पीड़ितों के साथ खड़ी है।”

मगर खड़ी कहाँ है — ये कैमरे वाले ड्रोन को भी नहीं दिखा।

तात्कालिक कार्यवाही तो एकदम साकार हुई — बुलडोज़र आ गए हैं… जैसे तैयार ही बैठे थे।

अरे डरो नहीं मित्र… तोड़ने नहीं आए हैं।

भाई, मलबा हटाने आए हैं… वो क्या है कि मलबे में सिर्फ बच्चे ही नहीं, कुछ सबूत भी दबे पड़े हैं।

उन्हें ठिकाने लगाना सरकार का काम है।

आप निश्चिन्त रहे ये बुलडोज़र सरकारी इमारतों को नहीं गिराते — वो तो सिर्फ झुग्गी-झोपड़ियों, कच्ची बस्तियों को हटाने के काम आते हैं।

सरकारी बिल्डिंगें तो प्रकृति प्रेमी होती हैं — प्रकृति-प्रकोप से खिंचती हुई ज़मीन में दफ़न होने को तत्पर रहती हैं।

देखो कैसे प्रकृतिस्थ सी लग रही है बची हुई बिल्डिंग — बिल्कुल सरकारी अफ़सर की तरह — ईर्ष्या भाव से: “अच्छा सखि खुद तो चली, मुझे छोड़ गई। आती हूँ मैं भी वेट ।”

एम्बुलेंस आ गई हैं… घायलों को ले जाया जा रहा है सरकारी अस्पताल। डर रहे हैं घायल और उनके परिजन “कहीं वहां की बुल्डिंग भी गिर गयी तो ? ‘

अरे डरो नहीं मित्र — सरकारी अस्पताल की बिल्डिंग अभी नहीं गिरेगी… वहाँ और बेहतर तरीके हैं आपको मारने के लिए ।

आप एक बार जाएँ तो सही।

हमने अभी आधिकारिक आँकड़े दिए नहीं हैं — मीडिया वाले सिर्फ सूत्रों के हवाले से लाइव चला रहे हैं।

असली आँकड़े सरकारी अस्पताल में इलाज के बाद देंगे,आशा है शायद जो भर्ती हुए हैं उनमे से एक दो बच जाएँ ।

वैसे तो उम्मीद है — सिस्टम की एफिशिएंसी 100% है, तो कैज़ुअल्टी भी 100% होगी।

लेकिन फिर भी कुछ अभागे बच जाते हैं — तो इसमें सरकार क्या करे अब?

मुआवज़ा जो बच गए, उन्हें थोड़े ही मिलेगा।

प्रशासन दोषी नहीं — मासूम बच्चे ही दोषी हैं।

क्यों?

क्योंकि फ्री एजुकेशन के चक्कर में छोड़ के निजी स्कूल, सरकारी स्कूलों का चैन हराम कर रखे हैं।

हर सुबह मुँह उठाकर चले आते हैं ,और कोई काम धाम नहीं इनको !

यार, “राइट टू एजुकेशन” को इतना सीरियस लेने की क्या ज़रूरत थी?

गलती गाँववालों की है — समय पर चंदा दे देते तो छत भी बनवा देते।

गलती इन बच्चों की भी है — अब दूध के दाँत तो टूट चुके थे, थोड़ी सामाजिक जागरूकता खुद दिखाते।

देखते कि भाई, सरकारी छत है — कुछ जाँच-परख कर लेते।

ठोक-बजाकर किसी सरकारी अफसर और इमारत को इस्तेमाल करना जागरूकता है।

कम से कम ठेकेदार का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड ही देख लेते — या टेंडर कॉपी ही मँगा लेते।

मरम्मत का बिल भी चेक नहीं किया और सीधे क्लास में बैठ गए — किस ज़माने में जी रहे हैं भाई?

इस बीच ठेकेदार के दरबार में काग़ज़ी ईमानदारी नाच रही है,

इंजीनियर की जेब में टेंडर की दलाली की शहनाई बज रही है,

और कलेक्टर की जीपों की चें-चें सुनकर अफसरान बहरे हो गए हैं।

पर ये दौर-दौरे आख़िर जा कहाँ रहे हैं, कोई बताए?

भगवान् पर किसका ज़ोर चलता है मित्र — सरकार लाख बुरा चाहे, लेकिन जब आप “खुदई सरकार” पे भरोसा करो आँख मूँद के — तो मरो सरकार की जान से।

सरकार ने बारिश का अलर्ट जारी करवा दिया था न?

लेकिन बच्चे हैं न — न जाने क्या फीड कर दिया इनके मन में कि ये देश के भविष्य के कर्णधार हैं… जबकि इनका खुद का भविष्य इस सरकारी सिस्टम के चुंगल में कैद…

आ गए हैं दूसरे दिन कुछ और बचे हुए बच्चे — बारिश में भीगते हुए, कीचड़ में छपाक-छपाक करते हुए — गुरुजी को नमस्कार करते हुए।

“छोटू, तू फिर आ गया पढ़ने? आज तो बारिश है, क्यों आया?”

“क्या करें गुरुजी — घर रुकते तो बापू खेत में भेज देता। स्कूल ही शरण है हमारी!”

सरकार फिर हरकत में आ गई है —

फूल, माला, मौन और मुआवज़ा — जो करवाना है जल्दी करवा लो…

क्योंकि सिस्टम जल्द ही फिर से ‘मौन व्रत’ धारण करने वाला है — अगली छत गिरने तक।

रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित

रचनाकार -डॉ मुकेश असीमित

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डॉ मुकेश 'असीमित'

डॉ मुकेश 'असीमित'

लेखक का नाम: डॉ. मुकेश गर्ग निवास स्थान: गंगापुर सिटी,…

लेखक का नाम: डॉ. मुकेश गर्ग निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड -३२२२०१ मेल आई डी -thefocusunlimited€@gmail.com पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से ) काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से  काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से  अंग्रेजी भाषा में-रोजेज एंड थोर्न्स -(एक व्यंग्य  संग्रह ) नोशन प्रेस से  –गिरने में क्या हर्ज है   -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से  प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन  से  देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित  सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन  अवार्ड  ”

Comments ( 7)

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वोट से विष तक : नागों का लोकतांत्रिक सफर - Baat Apne Desh Ki

5 months ago

[…] […]

डॉ मुकेश 'असीमित'

5 months ago

<strong>Thanks a lot <strong></strong>

डॉ मुकेश 'असीमित'

5 months ago

Thanks a lot

डॉ मुकेश 'असीमित'

5 months ago

Thanks a lot

devanshu

5 months ago

sahe ebaat kahee ..aaj ke paripeskhy mein sateek