आईए जनाब — मौत का तमाशा अब सर्कस में नहीं, सड़कों पर रचा जा रहा है। ये हादसों का शोर ऐसे ही नहीं थमेगा जब तक सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी। सरकार को चाहिए कि इस शोर को दबाया जाए, एक कैम्पेन चलाया जाए — सरकार की मंशा दिखे। विकास बलिदान चाहता है; जितनी बड़ी सड़के बनेंगी तो हादसे तो होंगे ही न। आप कौन सा घर में सुरक्षित हो —जो इतना चिल्ला-पों मचा रहे हो।
सड़क हादसों की बढ़ती संख्या से सरकार सकते में है; विश्वास ही नहीं होता कि इतने ठीकरे पिछली सरकार के माथे पर फोड़े गए थे, इतनी सपाट लीपापोती की गयी — इरादतन हत्या को गैर-इरादतन साबित किया — कौन सी सरकार खुद डंपर चला रही थी। सरकारें तो बस आँखें मूँदे खड़ी रहतीं है — वो नहीं देख सकतीं अपने वोटरों को इस तरह कुचलते हुए,सरकार का दुःख भी तो देखें मित्र- कितने वोट कम हो गए हैं । ऐसा सिला तो नहीं माँगा था सरकार ने अपनी कारस्तानियों का ? कितने ही क्रिएटिव बहाने गढ़े थे — “ड्राइवर नशे में था ”; कुछ छोटे-मोटे कर्मियों को निलंबित भी कर दिया गया था, विकट शोक व्यक्त किया गया था, अपने खुद का पेट काटकर मोटा मुआवज़ा थमा दिया गया — ज्यों-त्यों मामला शांत करने की रस्म निभा दी गई थी। फिर भी जनता है ना — न तो सरकार से संतुष्ट है और न व्यवस्था से; ट्रैफिक, लाइसेंसिंग जैसी व्यवस्थाओं की कमियाँ हादसों के पीछे का कारण बतलाई जा रही हैं। सरकार आखिर पूछना चाहती है कि तुम्हें घर से बाहर निकलने की आवश्यकता ही क्या है, बताओ तो — क्या घर में नेट का डाटा और राशन का आटा नहीं पहुँच रहा?
निकलो तो बस सिर्फ जब चुनाव आए — वह भी वोट देने; उसके बाद घर बैठो यार… मौत तो आनी ही है तो घर पर भी आ जाएगी। सरकार को फ़ुर्सत कहाँ है तबादलों से, अपने खेमें की बाडी- बंदी से , फिर चुनाव पर चुनाव; विपक्षी पार्टी और अपनी ही पार्टी के भितरघात से आहत सरकार अपने आप को बचाए — कि तुम्हें बचाए।
लेकिन जनता है न, कह रही है — हादसों के पीछे का मूल कारण सड़क निर्माण विभाग के ठेकेदारों की मनमानी, अवैध लाइसेंसिंग, खराब ट्रेफिक व्यबस्था ,सड़क पर सांड सूअर का जमावड़ा ,शराब के ठेके, मिलावट और कमीशनखोरी इसका परिणाम हैं।
देखिए, मैं तो सरकार के पीछे हूँ — सरकार को बचाने में लगा हूँ… सरकार शायद मेरी सुन ले — एक बहुत नायब तरीका लाया हूँ सरकार को अपना चेहरा बचाने के लिए?
गाँवों और छोटे शहरों में मान्यता है, अभी भी जोर-शोर से है मित्र। यदि कोई सड़क का खतरनाक मोड़ , पुल, तालाब या झरना, या संकरी घाटी जैसी सार्वजनिक जगह होती है तो वहाँ कोई न कोई देवता निवास करता है। आपको मिल जाएगा कोई पत्थर, सिंदूर से पुता हुआ कलावा नारियल चढ़ा हुआ या कोई मजार जैसा स्थान; इन जगहों पर साल में एक बार किसी न की बलि ले ली जाती है ,स्पेशल मेनू के तौर पर देवता की भेंट । हमारे शहर के पास एक झरना है, बरसात के मौसम में अक्सर कुछ मनचलों की मौत चाहे वह नशे में झरने में डूबकर हुई हो — उसे उस बलिदान का हिस्सा ही माना जाता है। हम इतने उदार और सहज लोग हैं कि इसे देवी-इच्छा समझकर तसल्ली दे देते है । ऐसे ही दो चार खतरनाक मोड हमारे शहर के आसपास हैं ,जहां भी हादसे हुए ,वहा कोई न कोई आत्मा,चुड़ैल,डाकिन का वसूली नाका घोषित हो जाता है l अब जो वहाँ गुजरता है, पहले कुछ चढ़ाएगा — वहाँ से जिंदा निकल गया बिना चढ़ावे के और सही सलामत घर पहुँच गया तो मित्र यह उसके सात जन्मो का पुन्य फल है l
मजाल है की वहां हुए हादसों पर कभी घटिया निर्माण, ट्रैफिक व्यवस्था, लाइसेंसिंग, वसूली या नशे में ड्राइविंग पर सवाल उठाए गए हों ।
मेरे अनुभव सुनाता हूँ आपको। जयपुर जाते समय ऐसे ही रास्ते में एक कसबे के पास मज़ार है। बचपन से देखता आया हूँ: वहाँ वाहन रुकते हैं, कुछ लोग वहाँ बैठे रहते हैं जो शक्ल से ही नशेड़ी, जुआरी -शराबी की बिरादरी के लगते हैं। उसके पास से गुजरते हुए हर ड्राइवर वहाँ गाड़ी धीरे कर देता है; कुछ कलदार उस स्थान के अहाते में उछल देता है फिर निकलता है। एक एजेंट तो वहाँ सड़क पर ही खड़ा हो जाता है — ड्राइवर से पैसे लेकर वहाँ की पेटी में डाल देता है। मज़े की बात यह है कि वहाँ दान पेटी तो रखी होती है, पर उस पेटी पर ताला नहीं होता — दिखाने के लिए दान पेटी कि आप पैसे चबूतरे पर न डालें; असल में आपका दिया दान हम पेटी में हम डाल रहे हैं ताकि आपका दिया हुआ सीधे ‘देवता’ के खाते में जाए।
टोल-टैक्स जैसा ही सिस्टम है जी । धीरे-धीरे पता लगा कि वहाँ कुछ मनचलों ने इसे रोजी-रोटी बना लिया है — शाम को उनकी दो वक्त की दारू-शराब की व्यवस्था। देखा जाए तो कोई बुराइयां नहीं: आपके दो रुपये किसी की ज़िंदगी में नशे का सुरूर जगा दें और बदले में आपको ज़िंदगी की सलामती मिले — इससे बढ़िया क्या। एक बार मैं अपने इन-लॉज़ के साथ जा रहा था; ड्राइवर ने गाड़ी धीमी की… जेब टटोली , उसमें 100 का नोट था… खुल्ले नहीं थे —अब जान की कीमत १०० रु तो हो नहीं सकती । ड्राइवर निराश हुआ; उस से भी ज्यादा निराश हुआ वहाँ का एजेंट… हमारी गाड़ी थोड़ी आगे गई और टायर पंचर हो गया। ड्राइवर का विश्वास हो गया कि यह देवता को नजरअंदाज़ करने का फल है — वह दौड़ा और 100 रु का चढ़ावा चढ़ाया। उस दिन मजार पर बैठे नशेड़ी शायद बड़ी पार्टी कर रहे होंगे।
अब सुझाव प्रस्तुत करता हूँ। सरकार से निवेदन है कि सड़कें हम हादसा-प्रूफ तो नहीं बना सकते तो क्यों न — हर 500 मीटर पर टोल-नाके जैसे छोटे-छोटे देवस्थान दे दिए जाएँ।और वहां वसूली का ठेका दिया जाए कई बेरोजगार घूम रही आत्माएं ,प्रेत ,चुड़ैल ,डाकिनों को l अरे भाई जीते जी तो आप उन्हें रोजगार दे नहीं पाए कम से कम मरने के बाद ही सही l आपदा में भी अवसर,आपके लिए भे और उनके लिए भी । आगे खतरनाक मोड़ है, रास्ता संकरा है, सावधान — चढ़ावा चढ़ाकर ही आगे बढ़े’ ऐसे बड़े बोर्ड लगा दिए जाएँ । चढ़ावे को प्री-पेड बना दें — टोल-प्लाज़ा की तरह ‘चढ़ावा-प्लाज़ा’ यदि बनाया जाए तो वसूली व्यवस्था नियंत्रित हो सकती है। आधिकारिक, डिजिटल भुगतान और रसीद से वसूली और धंधेबाज़ों की शक्ल बदल जाएगी। अगर हादसा हो जाए तो ‘देव-प्रकोप’ के नाम पर सारी जिम्मेदारी टाल दी जाए — और कोई बिना वसूली दिए निकले तो फिर तो कहना ही क्या ,हादसे का जिम्मेदार खुद होगा ही । और हाँ, हादसे तो होंगे ही, लेकिन सरकार सीधे पल्ला ज्खाद सकती है ,देव जाने ,किसी आंसी जन्म का पाप होगा जी जो इंसान रूप में मृतक ने जन्म लिया । अभी हाल ही में पता चला कि जिस-जिस देवता को टेंडर मिले टोल नाके का, उन्होंने अंडर-कटिंग करके ठेका यमराज को दे दिया।
रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित