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“बेसहारा सर्वहारा चिन्तक” कविता रचना-डॉ मुकेश असीमित

एक मध्यम आयु का व्यक्ति एक लकड़ी की मेज़ पर उदास मुद्रा में बैठा है, उसके चेहरे पर गहरी चिंता की झलक है। उसने लाल शर्ट और काले कोट के ऊपर एक छोटा सा लाल हथौड़ा-हंसिया का चिह्न लगाया हुआ है, और मेज़ पर एक गिलास में हल्का भूरा शराब (सिंगल मॉल्ट) रखा है। पृष्ठभूमि में गर्म और गहरे रंगों की अमूर्त बनावट है।

एक मुखौटा जो क्रांति का नाम लेता है, और एक जाम जो सिंगल मॉल्ट से छलकता है।

डॉ. मुकेश ‘असीमित’ की यह तीखी व्यंग्यात्मक कविता उन स्वघोषित चिंतकों पर करारा कटाक्ष है — जो शब्दों से सर्वहारा का राग अलापते हैं, पर जीवन में सुविधाओं के सहारे सांस लेते हैं।

“बेसहारा सर्वहारा चिन्तक” सत्ता, दिखावे और वैचारिक दोगलेपन की उस रंगभूमि पर प्रहार करती है, जहाँ विमर्श क्लाइमेट चेंज और स्त्री अधिकारों पर होता है, पर ए.सी. और इंटर्न की सुविधा भी नहीं छोड़ी जाती।

यह रचना नारे और नैतिकता के बीच के खोखलेपन को उजागर करती है — तीखी, मार्मिक और असीमित शैली में।
बेसहारा सर्वहारा चिन्तक”
(कथित सर्वाहारी चिंतकों के नाम)
✍🏻 डॉ. मुकेश ‘असीमित’

वह मंच पर आसीन था।
चेहरा क्रांति से ग़मगीन था।
आवाज़ में निर्धनता की चीख थी,
नारों में दलित विमर्श की सीख थी।
मेज़ पर जलजले विचार थे,
और गिलास में सिंगल मॉल्ट।

“हमें सर्वहारा के लिए लड़ना है!” — उसने गरजकर कहा,
और पीछे से वेटर आया, गिलास फिर से भर दिया।

कहते हैं, ये बाँये चलने वाले
सीधे चलते-चलते दाएँ मुड़ जाते हैं,
और ‘लेफ्ट’ का झंडा
‘राइट’ पॉकेट में रखते हैं,
जहाँ से उनका आईफ़ोन झाँकता है,
और मुँह से निकलता है — “सर्वहारा की जय!”

उन्होंने कहा — “बाल श्रमिक पूँजीवाद की काली छाया हैं!”
और फिर किसी बालक से
अपना सूटकेस उठवाया,
बोले — “बेटा, ध्यान से रखना,
इसमें रखा है बचा हुआ चखना।”

उन्होंने कहा — “स्त्री विमर्श पर हमारी गहरी आस्था है।”
और फिर कॉफी ब्रेक में
पत्रिका की इंटर्न को दिया — स्त्री उत्थान का वास्ता!

मंच से तत्परता से उठे — “वक्त क्यों किया जाए जाया?”
इंटर्न को “कमरे में स्त्री विमर्श का फॉर्म समझाने” बुलाया।

सत्र में बोले — “धरती माँ को बचाना होगा!
हमें इसके लिए किसी भी हद तक जाना होगा!”
बाहर गाड़ी में बोले — “इस ग्लोबल वार्मिंग का मटियामेट कर दो।
ए.सी. ज़रा सोलह पर सेट कर दो।”

उनकी कार चलती है डीज़ल से,
दिल चलता है दोगलेपन के दलदल से!

“हम कविता में क्रांति लाना चाहते हैं!” — वो बोले,
“हम रिमोट कंट्रोल से शांति लाना चाहते हैं।”
और फिर शाम को
रस्मी जलसे में कितनों की नींदें चुराईं,
पार्टी फंड से मटन बिरयानी उड़ाई।

ये वो वर्ग है —
जो न महुए से दोस्ती निभा पाए,
न मार्क्स की किताब ढंग से पढ़ पाए।
पर इंस्टाग्राम पर ‘रेड फ्लैग’ लहराते हैं,
हर दूसरे खेमे वालों को गरियाते हैं।

भारत में वामपंथी ऐसे क्यों हैं?
शायद इसलिए —
क्योंकि ‘क्रांति’ इनकी कविता की क्लोज़िंग लाइन है,
और ‘बदलाव’ सिर्फ़ फेसबुक कवर फ़ोटो का।

साहित्य की सिगरेट पीते-पीते,
अधजले ठूँठों से
सर्वहारा की कालीन जला दी,
उसी कालीन को ओढ़े, मुँह छुपाए
मिल जाएँगे किसी कोने में — ये काले साए।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

(लेखक, व्यंग्यकार, चिकित्सक)

निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान 
पता -डॉ मुकेश गर्ग 
गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१ 

पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ 

लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं

प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से )
काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से 
काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से 
अंग्रेजी भाषा में-रोजेज एंड थोर्न्स -(एक व्यंग्य  संग्रह ) नोशन प्रेस से 

गिरने में क्या हर्ज है   -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से 

प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन  से 
देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 

सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन  अवार्ड  ” 

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📧 संपर्क: [email protected]

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