समोसे का सार्वभौमिक सत्य

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 29, 2025 व्यंग रचनाएं 0

“समोसा सिर्फ नाश्ता नहीं—भारतीय समाज, राजनीति और प्रेमकथाओं का सबसे स्थायी त्रिकोण है। डॉक्टर से लेकर दफ़्तर और दाम्पत्य तक, हर मोड़ पर यह तला-भुना फल अपना प्रभाव दिखाता है। बर्गर रोए या बाबू सोए—पर समोसा आए तो सब जग जाएं! यही है समोसे का सार्वभौमिक सत्य।”

चढ़ावा-प्लाज़ा: जहाँ देवता भी टोल टैक्स लेते हैं

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 5, 2025 व्यंग रचनाएं 0

सड़कों पर “देवता-तोल” का नया युग — जहाँ खतरनाक मोड़ और पुल नहीं, बल्कि चढ़ावे की रसीदें आपकी जान बचाती (या बिगाड़ती) हैं। सरकार टेंडर दे, देवता ठेका ले — वाह री व्यावसायिक भक्ति!

देवलोक का अमृतकाल बनाम मृत्युलोक का पतनकाल

डॉ मुकेश 'असीमित' Nov 4, 2025 व्यंग रचनाएं 0

देवराज इंद्र की सभा के बीच अचानक नारद मुनि माइक्रोफोन लेकर प्रकट होते हैं और देवताओं को बताते हैं कि अब असली अमृतकाल मृत्युलोक में चल रहा है—जहाँ मानव ने देवों से भी बड़ी कला सीख ली है, रूप बदलने की। एक ओर देवता नृत्य और सोमरस में मग्न हैं, तो दूसरी ओर मानव मोबाइल कैमरे से लाशों की तस्वीरें खींचकर “मानवता शर्मसार” का ट्रेंड बना रहा है। व्यंग्यपूर्ण संवादों और पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से यह रचना बताती है कि जब मानवता ही मर जाए, तो अमरत्व भी व्यर्थ है।

दोस्ती की सीमा और फेसबुक का परिवार नियोजन कार्यक्रम

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 30, 2025 व्यंग रचनाएं 0

फेसबुक अब भावनाओं पर भी पाबंदी लगाने वाला पहला सोशल प्लेटफॉर्म बन गया है। पाँच हज़ार दोस्त पूरे होते ही दिल कहता है “Accept,” और सिस्टम कहता है “Limit Reached!” अब दोस्ती भी जनसंख्या नियंत्रण का शिकार हो गई है — और हम सब “Friends in Waiting” की सूची में खड़े हैं।

कलियुग का रावण-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Oct 2, 2025 व्यंग रचनाएं 1

अख़बार ने लिखा — इस बार रावण 'मेड-इन-जापान'! पुतला बड़ा, वाटरप्रूफ, और दोनों पैरों से वोट माँगने तैयार। हम रोते नहीं, तमाशा देखते हैं: रावण की लकड़ी दूर से चमकती है, बच्चे खिलौने समझकर गले लगाते हैं, आयोजक स्टेज पर तालियां खाते हैं। असली रावण तो अंदर छिपा है — वह मुस्कुराता है और हर साल नया रूप धारण कर वोट, पैसा और शो भुनाता है। और सब शांत बैठे।

हिंदी का ब्यूटी पार्लर

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

हिंदी भाषा को सरकारी दफ़्तरों और आयोगों में किस तरह से बोझिल और जटिल बनाया गया है, जिससे वह अपनी सहजता और सुंदरता खो रही है।

अंगूठे का दर्द,अंगुली नहीं जानती

Pradeep Audichya Sep 21, 2025 व्यंग रचनाएं 0

"अंगूठा डिजिटल युग का असली मुखिया है—स्याही वाले निशान से पहचान तक और मोबाइल की स्क्रीन पर टाइपिंग तक। लेकिन दुख यह है कि अंगूठे की जिम्मेदारी जितनी बढ़ी, सम्मान उतना नहीं मिला। उंगलियाँ अंगूठियों से सजती-संवरती रहीं, और अंगूठा दर्द झेलता रहा। उसका दुख वही है—‘अंगूठे का दर्द, अंगुली नहीं जानती।’ यही व्यंग्य है कि पहचान भी वही तय करे और बलिदान भी वही दे।"

दोस्ती और उधार-हास्य व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 18, 2025 Blogs 2

दोस्ती अमृत है, मगर उधार की चिपचिपाहट इसे छाछ बना देती है। वही दोस्त जो आपकी माँ का हाल पूछता था, अचानक आपकी क्रेडिट कार्ड लिमिट साफ़ कर देता है। रिकवरी के लिए आप गुड मॉर्निंग भेजते हैं और जवाब का इंतज़ार वैसा ही करते हैं जैसे पहले क्रश के ‘हम्म्म’ का। और जब वह अंडरग्राउंड हो जाए, तो समझिए आपकी दोस्ती अब एक व्हाट्सऐप ग्रुप की भावनात्मक कर्ज़ बैठक बन चुकी है।”

मैं और मेरी हिंदी-व्यंग्य रचना

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 13, 2025 व्यंग रचनाएं 0

मैं, अंग्रेज़ी दवा लिखने वाला डॉक्टर, अब हिंदी में लिखने लगा तो शहर के ‘हिंदी प्रहरी’ गुरुजी मेरी हर पोस्ट में बिंदी-अनुस्वार ढूंढते फिरते हैं। फेसबुक की वॉल अब क्लासरूम बन गई है—खद्दर कुर्ता, झोला, फाउंटेन पेन और ‘हिंदी की टूटी टांग’ का स्थायी दर्द। मैं त्रिशंकु-सा, हिंग्लिश और देसी मुहावरे के बीच लटका, गूगल इनपुट से जूझता, फिर भी लिखने की खुजली शौक से खुजाता हूँ। बेखौफ़, मुस्कुराते हुए.

जमाई राजा—कलियुग के कौवे 

डॉ मुकेश 'असीमित' Sep 12, 2025 व्यंग रचनाएं 1

श्राद्ध पक्ष में कौवों की कमी ने परम्पराओं को भी स्टार्टअप बना दिया। अब्दुल चाचा दो कौवे पालकर खीर चखवाने का 101 रुपये वाला ‘डिलीवरी सेवा’ चला रहे हैं। पर असली ‘कागभुशुंडी’ तो कलियुग का जमाई है—जाति-धर्म से परे, ससुराल की मुंडेर पर बैठकर कांव-कांव करता और थाली में पहला निवाला पक्का करता। कौवे न मिलें तो जमाई ही तर्पण का ब्रांड एम्बेसडर, नाग पंचमी तक आउटसोर्सिंग पक्की! हो जाएगी