नव भारत में एक नया सिद्धांत धर कर गया है कि
“Rishvat is based on risk”.
हर आम और खास जानता है कि रिश्वत लेने में यदि रिस्क ज्यादा हो तो उसका सीधा प्रभाव राशि के अंको की वृद्धि की ओर ही पड़ता है। जैसा कहते है कि चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, कटेगा खरबूजा ही।
यहां खरबूजा ग़ैर सरकारी आदमी का प्रतीक है।
यदि कोई हठी सरकार भ्रष्टाचार निरोधक विभाग को चुस्त-दुरुस्त, जाग्रत कर दे और दनादन छापें मारे तो आप गुणी जन शायद सोचते होंगे कि इससे भ्रष्टाचार रुक जायेगा यह आपके भोलेपन की सरासर भूल होगी। रिश्वत का लेन-देन रुकने या कम होने वाला नही, इसके बजाय रिश्वत लेने वाला जंग बहादुर, रिस्क के नाम से राशि में वृद्धि कर देगा। जो काम पहले हजार रूपये में हो रहा था, अब डेढ़ से दो हजार रुपये में होगा। क्योंकि स्वतंत्र भारत में रिश्वत की रानी रुकने वाली नही है, इसका मान तो बढ़ना ही है। यह अक्षय वरदानी प्राप्त कालाधन देवी है।यह अंग्रेजों की देन,अजेय है,अमर है और यही भारतीय इकानॉमिक्स का स्वयं सिद्ध आधुनिक सिद्धांत कहता है।
कईयों के श्रीमुख से सुना गया है कि सरकार से मिलने वाली तनख्वाह तो बैंक में जमा होने केलिए ही दी जा रही है, घर के माहवारी ख़र्च केलिए अलग से जुगाड़ करना होगा। सरकारी कर्मचारी से और तो कोई धंधा होगा नहीं, अब फाइल पर कुण्डली मारने वाला धंधा ही शेष बचा है। उसमें हम सभी महारत हासिल कर चुके है।
इतिहास साक्षी है कि 26 जून 1975 में जैसे ही देश में आन्तरिक इमरजेंसी लगी एकबारगी सारे बड़े बाबू/छोटे बाबू हतप्रभ हो गये थे और भय के मारे टेबल के नीचे वाले हाथों को टेबल के उपर रखने लग गये थे। शुरुआत के दो-तीन महीनों में देश भ्रष्टाचार से मुक्त रहा। बाद में बाबू वर्ग को सबसे पहले समझ आया कि जिन्होंने इमरजेंसी लगाई वो ही तो स्वयं सबसे बड़े भ्रष्टाचारी है। अपनी कुर्सी बचाने के चक्कर में पूरे देश को जेल बना दिया था।
तो केवल हम ही ईमानदारी का मुलम्मा क्यों ओढ़े?
फिर भी रिस्क बहुत थी, कहीं पकड़ें गये तो सुनवाई होगी या नही। कुछ पता नही था।
उन दिनों की जकड़न से राजशाही के हिमायती भी लोकतंत्र की दुहाई देने लग गये थे।
फिर भी कुछ दुस्साहसीयों ने चैलेंज का बीड़ा उठा लिया। रिस्क बढ़ गई तो रिश्वत राशि में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई। हजारों का काम लाखों में होने लग गया। फिर तो सभी टूट पड़े कई महीनों का घाटा जो पूरा करना था।
रिश्वत के भाव एकबार जो निश्चित हो जाते है वह फिर गिरते नही है जैसा दूसरे क़ृषि जिन्सों में आपने देखा सुना होगा। निरीह जनता रुपी भेड़ों का प्रारब्ध ही कटना होता है, इमरजेंसी जैसे अनुशासन पर्व की अवधि में और अधिक मार खाकर खूब कटी।
आमजन का कहना है कि आज तक अनेकों प्रकार की विचित्र से विचित्र सरकारें आयी, पहले पांच सात महीने भ्रष्टाचार के विरोध में भाषण झाड़ती है और फिर धीरे धीरे भ्रष्टाचार के विरोध में कड़काई से बोलना बंद कर देती हैं क्योंकि उनको समझ में आ जाता है कि बिना नोटों के कोई वोट नहीं देता और नोट तो प्रशासनिक व्यवस्थाएं यानि बाबू गैंग ही सृजित कर सकती है, यह सर्व विदित है।
एक नेता की भाषण पैरोडी अनुसार सरकारें आयेंगी, जायेगी पर यह भ्रष्टाचार सदा रहेगा और रहना भी चाहिए। जो भी इसके विरुद्ध ज़बान खोलेगा भ्रष्टाचार रुपी मगरमच्छ उसे ही निगल लेगा। ईमानदारों केलिए अन्य किसी ग्रह की खोज की जानी चाहिए।
इतिहास चीख चीख कर कह रहा है कि हर कर्मचारी/ अधिकारी तब तक ईमानदार रहा जब-तक उसे दलालों का ऑफ़र लेटर न मिला हो। ऑफिस से सुरक्षा व्यवस्था मिलते ही निम्न लिखित ध्येय वाक्य का सृजन हो जाता है-
सुरसा मुंह डकारिये यही बाबू को काम। और
अफसर मेहरबान तो गधा पहलवान।
वैसे ज्ञातव्य रहे कि रिश्वत के अनेकों प्रकार होते है जैसे नोट रुपी, सोने रुपी, जमीन रुपी, विदेश दौरे रुपी, स्टार वाली होटल के भोज रुपी, तन रुपी, मन रुपी आदि। अधिक सही तो वो ही बता सकते हैं जो इस क्षेत्र के महारथी रहे है।
चूंकि भ्रष्टाचार खत्म होने वाला है नही, इस वास्तविकता को पहचानते हुए देश की जनता को चाहिए कि एक ऐसी पार्टी का गठन करें जिसमें केवल देश के रिश्वत खोर बड़े बाबू से लेकर तहसील व ग्राम पंचायत के छोटे बाबू ही सदस्य बन सकते हो और जिनको सभी प्रकार की रिश्वत लेने का प्रेक्टिकल अनुभव हो।
साथ में एम पी, एम एल ए सीट वितरण में वरीयता उन्हीं को दी जायेगी जो रंगें हाथों पकड़े जाने के बाद सर्वस्व न्यौछावरी रिश्वत के बलबूते पर बाइज्जत बरी हो गये हो। ध्यान रहे – इस पार्टी में उन अफसरों को सदस्य नही बनाया जाय जो रिश्वत के धन को पचाने में असक्षम हो, अर्थात् उनकी पत्नियां रोज़ रोज़ नये गहने, साड़ियों या गाड़ियों को बाजार में खरीदतीं फिरती मिलती हो।
इस प्रकार की पार्टी की सरकार बनने पर नई भर्ती हेतु विज्ञापन में स्पष्ट लिखा होगा कि सरकारी नौकरी निर्वेतन होगी और आपकी सुरक्षा हेतु आपके द्वारा किये गये कार्यों में किसी प्रकार की जांच नही होगी क्योंकि आजतक जितने भी आयोग बने हैं उन्होंने सिवाय खर्च के कुछ नहीं किया है। जांच आयोग बिठा कर जनता का ध्यान बंटाने के साथ धन का सिर्फ दुरुपयोग करना होता है। इस प्रवृत्ति पर रोक होगी।
इस प्रकार की पार्टी जब सरकार बनायेगी तो करोड़ों करोड़ रुपए तनख्वाह मद में दिये जा रहे है वे सीधे ही बच जायेंगे। बजट घाटा शून्य होगा। वेतन नही देने से हुई बचत की राशि जनता के विकास केलिए ख़र्च होगी। इस असीम विकास की राशि से कर्मचारी फ़ाइल कुण्डली के प्रयोग से अपने घर का खर्च चलायेंगे। सप्लायरों/ठेकेदारों से प्राप्त राशि को रिश्वत न कहकर सुविधा शुल्क कहा जायेगा। भ्रष्टाचार शब्द को डिक्शनरी से हटा दिया जाएगा और साथ में उन सभी कानूनी धाराओं को विलोपित कर सभी अधिकारियों/कर्मचारियों को अभय दिया जायेगा ताकि सभी मातहत अपनी क्षमताओं से बढ़कर और अधिक कार्य निष्पादित कर सकेंगे।
जब-तक जनता इस प्रकार की राजनीतिक पार्टीयां नही बनाती तबतक वर्तमान सरकारों को सलाह है कि भ्रष्टाचार विभाग को पंगु बना दिया जाय तथा अधिकारियों/कर्मचारियों को रिश्वत लेते हुए ट्रेप न किये जाय क्योंकि ट्रेप किये जाने के बाद सभी आरोपी कोर्ट द्वारा बाइज्जत बरी हो जाते है। फिर ऐसे प्रक्रियाओं से क्या फायदा? हां ! रिश्वत के नाम छापे मारी से मातहतों की सामाजिक स्थिति में गिरावट आती है और इसका प्रभाव उनकी कार्यक्षमता पर सीधे ही पड़ता है। उनके मासूम बच्चों को स्कूल -कालेजों में नीचा देखना पड़ता है जिसके कारण उनमें हीनता के भाव धर कर जाते है जो कि संपूर्ण भारत के उज्जवल भविष्य केलिए कतई उचित नहीं होगा। आने वाली पीढ़ी आत्म विश्वास से लबरेज हो, सरकार का यह प्रथम कर्तव्य होना चाहिए।
अतः सरकारी मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए निर्भयता ही एक मात्र उपाय है। रिश्वत लेते ट्रेप करना,जेल , ज़मानत आदि घिनौने कृत्यों से सरकार को दूर रहना चाहिए।
अंतिम बात -इससे जनता को बहुत फायदा होगा जैसे जीएसटी कम होने से बाजार में खरीद ज्यादा होने लग गयी इसी प्रकार जब रिश्वत लेने में कोई रिस्क नही होगी तो रिश्वत की राशि का मान तुरंत गिर जायेगा इससे आम जन को बेहिसाब लाभ होगा। यही इकानॉमिक्स का बेसिक सिद्धांत है।
इति शुभम्।
