Pradeep Audichya
Nov 10, 2025
व्यंग रचनाएं
0
भरोसीलाल ने चाय के डिस्पोज़ल कप को देखते हुए कहा — “ये चाय है चुनाव और कप है जनता, चुनाव खत्म तो जनता कचरे में!”
चुनाव के मौसम में बिजली ओवरटाइम करती है, सड़कें अचानक स्वस्थ हो जाती हैं, और नेता जनता की “कीमत” लगाते हुए मंडी में उतर आते हैं। वोट की कीमत कभी दस हज़ार, कभी तीस हज़ार, तो कभी एक साड़ी और पेय पदार्थ में तय होती है। भरोसीलाल का निष्कर्ष था — “इससे बढ़िया हाट बाजार तो कोई हो ही नहीं सकता!”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 10, 2025
व्यंग रचनाएं
0
मुद्दा कोई साधारण प्राणी नहीं — यह राजनीति की चुहिया है, जिसे वक्त आने पर पिंजरे से निकालकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है। झूठे वायदों की हवा और घोषणाओं के पानी से यह फूली-फली जाती है, और फिर चुनाव आते ही इसका खेल शुरू होता है। नेता डुगडुगी बजाते हैं, जनता तालियाँ पीटती है — और “मुद्दा” लोकतंत्र का मुख्य पात्र बनकर सबका मनोरंजन करता है।
Ram Kumar Joshi
Oct 4, 2025
हिंदी कविता
2
सूरत की राजनीति में खानदानी गुरुर ने ऐसा पेंच फँसाया कि ‘बाई’ की जगह ‘राड’ निकल गया। जनसभाओं में गुणगान करते-करते सीट हाथ से निकल गई। लोकसभा में आंख मिचमिचाना भारी पड़ गया और खानदानी कुर्सी भी खिसक गई। मोहब्बत की दुकानें खोलने चले थे, मगर कुछ घर टूट गए—अब जनता भी कह रही है, “हाय देवा, हमें बचा!”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Sep 25, 2025
व्यंग रचनाएं
0
"चलो बुलावा आया है… दिल्ली ने बुलाया है।
नेता, लेखक, कलाकार—सब दिल्ली की ओर ताक रहे हैं। दिल्ली एक वॉशिंग मशीन है, जहां दाग तक धुल जाते हैं। 'दिल्ली-रिटर्न' टैग लगते ही भाव बढ़ जाता है, पूँछ लग जाती है, मक्खियाँ तक डर जाती हैं। बस किसी तरह दिल्ली पहुँचना है—चाहे बुलावा आए या न आए।"
डॉ मुकेश 'असीमित'
Sep 25, 2025
व्यंग रचनाएं
0
"गली में आज चाँद निकला... पर यह कोई आसमान वाला चाँद नहीं, बल्कि टिकट की दौड़ में फँसा हुआ नेता चांदमल है। चाँदनी बिखेरने का दावा करता है, पर अपने ही अंधेरे में डूबा हुआ है। आलाकमान की चौखट पर सब चाँद कतार में खड़े हैं—कौन चमकेगा, कौन डूबेगा, बस यही फिक्र है। जनता सखी अब भी झरोखे से झांक रही है, कि कब उसके हिस्से का चाँद दीदार देगा। लेकिन सखी, याद रखो—ये सब चाँद चार दिन की चाँदनी वाले हैं।"
डॉ मुकेश 'असीमित'
Aug 3, 2025
व्यंग रचनाएं
0
चुनाव हारने के बाद नेताजी के चेहरे की मुस्कान स्थायी उदासी में बदल गई। कार्यकर्ता सांत्वनाकार बन चुके हैं, बासी बर्फी पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, और भैंस का उदाहरण देते हुए आलाकमान ने नेताजी को समझाया — “राजनीति भी दुधारु भैंस है, एक दिन बाखरी होनी ही पड़ती है।”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Aug 2, 2025
व्यंग रचनाएं
0
"रेवड़ी की सिसकियां" एक व्यंग्यात्मक संवाद है उस 'जनकल्याणकारी नीति' की आत्मा से, जिसे अब राजनैतिक मुफ्तखोरी की देवी बना दिया गया है। लेख में रेवड़ी देवी स्वयं अपने नाम पर हो रहे राजनैतिक तमाशे से व्यथित हैं — उन्हें ग़रीबों की सहायक बनने के बजाय वोट हथियाने का औज़ार बना दिया गया है। मुफ्त योजनाओं की बाढ़ में मेहनत, करदाता और योग्यता हाशिए पर चले गए हैं। लेख एक गहन कटाक्ष है उस लोकतांत्रिक दिशा पर, जहां वादों की फेहरिस्त में 'काम' नहीं, 'फ्री' है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jul 18, 2025
व्यंग रचनाएं
0
लोकतंत्र आश्वासनों पर टिका है, जहाँ हर पार्टी का घोषणा-पत्र वादों का कठपुतली शो होता है। जनता वोट रूपी टिकट से यह खेल देखती है, अपनी गरीबी और भुखमरी के बावजूद। नेतागण पांच साल में एक बार उन्हें खास महसूस कराते हैं, जिससे सरकारें बनती हैं। आश्वासन बाहर से मिलें या अंदर से, यही सरकार के गठन का आधार है। जनता भी आश्वासन की घुट्टी चाहती है, चाहे नेताओं से मिले या बाबाओं से, क्योंकि "अच्छे दिन" का यही आश्वासन है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Jun 4, 2024
व्यंग रचनाएं
0
नेताजी पिछले पांच साल में जब से विधायक की कुर्सी हथियाई है, तब से प्रकृति प्रेम दिखाने के जो भी तरीके हो सकते हैं वो सभी अपनाए हैं। बंजर पड़ी चरवाहे की भूमियों को अपने अधिग्रहण करके उनमे एक आलिशान फार्म हाउस बनवाया है . उसमें पाताल तोड़ सबमर्सिबल लगाकर उसके मीठे पानी से विदेशी […]