मोगली आज़म (लघु नाटिका)
“मुगल-ए-आज़म के आधुनिकीकरण पर आधारित यह व्यंग्य-नाटिका सोलहवीं सदी के ठाठ-बाट को इक्कीसवीं सदी की भोंडी आधुनिकता से टकराते हुए दिखाती है—जहाँ बादशाह का दरबार दारू, डांस, ड्रामा और डिजिटल विद्रोह में बदल जाता है।”
“मुगल-ए-आज़म के आधुनिकीकरण पर आधारित यह व्यंग्य-नाटिका सोलहवीं सदी के ठाठ-बाट को इक्कीसवीं सदी की भोंडी आधुनिकता से टकराते हुए दिखाती है—जहाँ बादशाह का दरबार दारू, डांस, ड्रामा और डिजिटल विद्रोह में बदल जाता है।”
“दि फैमिली मैन का पहला सीज़न एक साधारण परिवार वाले आदमी और एक टॉप–लेवल गुप्त एजेंट की दोहरी ज़िंदगी का ऐसा चित्र खींचता है, जिससे थ्रिल और भावनाएँ बराबर टकराती हैं। नर्व गैस अटैक की साज़िश, पारिवारिक खिंचाव, सिस्टम की सच्चाइयाँ और श्रीकांत के भीतर का संघर्ष—सब मिलकर एक गहरी, रियलिस्टिक और तीखी कहानी बनाते हैं।”
Criminal Justice Season 2 बंद दरवाज़ों के भीतर दबी उन चीखों का सच खोलता है जिन्हें दुनिया अक्सर सम्मान के आवरण में छिपा देती है। यह एक ऐसे रिश्ते की कहानी है जहाँ प्रेम नहीं, नियंत्रण साँस लेता है।
“डॉक्टर के चेंबर में आज मरीजों से ज़्यादा भीड़ चंदा-वसूली दल की है। रसीद बुकें पिस्टल की तरह निकली हैं, तारीफ़ के गोले चल रहे हैं, और दिनभर की कमाई ‘सेवा’ के नाम पर समर्पित की जा रही है। ‘चंदा का धंधा’ न मंदा है, न गंदा—बस भारी डॉक्टर पर पड़ता है।”
“नोलन की ‘ओपेनहाइमर’ एटॉमिक बम का इतिहास नहीं, उस आदमी की नैतिक ग्लानि और दार्शनिक उथल-पुथल की कहानी है जिसने विज्ञान को देवत्व भी दिया और विनाश भी।”“यह फिल्म बाहरी विस्फोट नहीं दिखाती—यह उस Scientist के भीतर की आग दिखाती है, जिसे दुनिया ने ‘डिस्ट्रॉयर ऑफ वर्ल्ड्स’ कहा और जिसने खुद को जीवनभर कटघरे में खड़ा रखा।”
“भोजन चाहे जितना लजीज़ हो, पर यदि खाने वाले रौनकशुदा न हों तो सब बेकार—जैसे मुर्दे भोजन करने आ गए हों।”“साहबों, सूची में किसे बुलाना और किसे काटना—यही सबसे बड़ी भूख है। जो जितना बड़ा, उतना ही ज़्यादा भूखा।”
अब बधाई कोई रस्म नहीं—पूरी इंडस्ट्री है। दरवाज़ा बंद, खिड़की के पर्दे गिराकर लोग ‘डोंट मूव’ की मुद्रा में जम जाते हैं, मानो खुशी नहीं, छापा पड़ने वाला हो।”
"जितना सफेद बाल छुपाते हैं, वो उतनी ही तेजी से अपनी असलियत दिखाता है—जैसे व्यवस्था की कालिख सफ़ेदपोशों पर।" Excerpt 2:
लेखक लेख भेज देता है, पर जवाब का इंतज़ार ही उसका असली रोमांच बन जाता है। ‘यथासमय’ जैसे रहस्यमय शब्दों, संपादकों की कवि-सुलभ भाषा और अनंत प्रतीक्षा के बीच लेखक खुद ही व्यंग्य का विषय बन जाता है—पेपर पर नहीं, अपने मन की डायरी में।
नेता जी का यह इंटरव्यू लोकतंत्र के नाम पर एक शानदार हास्य-नाट्य है। हर सवाल का जवाब वे इतनी आत्मा-तुष्ट गंभीरता से देते हैं कि सच्चाई उनसे सावधान दूरी बनाकर खड़ी रहती है। बेहतरीन व्यंग्य, तीखे संवाद और कैमरे के सामने झूठ की अग्निपरीक्षा—सब कुछ यहाँ मौजूद है।