मैं तेरी ही कब हो गई-कविता रचना

Vidya Dubey Dec 1, 2025 हिंदी कविता 2

“प्रेम की मदहोश धड़कनों में खोई एक आत्मा—जिसे न जाने कब अपने ही भीतर से किसी और का उजाला छू गया। ‘मैं तेरी ही कब हो गई’ में विद्या दुबे प्रेम की उस सूक्ष्म अनुभूति को रेखांकित करती हैं जहाँ व्यक्ति स्वयं से सरककर प्रिय की परछाई बन जाता है, अनकहे जादू में डूबता चला जाता है।”

व्यंग्य—कल, आज और कल : हिंदी व्यंग्य का व्यापक परिप्रेक्ष्य और बौद्धिक पुनर्स्थापन

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 Book Review 0

“विवेक रंजन श्रीवास्तव की ‘व्यंग्य—कल, आज और कल’ हिंदी व्यंग्य को एक गंभीर, बहुस्तरीय और विश्लेषणात्मक विधा के रूप में स्थापित करती है। यह पुस्तक बताती है कि व्यंग्य केवल हँसी की सतह नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना की गहरी परतों तक जाने वाली विचार-शक्ति है, जो अतीत, वर्तमान और भविष्य—तीनों को जोड़ती है।”

समोसे का सार्वभौमिक सत्य

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“समोसा सिर्फ नाश्ता नहीं—भारतीय समाज, राजनीति और प्रेमकथाओं का सबसे स्थायी त्रिकोण है। डॉक्टर से लेकर दफ़्तर और दाम्पत्य तक, हर मोड़ पर यह तला-भुना फल अपना प्रभाव दिखाता है। बर्गर रोए या बाबू सोए—पर समोसा आए तो सब जग जाएं! यही है समोसे का सार्वभौमिक सत्य।”

बेग़म अख़्तर : सुरों की मलिका

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 India Story 0

बेग़म अख़्तर—एक नाम जो सिर्फ़ संगीत नहीं, दर्द, रूह और नफ़ासत का दूसरा नाम है। फैज़ाबाद की एक हवेली से शुरू होकर लखनऊ की महफ़िलों तक पहुँची यह आवाज़ किसी उस्ताद की देन नहीं, बल्कि टूटे हुए बचपन और संघर्षों से पैदा हुई कशिश का चमत्कार थी। ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को उन्होंने ऐसी आत्मा दी कि वे सिर्फ़ गाने न रहकर अनुभव बन गए। शादी के बाद संगीत छिन गया तो depression घेर लिया, पर जब उन्होंने फिर गाना शुरू किया—वे बेग़म अख़्तर बन गईं। उनकी ग़ज़लें आज भी वही हलचल जगाती हैं—जैसे कोई भूली हुई याद अचानक सांस ले उठे।

सत्यजीत रे: वह आदमी जिसने सिनेमा की आँखों में आत्मा भर दी

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 Cinema Review 0

सत्यजीत रे केवल निर्देशक नहीं थे—एक दर्शन, एक दृष्टि, एक शांत चमत्कार। उनकी फिल्मों ने सिनेमा को कहानी से मनुष्य बना दिया और दुनिया को नया देखने की कला सिखाई।

तंदूरी रोटी युद्ध: वीर तुम डटे रहो

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 28, 2025 Poems 0

“शादी के पंडाल में तंदूरी रोटी अब सिर्फ़ खानपान नहीं रही, पूर्ण युद्ध बन चुकी है। दूल्हे से ज़्यादा चर्चा उस वीर की होती है, जो तंदूर से सटकर खड़ा रहता है और दो रोटी के लिए इतिहास लिख जाता है। ‘वीर तुम डटे रहो’ इस जंग के मोर्चे पर खड़े हर भूखे शौर्यवान की व्यंग्य-गाथा है।”

पार्टी’: एक बंगले में कैद पूरा समाज

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 28, 2025 Cinema Review 0

"गोविंद निहलानी की ‘पार्टी’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, उच्चवर्गीय बौद्धिकता का एक्स-रे है। चमकते बंगले में इकट्ठा लोग साहित्य से ज़्यादा एक-दूसरे की पॉलिश चमकाते हैं। अनुपस्थित कवि अमृत की परछाईं पूरे माहौल पर भारी है, और उसका एनकाउंटर इस भीड़ की संवेदनहीनता को नंगा कर देता है।

पुरुष सूक्त और सृष्टि–चिन्तन : पर्यवेक्षक की चेतना में जन्मा ब्रह्मांड

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 27, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

“पुरुष सूक्त हमें बताता है कि ब्रह्मांड कोई जड़ मशीन नहीं, बल्कि एक ऐसे प्रेक्षक की चेतना में जागता हुआ दृश्य है, जिसके ‘सहस्र सिर’ अनगिनत जीवों की आँखों से दुनिया को देख रहे हैं।” “जैसे ही प्रेक्षक देखता है, संभावनाएँ ठोस रूप ले लेती हैं — यही वह दार्शनिक सेतु है जो क्वांटम भौतिकी और संख्य दर्शन को जोड़ता है।” “वेदांत का पुरूष कहता है — ब्रह्मांड 25% दृश्य, 75% अदृश्य है; और यह अदृश्यता ही चेतना का विशाल क्षेत्र है जहाँ से प्रकृति अपनी अभिव्यक्ति पाती है।” “सृष्टि तब जन्म लेती है जब चेतना प्रकृति को ‘देखती’ है — वही क्षण है जहाँ विज्ञान, दर्शन और अध्यात्म एक बिंदु बनकर खड़े हो जाते हैं।”

हिरण्यगर्भ का रहस्य : सृष्टि से पहले के अंधकार में चमकती एक स्वर्ण-बूँद

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 27, 2025 Darshan Shastra Philosophy 0

“जब कुछ भी नहीं था—न आकाश, न पृथ्वी—तब भी एक चमकता बीज था, ‘हिरण्यगर्भ’। यही वह आदिम स्वर्ण-कोष है, जहाँ ब्रह्मांड समय और स्थान बनने से पहले ही संभावनाओं की तरह छिपा पड़ा था, और जहाँ से सृष्टि की पहली धड़कन जन्मी।”

साठ साल का आदमी-कविता रचना

Prahalad Shrimali Nov 26, 2025 Hindi poems 0

साठ साल का आदमी दरअसल चलता-फिरता पेड़ है—अनुभव की जड़ों में धँसा, सद्भाव की शाखों से भरा और भीतर अब भी एक प्यारा बच्चा लिये हुए। उसकी बातें कभी जुगाली लगती हैं, पर उनमें समय का सच और जीवन का रस बहता है।”