बात अब तक छुपाई जा रही थी, लेकिन अब समय आ गया है कि राष्ट्र को सच्चाई से अवगत कराया जाए — हमारे देश की सारी समस्याएं बुद्धिमत्ता से नहीं, बल्कि बेवकूफी से सुलझाई गई हैं। आप मानें या न मानें, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि इस जीवन में जितनी भी समस्याएं पैदा हुई हैं, वे बुद्धिमत्ता से हुई हैं… और जो कुछ सुलझ पाया है, वह बेवकूफी से! यानी समस्या का जन्म “सोच-समझकर” हुआ और समाधान “बिना सोचे-समझे”!
दरअसल, बुद्धिमत्ता बड़ी दुष्ट चीज़ है — पहले समस्या खड़ी करती है, फिर उसे और पेचीदा बना देती है। सोच-विचार की टंगड़ी लगाती है, परिणाम और दुष्परिणाम के जाल में फंसाती है। जबकि बेवकूफी…? वहाँ दिमाग लगाया ही नहीं जाता… और होता भी नहीं लगाने को! बस लग जाती हैं काम में — बंधुआ मज़दूर की तरह।
बेवकूफी दरअसल दो आदमियों की ‘आपसी समझदारी’ का मामला है — जहाँ एक बनता है और दूसरा बनाता है।
कई बार जो बन रहा होता है, उसे ख़ुद ही नहीं पता होता कि वह बन रहा है। कई बार वह जानबूझकर बनता है। और कुछ लोग तो इसे इतनी सफ़ाई से छुपाते हैं कि छुपाने के चक्कर में और ज़्यादा बेवकूफी को ओढ़ लेते हैं!
कुछ जगहों पर तो ‘बेवकूफ बने रहना’ अपने आप में एक अद्भुत रणनीति है — जिससे आप दर्जनों ज़िम्मेदारियों से बड़ी सहजता से कंधा उचकाकर बच निकलते हैं।
हमारे बब्बन चाचा को ही ले लीजिए। दफ्तर में दिनभर चाय की चुस्कियों के साथ वो अपने सहकर्मियों के साथ देश-विदेश की लंबी-चौड़ी बुद्धिमत्ताएं बघारते रहते हैं।
लेकिन जैसे ही बॉस सामने आ जाएँ — वो बेवकूफी की ऐसी गैंडे जैसी खाल ओढ़ लेते हैं कि बॉस भी कोई काम देने से पहले दस बार सोचता है!
मैं स्वयं कोशिश करता हूँ कि बेवकूफी के सामने बेवकूफ ही बना रहना ही सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। बस इतना समझ में आ जाए कि सामने वाला मुझे बेवकूफ बना रहा है — तो फिर झूठ-मूठ का बन जाना कोई बुरी बात नहीं।
उसका मन रखने के लिए भी बेवकूफ बना जा सकता है।
एक मेरे परम मित्र हैं — जो इस कला के उस्ताद हैं।
अपनी ‘एकतरफ़ा दोस्ती’ का ढोल पीटते हुए अक्सर मेरे घर चले आते हैं।
मेरे सामने बैठकर मेरे चार-पाँच दुश्मनों की उलटी-सीधी बुराई करते हैं और फिर मेरी शक्ल निहारते हैं।
मैं भी अपनी आँखें चमकाकर, मुस्कुराते हुए, उनकी इस फ्री-फोकट की मेरे दुश्मनों को ध्वस्त करने की रणनीति का आभार व्यक्त करता हूँ!
अब उनका हाज़मा ठीक रहे — तो ठीक है।
मुझे भली-भाँति पता है कि वो वहीं से आ रहे हैं, जहाँ उन्होंने अभी-अभी मेरे उन्हीं दुश्मनों के गले में बाँहें डालकर मेरी ही बुराई की है।
उन्हें भी बेवकूफ बनाकर ही आ रहे हैं।
तो जनाब… बेवकूफी एक नाटक है — सफल तभी होता है जब दोनों पक्ष अपने-अपने हिस्से का अभिनय ईमानदारी से निभाएँ।बेबकूफी एक मिशन है ,एक मिसाल है ,और सच कहें तो एक मिसाइल अटैक है ,जीवन की अनगिनित समस्याओं पर टार्गेटेड अटैक करने के लिए ! बेबकूफी वो बंकर है जिसमे बुद्धीमता के ड्रोन हमलों से बच जा सके !

“समझदारी का भाषण दे रहा है, पर मूर्खता की पीएच.डी. दीवार पर टंगी है“
बेवकूफ बनना कोई सहज प्रक्रिया नहीं है, यह भी एक तरह की तपस्या है। सबसे बड़ी बात यह है कि सामने वाले को ज़रा भी एहसास नहीं होना चाहिए कि आप “बेवकूफ बनने का अभिनय” कर रहे हैं। यही असली कला है — भीतर से समझदार रहते हुए ऊपर से ऐसे दिखना जैसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा हो। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हर कोई जन्म से बेवकूफ नहीं होता और न ही होना चाहिए। अगर सब लोग पैदा होते ही बेवकूफ निकलने लगें, तो जो दूसरों को बेवकूफ बनाते हैं, उनका तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।
असल में यह ज़रूरी नहीं कि जो व्यक्ति दूसरों को बेवकूफ बना रहा है, वह स्वयं समझदार हो। कई बार जो बेवकूफ बना रहा होता है, वह खुद उससे भी बड़ा और अभ्यासशील बेवकूफ हो सकता है — जिसने अपनी सारी ऊर्जा इसी में खपा दी हो कि दूसरों को कैसे बेवकूफ बनाया जाए। आज के ज़माने के ज़्यादातर फ्रॉड, घोटाले, स्कैम और योजनाएँ बेवकूफी की मिट्टी में ही पनपती हैं। अगर नेता वोटर को बेवकूफ न बनाएँ, तो वोट कैसे मिलेंगे? वोटर को समझदार बना दो, तो लोकतंत्र की सारी रणनीति धरी की धरी रह जाएगी।
बात सिर्फ आज की नहीं है, सनातन काल में भी देवताओं को इस कला का सहारा लेना पड़ा। जब अमृत का बँटवारा हुआ, तो भगवान विष्णु को मोहिनी अवतार लेना पड़ा, ताकि राक्षसों को चकमा देकर देवताओं को अमृत पिलाया जा सके। सोचिए, अगर राक्षसों को अमृत मिल जाता, तो क्या होता — पूरे ब्रह्मांड में ‘राक्षस प्राइवेट लिमिटेड’ का राज हो जाता। नारद मुनि तक एक बार शादी के मोह में फँस गए थे, तब उन्हें भी भ्रम से बाहर लाने के लिए एक बंदर का मुखौटा दिखाना पड़ा था।
आज पूरा बाज़ार इसी आधार पर टिका हुआ है। सेल, डिस्काउंट, ‘वन गेट वन फ्री’, सीमित अवधि का ऑफर — ये सब बेवकूफी की मिसाइलें हैं, जो सीधे आपकी जेब पर हमला करती हैं। आप बाज़ार में एक समझदार ‘जागो ग्राहक जागो’ की वैक्सीन लगाकर उतरते हैं, लेकिन कब बेवकूफी का वायरस आपके अंदर घुसा दिया गया, आपको पता ही नहीं चलता।
इसलिए कहने में कोई संकोच नहीं कि बेवकूफी कोई अपराध नहीं, बल्कि समाज का अदृश्य आधारस्तंभ है। यह तय करती है कि कौन ग्राहक है, कौन विक्रेता है, कौन शासक है और कौन मतदाता। कभी-कभी तो लगता है कि अगर बुद्धिमत्ता कोई सरकार होती, तो बेवकूफी उस पर नज़र रखने वाली लोकपाल संस्था होती — निष्पक्ष, सर्वव्यापी और पूरी तरह से व्यावहारिक।
तो अब जब देश की तमाम समस्याएँ बेवकूफी के अमृत से हल हो चुकी हैं, तो एक राष्ट्रीय आयोग “राष्ट्रीय मूर्ख आयोग” (आर.एम.सी.) की स्थापना की जाए, जो प्रमाणित बेवकूफों को सरकारी सलाहकार बनाए।
क्योंकि अब एक ही नीति चलेगी — “समझदारी से सिर्फ प्रश्न उठते हैं, समाधान तो बेवकूफी ही लाती है।”
जय बेवकूफी!
जय समाधान!
जय भारत!