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हम आपका लेख छापेंगे… किसी दिन

कार्टून चित्र जिसमें एक चिंतित लेखक लैपटॉप पर मेल इनबॉक्स देख रहा है; स्क्रीन पर लिखा है – “हम आपका लेख छापेंगे… किसी दिन!” पास में कॉफी का कप, मेज पर बिखरे अधूरे लेख और कोने में “यथासमय” लिखा हुआ कैलेंडर। लेखक के चेहरे पर उम्मीद और थकान दोनों झलक रहे हैं।

“हम आपका लेख छापेंगे… किसी दिन!”

व्यंग्य लेख — वसीम आलम

कहते हैं, लेखक वह प्राणी है जो शब्दों में जीता है और “प्रकाशन” में मरता है।

लेखन भेजना तो आसान है — बस ईमेल खोलो, ‘संपादक महोदय’ लिखो, और उम्मीदों का एक सुंदर पैकेट अटैच कर दो।

लेकिन असली खेल शुरू होता है “भेजने” के बाद।

हर लेखक जानता है कि लेख भेजने के बाद जो खामोशी आती है, वह प्रेम पत्र भेजने के बाद की खामोशी जैसी होती है — दिल में उम्मीद भी, डर भी, और मोबाइल पर बार-बार ‘Inbox Refresh’ करने की आदत भी।

कभी-कभी संपादकीय विभाग से जवाब आता है

“आपका लेख अत्यंत रोचक है।

इसका उपयोग यथासमय किया जाएगा।”

अब यह ‘यथासमय’ शब्द ही लेखन-जगत का सबसे रहस्यमय शब्द है।

यह ‘यथासमय’ कब आएगा?

लेखक को नहीं पता, संपादक को नहीं पता — शायद खुद समय को भी नहीं पता!

कई बार तो लगता है कि ये ‘यथासमय’ वही जगह है जहाँ सारे अधूरे सपने और अप्रकाशित लेख जा कर बस जाते हैं।

कहते हैं, वहाँ एक विशाल गोदाम है — दीवारों पर टंगे हैं पत्रिकाओं के पुराने मेल, और टेबल पर रखे हैं उन लेखों के शीर्षक जो कभी छपने का सपना देखते-देखते बूढ़े हो गए।

लेखक बेचारा फिर भी हार नहीं मानता।

वह हर सुबह मेल चेक करता है, हर शाम सोचता है

“शायद आज मेरा लेख छप जाए…”

और जब महीनों बाद जवाब आता है

“हम प्रकाशन करते हैं… बाद में याद रखें।”

तो वह मुस्कुरा देता है — क्योंकि व्यंग्य का असली विषय अब खुद लेखक बन चुका होता है।

आजकल तो हालत यह है कि संपादकीय विभाग भी लेखक से ज्यादा ‘कवि-सुलभ’ हो गए हैं।

उनकी भाषा में मिठास, उत्तर में रहस्य और तारीख़ों में कल्पना।

एक संपादक तो बोले

“आपका लेख हमारे दिल को छू गया है।”

मैंने सोचा — अगर दिल को छू गया है तो छाप भी दो न!

पर शायद उनका दिल ‘प्रकाशन योग्य’ नहीं था।

कभी-कभी लगता है, लेख छपने से ज्यादा रोमांचक है लेख का इंतज़ार।

वो इंतज़ार जिसमें हर लेखक खुद से कहता है

“कहीं न कहीं, किसी पन्ने पर, किसी अंक में, मेरा नाम छपेगा…”

और जब तक वह दिन नहीं आता, तब तक लेखक ‘संपादकीय विभाग’ के जवाबों में कविता ढूँढता रहता है।

क्योंकि आखिरकार

लेख छपे या न छपे,

व्यंग्य तो खुद-ब-खुद छप जाता है… लेखक के मन में!

सादर,

वसीम आलम

ईमेल: [[email protected]]

पता: [मुसेहरी कैलगढ़ सिवान, बिहार(841438)]

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