“फेसबुक पर पोस्ट, चूल्हे पर माँ — यही है आज का ‘मदर्स डे’।”
लो जी, फिर वही सालाना त्यौहार लौट आया है, जिसे हम ‘मदर्स डे’ के नाम से जानते हैं। बाज़ार कार्ड्स और गिफ़्ट्स से अटा पड़ा है, और सोशल मीडिया पर मदर्स डे के हैशटैग ने धूम मचा रखी है। वह माँ, जो बच्चे को उसके जन्म से भी नौ महीने पहले जान लेती है, जिसने न जाने कितनी बार तुम्हारी सूसू-पोटी साफ़ की है, तुम्हारी लातें खाकर भी तुम्हें दूध पिलाना नहीं छोड़ा, जो खुद गीले में सो जाती है लेकिन बच्चे को सूखे में ही सुलाती है — उस माँ के लिए बस एक सेल्फी खींचकर सोशल मीडिया पर डाल दी जाती है, और फिर घंटों लाइक्स और कमेंट्स बटोरने में गुज़ार दिए जाते हैं।
वाह रे तुम्हारा माँ के लिए प्रेम! जिसकी क़ीमत बस एक सेल्फी और सोशल मीडिया की एक पोस्ट में? इसी में सारी ममता समेट दी? वही माँ, जिसने ज़िंदगी एक बंधुआ मज़दूर की तरह, बिना वेतन के काम करते हुए गुज़ार दी — जिस पर साहित्यकारों और रचनाकारों ने दिल खोलकर लिखा है, लेकिन सच पूछो तो कभी दो घड़ी वक्त भी बिताया है अपनी माँ के साथ? क्या कभी उसके हाथों को अपने हाथों में लेकर कुछ अपनेपन के मीठे बोल कहे हैं? जो उसके लिए काफी हैं — उसके निस्वार्थ प्रेम के बदले में।
और माँ? उसे कहाँ पता कि आज उसका दिन है! उसके लिए तो हर दिन संघर्ष का दिन है — और अपना मातृत्व लुटाने का दिन। देख लो, वह अभी तुम्हारे लिए खाना बना रही होगी या मंदिर में आरती करती हुई तुम्हारी सलामती की प्रार्थना कर रही होगी। दिन भर की दौड़-धूप में न सर्दी उसे छूती है, न गर्मी — उसे तो बस अपने बच्चों की ख्वाहिशें पूरी करनी हैं।
माँ, जिसने हमेशा सबसे आख़िरी रोटी खाई — बची तो ठीक, नहीं तो पानी पीकर सो गई। उसके हिस्से में हमेशा सबसे बाद की रोटी, सबके बाद बचे हुए कपड़े, और सबसे आखिर की खुशी ही आती है।
जिसने अपने गहने गिरवी रखकर तुम बच्चों की पढ़ाई करवाई, पुआल की तरह खुशियाँ बटोरीं और एक पहाड़ सी ज़िंदगी को लांघती रही। आँगन में देर तक बतियाती माँ, सुबह अंधेरे में चक्की पीसती, मक्खन बिलोती, गाय-भैंस को चारा खिलाती, चारे की गठरी सिर पर रखती, छानें थपती, चूल्हे में फूंकनी से फूंक देती — वही माँ, जो रोटी के ऊपर ढेर सारा मक्खन परोसती है। जिसकी हर दिन की शुरुआत अपनों की खुशी से होती है, और अंत उसी की थकान से।
न जाने कितनी बार माँ ने अपनी ख्वाहिशें हमारी छोटी-छोटी ज़रूरतों के आगे न्यौछावर कर दीं। उसके चेहरे पर हमेशा एक थकान भरी मुस्कान होती है, जो बिना शिकायत के हमारे सपनों को पंख लगाती है।
वह माँ, जो सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक संपूर्ण जग है। जिसने हमारी हर छोटी-सी छोटी खुशी के लिए कभी बाप से मिन्नतें कीं, कभी अपने हिस्से की खुशियों में कटौती की। जिसकी ममता में इतनी गहराई है कि जीवन की हर कठिनाई उसके सामने बौनी लगती है। ऐसी माँ को सिर्फ एक दिन का सम्मान नहीं, बल्कि हर दिन का समर्पण चाहिए।
बाज़ारीकरण के इस दौर में रिश्तों का भी बाज़ारीकरण हो गया है। मॉडर्न ज़माने में इन रिश्तों में जो बदलाव आया है, वह हमारे बचपन की यादों से बिलकुल मेल नहीं खाता।

वो माँ ही थी — जो बेलन से भी संस्कार ठोक देती थी और लड्डू से तंदुरुस्ती!”
माँ के ताने — जो बचपन की सबसे प्यारी यादों में दर्ज हैं — आज भी वैसे ही ताज़ा हैं। बाकी सब कुछ बदला होगा, लेकिन माँ के ताने शायद आज भी वैसे के वैसे ही हैं। इधर बेटा माँ के साथ एक सेल्फी लगाकर मदर्स डे की पोस्ट फेसबुक पर डाल रहा है, और उधर माँ का ताना — “सारा दिन फेसबुक में घुसा रहता है! पढ़ाई-लिखाई भी कर लिया कर। एग्ज़ाम सर पर हैं, फिर रोएगा बैठकर!”
याद है बचपन में, जब एक निवाला तुम्हें खिलाने के लिए माँ को न जाने कितनी बार साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनानी पड़ती थी? दंड के रूप में कभी पुलिस का डर, कभी — “आने दो, पापा से पिटवाना है तुम्हें!” दाम के रूप में — “इस बार मेले में कुल्फी खिलाने का वादा”, और भेद के रूप में — “पड़ोस का बच्चा तुम्हारी उम्र का है, देखो दूध पीकर मोटा-ताज़ा हो गया है — तू रह जाएगा फिसड्डी!” ये सभी हथियार अपनाए जाते थे। माँ का चिमटा, बेलन और पापा की चप्पल — ऐसे हथियार थे जो होममेड टूल्स थे, जिनकी सहायता से बच्चों में संस्कार कूट-कूटकर भरे जाते थे।
बाहर गली में खेलने गए तो माँ का आवाज देना — “आ घर, बताती हूँ तुझे!” आज तक माँ ने नहीं बताया वो राज जिसे बचपन से कहती आई है। आजकल तो अलार्म क्लॉक में स्नूज़ का विकल्प होता है, पर उस समय मम्मी का — “कितनी देर तक पड़ा रहेगा पलंग पर? देख, सूरज माथे पर चढ़ आया है!” और इसी के साथ चादर खींच कर, झाड़ू की एक हल्की सी सेसी मार — सबसे बढ़िया अलार्म क्लॉक हुआ करता था।
फिर नहाने के लिए मिन्नतें करना — वहाँ भी साम, दाम, दंड, भेद की नीति चलती थी — “नहा ले, काला हो जाएगा, कोई शादी नहीं करेगा! चाय मत पी, काला हो जाएगा!” एक माँ का चश्मा, पता नहीं कैसा आँखों में चढ़ा होता है कि बेटा चाहे खा-पीकर बिल्कुल गोल-मटोल हो गया हो, लेकिन माँ के मुँह से यही निकलता है — “सूख के लकड़ी हो गया है!”
और आज भी माँ को सुनता हूँ तो पत्नी से यही कहती मिलेगी — “अरे, इसको कुछ लड्डू बना दे, ड्राई फ्रूट के। इतना दिमाग का काम होता है डॉक्टरी — बहुत ज़रूरी है इसे ठंडा रखना!”
आज भी फ़ोन पर माँ का पहला वाक्य यही होता है — “खाना खाया तूने? सुन, पहुँचते ही फ़ोन करना।” इस एक वाक्य में ही माँ की ममता की गहराई समझ में आ जाती है।
वैसे माँ के लिए हर दिन समर्पित होना चाहिए। माँ इस जीवन की सर्वश्रेष्ठ कृति है। कहते हैं ना — भगवान ने सृष्टि बनाई और फिर उसके पालन के लिए हर जगह नहीं पहुँच सकते थे, इसलिए उन्होंने माँ की रचना की। सच ही तो कहा है — अगर मदर्स डे सचमुच मनाया जाता, माँ की अहमियत होती, तो वृद्धाश्रम नहीं खुलते।
इस मदर्स डे पर, एक सेल्फी से आगे बढ़कर उस माँ के लिए कुछ विशेष करने का विचार कीजिए — जिसने आपको इस योग्य बनाया कि आप दुनिया में अपना स्थान बना सकें।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
(लेखक, व्यंग्यकार, चिकित्सक)
निवास स्थान: गंगापुर सिटी, राजस्थान
पता -डॉ मुकेश गर्ग
गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१
पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
प्रकाशित पुस्तक “नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक” (किताबगंज प्रकाशन से )
काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से
काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से
अंग्रेजी भाषा में-रोजेज एंड थोर्न्स -(एक व्यंग्य संग्रह ) नोशन प्रेस से
–गिरने में क्या हर्ज है -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से
प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन ) किताबगंज प्रकाशन से
देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित
सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन अवार्ड ”
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