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पर्यावरण चेतना की भारतीय अवधारणाएं

पर्यावरण चेतना की भारतीय अव्धार्नाये

पर्यावरण चेतना के लिए भारतीय अवधारणाएं

जब मनुष्य प्राकृतिक आपदाओं और वर्तमान में कोरोना जैसे महामारी से व्यथित, चिंतित, भयभीत होता है ,जीवन की नैया मझधार में भटकने लगती है, मनुष्य अंतर्मन से दुखित होकर प्रकृति की ओर भागने की वर्तमान स्थितियों में अनपेक्षित कोशिश करता है ,ऑक्सीजन की आवश्यकता जब उसके जीवन का आधार होता है,

पवित्र और स्वच्छ जल जब पीयूष की धार की तरह संजीवनी का काम करता है ,शारीरिक व्याधियों के कारण आईसीयू में जब ऑक्सीजन की नलीका नाक के नथुने में लगाई जाती है ,तब एहसास होत में मानव इस प्रकृति का केवल दोहन करता है प्राकृतिक नदी ,वृक्ष ,तालाब, वायु को व्यर्थ की वस्तु मानकर या अनिवार्य आवश्यकता, प्रकृति निर्मित अमूल्य निधियों का जब उसको सहेजने वाला चितेरा उसका अपमान करता है, अनुचित प्रयोग करता है, वर्तमान स्थिति में अत्यंत आवश्यकता है,पर्यावरण चेतना में भारतीय अवधारणा को, जीवंत करने की अनुसरण करने की, अनुगमन करने की, और पालन करने की ,यदि हम जागरूक नहीं हुए तो निश्चित ही हम हमारे वर्तमान जीवन में और भावी आने वाली पीढ़ी के लिए एक ऐसा विषैला और जहरीला मार्ग स्थापित कर जाएंगे जिसके लिए वर्तमान एवं आने वाला समय हमें कभी भी माफ नहीं करेगा और कृत्रिम वस्तुओं को आधार बनाकर जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएंगे
बंधुवर आपके लिए किंचितमात्र एक प्रयास है कि भारतीय अवधारणा की पर्यावरण चेतना के लिए महती आवश्यकता क्यों है इस हेतु वैचारिक संप्रेषण की तो मन बोलना चाहता
है…

सघन कुंज छाया सुखद शीतल मंद समीर!
मन हुए जाता जो वही बा जमुना के तीर!!

समग्र प्रकृति एवं मनुष्य के पारस्परिक संबंधों की मधुरता या अनुपातिक संतुलन का नाम ही पर्यावरण संरक्षण है पर्यावरण संरक्षण के या चेतना के विभिन्न आधार एवं साधन हो सकते हैं
परंतु धार्मिक भावना और भारतीय परंपरा भी इसका एक आधार है इस दृष्टि से विचार किया जाए तो प्राचीन वैदिक साहित्य उपनिषद साहित्य प्राचीन ग्रंथ में जो सिद्धांत है
वह पर्यावरण जागरूकता के साधन परिलक्षित होते हैं क्योंकि ज्ञान कर्म एवं उपासना की त्रिवेणी से युक्त वैदिक साहित्य में कर्म अर्थात यज्ञ का सीधा संबंध औषधि एवं पर्यावरण शुद्धि से है तो उपासना विशुद्ध रूप से प्राकृतिक उपादान उसे संबंधित है अग्नि मरुत, पर्जन्य ,वरुण ,सोम, सविता ,पृथ्वी इत्यादि सभी प्राकृतिक तत्व वैदिक परंपरा में और भारतीय परंपरा में मानव के लिए पूजनीय रहे हैं

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ऐसा प्रतीत होता है कि आदिकाल में इन तत्वों में देवत्व की भावना समाहित थी, वेदों में इन्हीं प्राकृतिक देवताओं के प्रसन्नता या इनसे अपने कल्याण एवं सुख समृद्धि की प्राप्ति के लिए स्तुति या प्रार्थना का विधान किया गया है प्राकृतिक शक्तियों की है ,उपासना भय की परिणिति नहीं, अपितु श्रद्धा से युक्त कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी, यद्यपि प्राचीन समय में पर्यावरण प्रदूषण जैसी कोई समस्या नहीं थी!
परंतु प्राचीन ऋषियों ने भविष्य को देखते हुए चिंतन की शैली को और आने वाली पीढ़ी को जागरूक करने के लिए इनको वैज्ञानिकता संयुक्त किया है ,पर्यावरण के विषय में प्राचीन ऋषियों की यह भावना देखने योग्य है…
मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति। सिन्धव : !

संसार में वायु मधुर बहे ,नदिया मधुर बहे ,औषधियां मधुर उत्पन्न हो, रात मधुर हो प्रभात मधुर हो, और हमारा पिता द्यौअर्थात आकाश मधुर हो ! वनस्पतियां मधुर हो सूर्य मधुर होऔर गाय मधुर हो।
इस प्रकार प्रकृति मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं, एक के अभाव में दूसरे के सद्भाव की कल्पना नहीं की जा सकती,

यही कारण है कि प्राचीन काल में पर्यावरण मानवीय जीवन पद्धति में मिला हुआ है मानव जीवन का कोई भी पक्ष पर्यावरण से पृथक करके नहीं देखा जा सकता प्राचीन काल में मनुष्यों की नित्य क्रिया संस्कार ,व्रत ,अनुष्ठान, त्यौहार ,क्रिया ,कर्म ,पूजा ,पद्धति नृत्य गीत सभी में पर्यावरण समाहित है ,एक समय ऐसा था जब हमारी दृष्टि में चर अचर सभी सजीव से सब के प्रति हमारे मन में आदर एवं सद्भाव था
प्रातः काल में उठने पर प्रत्येक आस्थावान व्यक्ति आज भी यह श्लोक
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमन्डले!
विष्नुपत्नि!नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥

का उच्चारण करता हुआ पृथ्वी मां का स्पर्श करता है, इसी प्रकार मनुष्य के मन में पवित्र नदियों की भावना समाई रहती थी..
गंगे च यमुने चैव गोदावरिसरस्वती !
नर्मदेसिन्धु कावेरी जलेअस्मिन सन्निधि कुरू ॥

पुत्रों से भी अधिक वृक्षों के महत्व का प्रतिपादन भी प्राचीन परंपरा में मिलता है ,वृक्षों का महत्व निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है
दस कूप समावापी दसवापीसमो ह्रद: !
दस हृदसम: पुत्रो दसपुत्र समो द्रुम : ॥
पर्यावरण को परिशुद्ध एवं समन्वय करने के लिए शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों को दूर करने के लिए रोगाणुओं को नष्ट करने के लिए तथा वर्षा को नियंत्रित करने के लिए प्राचीन काल में यज्ञों का व्यापक विधान किया था ! यज्ञ के बारे में गीता का यह कथन सर्वमान्य है,

अन्नाद भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः !
यज्ञाद भवन्ति पर्जर्न्याः यज्ञ कर्मसमुद्भवाः ॥

इस प्रकार के असंख्य उदाहरण प्राचीन परंपरा और ग्रंथों में मिलते हैं ,लेख के विस्तृत होने के भय से उन उदाहरणों को यहां लेखनीयुक्त किया जाना युक्तिसंगत नहीं होगा, परंतु यह बिल्कुल यथार्थ सत्य है, यदि मानव जीवन को संरक्षित सुरक्षित और संवर्धित करना है तो पर्यावरण की रक्षा करना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है ,और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए जो प्राकृतिक संपदाए हैं, उनके प्रति संरक्षण का ,संवारने का सम्मान का भाव अत्यंत अनिवार्य है !
इस प्रकार प्राचीन काल में प्राकृतिक तत्वों के प्रति पूज्य पूजक भावना, पाप पुण्य की अवधारणा ,मानवीय संवेदनाएं एवं पारिवारिक संबंधों के अभिव्यक्ति से पर्यावरण संरक्षण की कामना अंधभक्ति से युक्त नहीं थी,
अपितु उनके मूल में ज्ञान-विज्ञान के अनेक आश्चर्यजनक तथ्य छिपे हुए हैं आवश्यकता है इन महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तत्वों को उजागर करने की !
अपेक्षा है इन्हीं मानवीय भावनाओं द्वारा पर्यावरण संरक्षण और चेतना आवश्यक है, और जागरूक रहकर इन प्राकृतिक तत्वों को संरक्षित करने की और प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित करने की हो सकता है, हो सकता है कुछ अति बुद्धि वादी व्यक्तियों को प्राचीन परंपराओं के यह उदाहरण समुचित नहीं लगे परंतु यह यथार्थ सत्य है की प्राकृतिक सिद्धांतों का अनुगमन करना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है ,और मानव हित के लिए श्रेयस्कर है, पर्यावरण संबंधी इस अनुपम मंत्र के साथ आपके विचारों का आकांक्षी रहकर निवेदन करता हूं कि जीवन की खुशी के लिए, प्रकृति का प्रेम और प्रकृति के प्रति प्रेम अत्यंत सत्य साबित होगा
शन्नो वातः .. चक्षसे ॥
धौ शान्तिरन्तिरक्ष शांति,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
शान्तिरेव शांति : सा मा शान्तिरेधि ॥
वायु की गति कल्याण दायक हो सूर्य सांप कल्याण दायक हो और शब्द करते हुए बादल की वर्षा कल्याणकारी हो दिन कल्याणकारी हो रात्रि कल्याणकारी हो और सभी देवता कल्याणकारी हो, पीने का पवित्र जल कल्याणकारी हो ,वर्षा का जल कल्याणकारी हो ,पृथ्वी हमारे लिए कंटक रहित और उत्तम बसने के योग्य हो, पानी हमारे लिए सुख कारी हो, उसे हम अनुचित प्रयोग के लिए धारण नहीं करें, और प्राकृतिक युद्ध में हमारी विजय हो, आकाश लोक शांत हो ,अंतरिक्ष शांत हो ,पृथ्वी शांत हो, जल शांत हो औषधियां शांत हो, वनस्पतियां शांत हो ,संसार की समस्त शक्तियां शांत हो, सब कुछ शांत हो, शांति भी शांत हो ,और शांति ,शांति हमेशा बनी रहे
सभी बंधुओं को
पर्यावरण दिवस की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं

डॉ बृजेंद्र सिंह गुर्जर
गंगापुर सिटी

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2 Comments

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