पंडित दीनदयाल उपाध्याय : साहित्य और एकात्म मानववाद

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 25, 2025 शोध लेख 0

Pandit Deendayal Upadhyaya’s philosophy of *Integral Humanism* placed the individual at the heart of politics, economics, and society. For him, development was not about statistics but about dignity, harmony, and the upliftment of the last person—*Antyodaya*. Through writings, journalism, and organization, he built a framework where state, society, and individual worked as partners. His legacy reminds us that true progress is human-centered, not power-centered.

चलो बुलावा आया है-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 25, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"चलो बुलावा आया है… दिल्ली ने बुलाया है। नेता, लेखक, कलाकार—सब दिल्ली की ओर ताक रहे हैं। दिल्ली एक वॉशिंग मशीन है, जहां दाग तक धुल जाते हैं। 'दिल्ली-रिटर्न' टैग लगते ही भाव बढ़ जाता है, पूँछ लग जाती है, मक्खियाँ तक डर जाती हैं। बस किसी तरह दिल्ली पहुँचना है—चाहे बुलावा आए या न आए।"

गली में आज चाँद निकला-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 25, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"गली में आज चाँद निकला... पर यह कोई आसमान वाला चाँद नहीं, बल्कि टिकट की दौड़ में फँसा हुआ नेता चांदमल है। चाँदनी बिखेरने का दावा करता है, पर अपने ही अंधेरे में डूबा हुआ है। आलाकमान की चौखट पर सब चाँद कतार में खड़े हैं—कौन चमकेगा, कौन डूबेगा, बस यही फिक्र है। जनता सखी अब भी झरोखे से झांक रही है, कि कब उसके हिस्से का चाँद दीदार देगा। लेकिन सखी, याद रखो—ये सब चाँद चार दिन की चाँदनी वाले हैं।"

बुरा जो देखन मैं चला-व्यंग्य रचना

Vivek Ranjan Shreevastav Sep 24, 2025 व्यंग रचनाएं 0

आज का समाज मुखौटों के महाकुंभ में उलझा है—जहाँ असली चेहरा धूल खाते आईने में छिपा रह गया और नकली मुस्कान वाले मुखौटे बिकाऊ वस्तु बन गए। 'सच्चिदानंद जी की आईने की दुकान' सूनी है क्योंकि लोग सच्चाई से डरते हैं। भीड़ 'सेल्फी-रेडी स्माइल' और 'सोशल मीडिया संजीदगी' खरीदकर खुश है। असल चेहरा देखने की हिम्मत अब दुर्लभ साहस है।

The Madness of Being First – “Sabse Aage Honge Hindustani”

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 23, 2025 Humour 0

“Being first is our birthright—whether it’s buying the first iPhone, overtaking an ambulance, shoving in temple queues, or even rushing ahead in a funeral procession. Indians don’t just live life; they race through it with sabse pehle syndrome. Mount Everest can wait—our summit is the top of every line.”

दिवाली के बाद-हास्य व्यंग्ग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 23, 2025 व्यंग रचनाएं 0

दिवाली के बाद—यह चार शब्द किसी भी अधूरे काम, टली हुई ज़िम्मेदारी और बचने की कला का ब्रह्मास्त्र हैं। शादी से लेकर कर्ज़ चुकाने तक, सुबह की वॉक से लेकर किताब छपवाने तक, सबके लिए यही बहाना! दिवाली से पहले सफाई-रंगाई के पटाखे फूटते हैं और दिवाली के बाद उधारी-बिल-किश्त के बम। सच कहें तो असली फुलझड़ी बहानों की ही होती है, जो हमेशा चमकती रहती है।

नवदुर्गा-ताण्डव स्तोत्रम्

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 22, 2025 Important days 0

नवदुर्गा ताण्डव स्तोत्रम् देवी शक्ति के नौ स्वरूपों का अद्भुत संगम है—शैलपुत्री की स्थिरता से लेकर सिद्धिदात्री की पूर्णता तक। यह स्तोत्र न केवल विनाश और सृजन की गाथा है, बल्कि भक्ति, तप, मातृत्व और करुणा का अलौकिक संगीतमय चित्र भी है।

हिंदी का ब्यूटी पार्लर

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

हिंदी भाषा को सरकारी दफ़्तरों और आयोगों में किस तरह से बोझिल और जटिल बनाया गया है, जिससे वह अपनी सहजता और सुंदरता खो रही है।

WhatsApp के ग्यानी और बहस का जाल

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

WhatsApp के ग्यानी और बहस का जाल कभी-कभी लगता है कि किसी “व्हाट्सऐप फॉरवर्डीये ज्ञानी” से बहस करना ऐसा है जैसे पानी में रेत की मुठ्ठी बांधना—जितना कसोगे, उतना हाथ खाली। यह बहस आपके बौद्धिक स्तर को ऊपर नहीं उठाती; उल्टा उसे न्यूनतम तल तक खींच ले जाती है। ऐसे ज्ञानी प्रायः हर विषय में […]

अंगूठे का दर्द,अंगुली नहीं जानती

Pradeep Audichya Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"अंगूठा डिजिटल युग का असली मुखिया है—स्याही वाले निशान से पहचान तक और मोबाइल की स्क्रीन पर टाइपिंग तक। लेकिन दुख यह है कि अंगूठे की जिम्मेदारी जितनी बढ़ी, सम्मान उतना नहीं मिला। उंगलियाँ अंगूठियों से सजती-संवरती रहीं, और अंगूठा दर्द झेलता रहा। उसका दुख वही है—‘अंगूठे का दर्द, अंगुली नहीं जानती।’ यही व्यंग्य है कि पहचान भी वही तय करे और बलिदान भी वही दे।"