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कैपविहीन कलम का करुण क्रंदन

एक डॉक्टर जैसा व्यक्ति अपने क्लिनिक में बैठा है, सामने टेबल पर ढेर सारे बिना कैप के पेन फैले हैं। पास में एक चूहा एक पेन की कैप चुराकर भाग रहा है। पीछे सफाई कर्मचारी डस्टबिन में कैप फेंकती दिख रही है। डॉक्टर की जेब से स्याही बह रही है, और स्टाफ पीछे मंद-मंद मुस्कुरा रहा है।

कैपविहीन कलम का करुण क्रंदन

यूँ तो यह मानव शरीर स्वयं में ही दुखों की खान है, परंतु मेरा यह विशेष दुख उस माया-जाल जैसे संसार के एक सूक्ष्म, लगभग अदृश्य छलावे से है — एक ऐसा छलावा, जो मेरी दृष्टि में बार-बार तभी आता है, जब मैं किसी पेन को बिना कैप के देखता हूँ। उस क्षण मेरी चेतना तकनीकी विकास की उस सूक्ष्म-सी ख़ामी पर टिक जाती है। बरबस मुझे तकनीक के साथ कुछ बग्स आने की प्रबल संभावनाओं पर विश्वास हो जाता है।

थोड़ा-सा फ्लैशबैक में चलते हैं — जहाँ से लेखन सभ्यता की यात्रा आरंभ हुई थी।

जब आदिम मानव ने एक-दूसरे से संवाद स्थापित करने के लिए भाषा की नींव रखी, तब उसे पीढ़ियों तक टिकाए रखने के लिए लेखन की आवश्यकता पड़ी। पहले पत्थरों पर उकेरना, फिर लोहा-तांबे की कलमें, फिर स्याही और बांस की लकड़ी की कलमों का दौर, कलम और दवात की युगल जोड़ी का दौर और फिर वह समय आया जब कलम और दवात एक ही देह में समाहित हो गए। कलम के पेट के भीतर ही स्याही भरी जाने लगी और ऊपर से लगा दिया गया — एक ढक्कन।

यही ढक्कन — यानी कैप — ही सारे दुखों की जड़ है!

यूँ तो ढक्कन और ढक्कनियों से कॉलेज के समय में भी पाला पड़ा है। एग्ज़ाम में “ढक्कन लगने” के मायने अलग होते थे (यह परीक्षा में फेल हो जाने की सांकेतिक भाषा थी), और वो “ढक्कनियाँ” के लिए बड़े दुख की बात होती थी।

लेकिन आजकल जब किसी पेन को बिना ढक्कन के देखता हूँ, तो जो खोजी अभियान शुरू हो जाता है — वह हॉस्पिटल के सभी रूटीन प्रोग्राम्स से ज़्यादा वरीयता लिए होता है।

एक शेर कुछ यूँ बनता है —

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाए थे चार दिन,
दो लिखने में कट गए, दो कैप ढूँढ़ने में!”

यूँ तो इस पेन की समस्या को दूर करने के कई तरीके ईजाद हुए — आए रिफ़िल वाले पेन, चार-चार रिफ़िल वाले मोटे-मोटे खटकेदार पेन (बॉलपॉइंट्स), लेकिन बात नहीं बनी। इन्हें अपने हस्तलिपि को ख़राब करने का षड्यंत्र माना जाने लगा। मार्सहाब द्वारा अगर जेब में बॉलपॉइंट पेन दिख जाता तो पिटाई होना तय था। ख़ैर, परीक्षा के समय यही बिगड़ी हैंडराइटिंग कॉपियों को भरने और एग्ज़ामिनर को चकमा देने में काम आई… कि “लिख तो दिया है… अगर हिम्मत हो तो पढ़ के दिखाओ, नहीं तो मार्क्स देने पड़ेंगे।”

इन छुद्र श्रेणी के बॉलपेन की इज़्ज़त में थोड़ा इज़ाफ़ा करने रेनॉल्ड ब्रांड जैसे पेन आए और स्याही वाले पेन पीछे छूटते चले गए। हाँ, लेकिन स्याही वाले पेन अपने चमकदार डिज़ाइन, मोटाई और ब्रांड वैल्यू के साथ एक लक्ज़री वस्तु बन गए – जैसे आजकल के ब्रांडेड पेन (पार्कर, मॉंटेग्रापा इत्यादि), जो आईफोन जैसे रुतबे वाले हो चले हैं।

किसी को पेन उपहार देना कभी प्रतिष्ठा का प्रतीक था – साहित्य, क़ानून और न्याय का द्योतक। जितने भी थीसिस प्रोफेसर द्वारा साइन किए जाते हैं, वो शोधार्थी द्वारा आदरपूर्वक किसी लक्ज़री ब्रांड के पेन से कराए जाते हैं। फिर वही पेन ‘प्रोफेसर साहब’ को गिफ़्ट करने की रोज़मर्रा की परंपरा बन गई।

कलम के साथ कलम तोड़ दृश्य बॉलीवुड के स्थायी सीन बन गए, जब कोर्ट में सुनाई गई मौत की सज़ा तब तक मुकम्मल नहीं होती, जब तक न्यायाधीश कलम नहीं तोड़ देते। स्याही वाले पेन अब बस ऑटोग्राफ देने और दिखावे की वस्तु बनकर रह गए हैं।

परंतु असली क़यामत आई कैप वाले पेन के साथ।

जैसे सॉक्स की जोड़ियाँ जब चाहें तलाक़ ले लेती हैं, ठीक वैसे ही पेन और कैप की जोड़ी भी दो दिन से अधिक टिक नहीं पाती। ये दोनों “हम साथ-साथ हैं” जैसे वादों को तोड़ते हुए अचानक अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ते हैं।

मैं अपने चेंबर में बैठा रोज़ देखता हूँ कि पेन तो मिल जाता है, पर कैप नदारद। स्टाफ बेचारा परेशान। पूछने पर जवाब आता है — “सर, टीना (मेड) आती है, उससे कहा गया है कि फ़ालतू चीज़ें टेबल पर पड़ी हों तो उन्हें हटा दिया करे, तो उसे सबसे फ़ालतू यही कैप ही लगती है, इसलिए उसे डस्टबिन में डाल देती है!” पेन की कैप क्या गंदी टोपी हो गई जो इतनी फ़ालतू समझ ली गई! मुझे आश्चर्य हुआ…

इधर बिना कैप के पेन जेब में रख दो, तो स्याही ऐसे बहती है, मानो आत्महत्या कर रहा हो।

एक बार रहस्यमय ढंग से कैप ग़ायब होने लगे — हमने सीसीटीवी फुटेज खंगाले, तो पता चला कि एक चूहा रोज़ रात को टेबल पर आता और पेन की कैप ले जाता! शायद कैप को कुतरने में उसे सुकून मिलता है!

चोरी का विषय भी ग़ौरतलब है – मानता हूँ कि पेन चोरी आम बात है, पर बिना कैप वाला पेन चुराने की हिम्मत कोई नहीं करता! क्यों? क्योंकि उसे जेब में छुपाकर ले जाना कई बार मुसीबत बन जाता है। कब पेन स्याही छोड़कर आपकी नई कमीज़ और पैंट को दाग़दार बना दे, कह नहीं सकते!

पेन माँगते हैं कोई, तो वो भी कैप हटाकर अधनंगा पेन हमें थमा देते हैं — मानों मालूम हो कि पेन लेकर भूल जाने की एक नैसर्गिक प्रतिभा होती है आदमी में, उसी का तोड़ है ये!

पहले बैंकों में पेन को कैप समेत चैन से बाँधा जाता था। लोग सिर्फ़ पेन ही ले जाने लगे और कैप वहीं छोड़ जाते थे।

तो व्यवस्था ने भी हार मानकर अब अधनंगा पेन ही बाँधना शुरू कर दिया है — “ना रहेगा कैप, ना चुराया जाएगा पेन!”

बाहर स्टाफ मेरी कैपविहीन पेन को देखकर मंद-मंद मुस्कराता है — जैसे मेरी लाचारी का मज़ाक उड़ा रहा हो।

अतः मेरा यह विनम्र निवेदन है पेन निर्माताओं से:

  1. जितने पेन बनाएँ, उनका दस गुना कैप अलग से बनाएँ।
  2. कैप्स को एक्सेसरीज़ की तरह बेचिए — जैसे मोबाइल कवर, ताकि स्टाइल के साथ सुविधा भी मिले।
  3. अलग-अलग डिज़ाइन, रंग और मॉडल के कैप्स मिलने चाहिए — इससे कॉन्ट्रास्ट और युनिकनेस बढ़ेगी।
  4. यूनिवर्सल कैप का निर्माण हो — जो किसी भी पेन पर फिट हो जाए, चाहे ब्रांड कुछ भी हो।

अगर किसी के पास महँगे ब्रांडेड पेन खरीदने का सामर्थ्य नहीं भी है, तो कम से कम वह महँगे ब्रांड की कैप को जेब में रखकर पढ़ा-लिखा और गंभीर नागरिक तो दिख ही सकता है।

मुझे याद है — हमारे गाँव के ऊँचे बुआनुमा बुज़ुर्ग झीना कुर्ता पहनते थे — झीनी सी जेब में सौ-सौ के नोटों की गड्डियाँ जुगाली करती रहती थीं। नोटों की गड्डी को दिखाने का यही तरीका था — हमारे गाँव के एक नेता तो काग़ज़ों की गड्डी बनाते और उसके सामने एक सौ का नोट लगाकर अच्छी-ख़ासी गड्डी बना लेते, फिर जेब में रखते।

ख़ैर, पेन और मोबाइल के साथ ऐसा नहीं है — उसे फ्रंट जेब में रखो, वह जेब से थोड़ा बाहर दिख सकता है। आईफोन को आप उल्टा रखें तो उसका लोगो दिख जाएगा, पेन की तो कैप ही काफ़ी है यह दिखाने के लिए।

लेकिन आप पूरा पेन अफ़ोर्ड नहीं कर सकते और सिर्फ़ पेन की कैप ही आपको लगानी है, तो ज़ाहिर है झीने कपड़े की जेब में हरगिज़ न रखें — वरना भांडा फूट जाएगा।

आज भले ही पेन की जगह मोबाइल ने ले ली हो — पहले जब कहा जाता था – “Pen is mightier than sword”

लेकिन मेरे अनुभव से अब यह कहने का समय आ गया है —
“Cap is much mightier than the Pen!”

बिना कैप के पेन की हालत वैसी ही है जैसे बिना मंत्रालय के कोई सांसद या विधायक।


डॉ. मुकेश असीमित

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

(लेखक, व्यंग्यकार, चिकित्सक)

निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान 
पता -डॉ मुकेश गर्ग 
गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१ 

पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ 

लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं

प्रकाशित  पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से )
काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से 
काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से 
अंग्रेजी भाषा में-रोजेज एंड थोर्न्स -(एक व्यंग्य  संग्रह ) नोशन प्रेस से 

गिरने में क्या हर्ज है   -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से 

प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन )  किताबगंज   प्रकाशन  से 
देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित 

सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन  अवार्ड  ” 

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