कई बार लोग पूछते थे – बताओं दुनिया की पाॅपुलेशन कितनी? तो हमारा जवाब होता था – मात्र तीन। फिर हम उन्हें कवित्त में गणित समझाते :-
एक तो मैं, और एक मेरी बीबी,
आधा मेरा बच्चा आधा मेरा टीवी ।
नहीं लुभाता कोई सपना
अपना घर स्वर्ग सजीला।
इस तरह बिना तनाव के आराम से नौकरी करते साठ साला यानि जीवन का दो-तिहाई भाग बीत गया।
रिटायरमेंट से पहले छोटी मोटी खर्चें वाली तकलीफें जरुर आयी पर भाई लोगों के सहायता व साथ से निभ गयी। रिटायरमेंट के बाद तो इतना पैसा मिला कि एकबारगी ये विचार आया कि अब तो तकली़फ जैसी वारदात को ढूंढते रह जाओगे।
आजकल अपना तो मत है कि “तकलीफ़” शब्द को सेवा निवृतों की डिक्शनरी से हटा देना चाहिए। बिना मेहनत मजदूरी, महीना बीतते ही खाते में पेंशन जमा। उपर फ्री में इलाज वो भी स्वर्ग जैसे साफ सुथरे प्राइवेट हॉस्पिटल में। जहां फीमेल नर्स बाइसा मीठा ही मीठा बोलें। रुपयों की चपत लगे तो सरकार पर। हमें क्या?
फिर और क्या चाहिए !
थोड़ी ठीक तनख्वाह हो व ऊपरी आय वाली सरकारी नौकरी,साथ में पुरखों से बना-बनाया अदद मकान मिल जायें तो फिर ज़िन्दगी में किसी की भी कमी नही रहती और वैसे तो सांसारिक कामनाएं तो चक्रवर्ती महाराज दशरथ की भी पूरी नही हो पायीं थी। इस कामना रुपी सोच का पार नहीं। ज्यादा पैसा कमाकर कोई अमर तो नही हुआ और न ही सबसे ज्यादा जिया। मरते तो सभी है कोई थोड़ा पहले तो कोई थोड़ा बाद में।
नौकरी के दौरान कभी भी सूर्योदय से पहले नहीं उठे, सूर्य उगने के बाद ही अपनी चाय भी उगती व उबलती थी। ठेठ सुबह की छ: बजे की गर ट्रेन पकड़नी हो तो टाईम टेबल को टारगेट मान रेल मंत्री से लेकर स्टेशन मास्टर तक को कोसने के बाद ही यात्रा प्रारम्भ होती थी।
मित्र लोग इस बहाने सूर्य वंशी के नाम से भी बुलाते थे। रिटायरमेंट के बाद पैदल चलना तो भूल से गये। पड़े पड़े थुलथुली वजन में और वृद्धि होने लग गई। एक दिन पत्नी के उलाहने से व्यथित हो कमर कस ली कि सूर्य वंशी नाम की उपाधि को झुठलाने के लिए कल से मुंह अंधेरे उठ, घूमने जाने और योगादि- कसरत करने का बीड़ा उठा लिया। एकबारगी तो शरीर ने विद्रोह किया पर ज्यों ज्यों समय गुजरता गया, भ्रमण का अलग सा आनंद आता गया। सुबह-सुबह मोटे ताज़े स्त्री पुरुषों को शरीर से चिपके कपड़ों में ‘अंग उछाल’ तरीके से कूदते फांदते देखकर लगा कि ज़िन्दगी में आलस्य के वशीभूत होकर सुंदर नज़ारे तो खो दिये। बार बार एक गीत याद आता-:
‘कोई लौटा दे मेरे जवानी वाले दिन ‘
अब तो हालात ऐसे हो गये कि आराम से नौकरी वाले गुजरें दिनों को कोसने सिवाय कुछ नहीं बचा। समय तो उल्टा चलता नहीं हम ही उल्टे चले तो ही कोई बात बनेगी!
एक और नया अनुभव मिला। भ्रमण में तो हेलो हाय के साथ केवल चक्षु सुख था। कामनाएं तो बढ़ने के लिए ही होती है सो सुबह-सुबह घूमने के साथ कसरत करने का शौक चर्राया। जिन पिलपिले हाथों ने कागजों को स्याह सफेद रंग कर अनेक अफसरों- ठेकेदारों को नाकों चने चबवा दिए थे, अब वे कमजोर से नजर आने लग गए सो दोनों पांव सशरीर जिम तरफ अपने आप मुड़ गये।
वहां के नजारे देख,आंखें तक चुंधिया गईं। जवां लड़के-लड़कियों का झुंड टाइट कसरती जामा, यानि न्यून कपड़ों वाली ड्रेस को पहनें मशीनों पर जो जोर कर रहा था। अब यह नया स्थान हमारे आकर्षण का केन्द्र बिन्दु बन गया।
कहते है कि जब रोम में रहते हो रोमन जैसा व्यवहार करो तो हम भी माहौल को देख रोमांस के वशीभूत हो, हाथों हाथ दो तीन विदेशी कंपनियों के बने कसरती ड्रेस खरीद लाये। हालांकि पत्नी ने उस समय कुड़कुड़ाते टोका जरुर था,पर जवानियों से ख्याली इश्क के चक्कर में अनसुनी कर गये थे।
एकबारगी समझ नही आ रहा था कि आजकल की जवानियों का छरहरा पन कहां खो गया। दुबली और पतली काया वाली कोई मोहतरमा दिखी ही नही। सतयुग में तो पृथ्वी पर पापों का भार था, पर आजकल महिलाओं के मोटापे से पृथ्वी पर भार बढ़ गया है। हो सकता है कि महिलाओं के बढ़ते वज़न से एक दिन पृथ्वी रसातल में समा जाय।
जवानी में तो एक खूंटे से बंधे रहे पर उम्र के ढलान में बत्तीस मोहरों वाली शतरंज की बिछी बिछाई बिसात मिल गयी। सौभाग्य वश ट्रेनर भी महिला मिली। उसको मुझसे कोई खतरा नहीं था और मुझे तो स्पर्शी आनंद ही आनंद था। सिर पर हाथ रख स्वयं को ही “शतायु भव” का आशीर्वाद दे दिया, यानि जीवन काल के भोग-उपभोग का लक्ष्य अब सौ वर्षों तक बना रहे।
पहले कभी पसीना नहीं बहा पर अब जबसे जनाना ट्रेनर संपर्क में आई तबसे चोटी से एडी तक पसीना ही पसीना। उम्र के इस पड़ाव में पसीना गुलाब तो था नहीं, इसलिए खुशबुदार डिओडेरेंट खरीद की वज़ह से हमारा दैनिक खर्च बढ़ गया। ट्रेनर बाई सा का आंखें मटकाते हुए मुस्कान के साथ सर कहना भी परमानंद की स्थिति में ला देता था। वह समझ तो गयी थी कि बूढ़े पर इश्क का भूत चढ़ा हुआ है पर उसके लिए रिस्क भी तो शून्य माफिक था।
एक बार जिम की एक मशीन पर नौजवान पड़ोसिन को देख, शेखी बघारने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही भार पर मेहनत की पर उस दिन किस्मत ने साथ दे दिया। अच्छा हुआ जो मशीन ही जाम हो गयी। सो बच गये अन्यथा फिर कभी जिम में आने लायक नही रहते। बाद में मालूम हुआ कि यह नाजुक मशीन नाजुक औरतों के लिए इन्स्टॉल करवायी गयी थी। उस मशीन पर पुरुष तो वैसे ही निषेध थे जैसे जनानी टाॅयलेट में पुरुष।
अच्छा है कि हमारे देश में आठ और साठ साल वाले को समान माना जाता रहा है। ये शब्द उस दिन ढाल बन गये। एक वाचाल जनानी ने तो कह दिया “चढ़ी जवानी बूढ़े नूं” । वैसे महिलाओं के किए कमेंट्स कभी बुरे नही लगे, मेरे लिए हमेशा मोटीवेशलन रहे।
दिन प्रतिदिन हमारी प्रभाती कसरत के कारण बिना प्रोटीन पाउडर लिए शरीर सौष्ठव तो बढ़ा ही कि मुंह पर ललाई भी दिखने लग गईं। जैसे चढ़ती जवानी में हंसी आने का कारण नही होता, वैसे हम भी उसी दरिया में गुलांचिया खाने लग गये । चेहरे पर अकारण मुस्कराहट बस सी गई। जिम के दृश्यों को याद करने से दोपहर, शाम, रातें तक ज्यादा मायावी महसूस होने लग गयी थी। अब तो जीवन का एक ही लक्ष्य रहा कि अगली सुबह कब हो और बस तुरंत ही जिम पहुंचे!
कहते है- अति सर्वत्र वजर्येत्। चेहरे की ललाई व होंठों पर आती जाती अकारण मुस्कराहट ने पत्नी का हाजमा बिगाड़ दिया। किस्मत खराब थी सो कई दिनों से उनके व्यवहार परिवर्तन को समझ नहीं पाये। उनके हल्के-फुल्के तानों को कुछ अधिक ही हलकान में लेना सौ साला भविष्य को उजाड़ गया।
बाद सूत्रों से ज्ञात हुआ कि पत्नी को पतिव्रता धर्म के विरुद्ध भड़काने में कुछ ससुराल पक्ष के ईर्ष्यालु जासूसों की महत्ती भूमिका थी। “इस बुढ़ापे में फिर हाथ मलती रह जाओगी” इस वाक्य ने घर में सुनामी व बाहर भूकंप रच दिया।
हम तो न समझे पर वो सब समझ गई कि अब केवल दाल में काला नहीं है। इस उम्र के पड़ाव में, मुंह काला हो न हो, संपूर्ण दाल ही काली होने जा रही है। पत्नी को कालेपन के विरुद्ध भड़काने में उस महंगें ट्रेक सूट और भबकेदार डियोडोरेंट का भी अच्छा खासा रोल था।
एक दिन राहू काल वाले चौघड़िया में पत्नी द्वारा घनघोर गर्जना हुई:- “सुबह घूमने जाना है तो हम भी साथ चलेंगे”! जैसे द्वापर युग तक आकाशवाणियां हुआ करती थी और जिम जाने पर तो कठोर शब्दों में यू एन ओ वाला वीटो हो गया।
सती नारीयों की हठधर्मिता के आगे देवता भी नतमस्तक हो गये जो एक निरीह सेवा निवृत्त की कहाॅ औकात कि वह सामना कर सके। पत्नी के हृदय में ईर्ष्या रुपी जहर ठसाठस मात्रा में भरा था सो “हम स्वस्थ तो तुम सदा सुहागिन” वाली दलील भी अकेले घूमने जाने व जिम जाने के वीटो को निरस्त नहीं कर पाईं।
वह जानती थी कि हर बैंक खाते में आधे की हकदार हूं और यह भी उन्हें ज्ञात था कि आधी पेंशन तो सरकार अपने आप देती है बस वो….. सूचना मिल जाए।
आखिर हमारे जीवन के बचे खुचे भविष्य को सुधारने की सोच ने एक ही निर्णय दिया कि सरेंडर में ही सार है। चढ़ाव के साथ उतार, प्रकृति का नियम है पर हमारे जीवन में उतार कुछ जल्द ही आ गया। अकेले घूमने जाना नहीं था और साथ जाना जमता नही था सो जब मैच में उतरना ही न हो विड्रावल ही रास्ता बचता है। पुनर्मूषको भव में विश्वास कर, जैसे थे, वाले सूर्यवंशी होकर प्रभात काल में पुनः लिहाफानंदी हो गये।
