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Tag: satire

“एक कार्टून-व्यंग्यात्मक दृश्य, जिसमें एक लेखक चश्मा नीचे खिसकाए समाज को तिरछी नज़र से देख रहा है। उसके आसपास बिखरी घटनाएँ—नेता का बयान, अस्पताल का बिल, सोशल मीडिया पोस्ट, भूखा बच्चा, भीड़ का उफान—सबको वह ‘व्यंग्य की एक्स-रे’ मशीन से जाँचता दिख रहा है। हँसी और चुप्पी को तौलती तराज़ू, और पृष्ठभूमि में एक विशाल प्रश्नचिन्ह—मानो समाज खुद से पूछ रहा हो, ‘सच में, हम ऐसे हैं?’।”

हँसी के बाद उतरती चुप्पी: व्यंग्य का असली तापमान

“व्यंग्य हँसाने की कला नहीं, हँसी के भीतर छुपी बेचैनी को जगाने की कला है। वह पल जब मुस्कान के बाद एक सेकंड की चुप्पी…

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“एक भारतीय शादी के पंडाल में तंदूर के सामने लंबी, ठुंसी हुई कतार लगी है। हाथ में खाली प्लेट लिए लोग तंदूरी रोटी के इंतज़ार में धक्कामुक्की करते दिख रहे हैं। सबसे आगे एक दृढ़ निश्चयी ‘वीर’ युवक तंदूर से почти चिपककर खड़ा है, पीछे से लोग उसे धकेल रहे हैं, पर वह प्लेट आगे बढ़ाए अडिग खड़ा है, मानो रोटी नहीं, विजय पताका लेने आया हो।”

तंदूरी रोटी युद्ध: वीर तुम डटे रहो

“शादी के पंडाल में तंदूरी रोटी अब सिर्फ़ खानपान नहीं रही, पूर्ण युद्ध बन चुकी है। दूल्हे से ज़्यादा चर्चा उस वीर की होती है,…

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"एक भव्य, हल्की रोशनी वाले पॉश बंगले का अंदरूनी दृश्य, जहाँ सजे-धजे लेखक, कवि और बौद्धिक लोग वाइन ग्लास हाथ में लिए ऊपरी शिष्टता और भीतरी खोखलेपन के साथ बातचीत में लगे हैं। कमरे में महंगी पेंटिंग्स, कांचों की खनखनाहट और नक़ाबपोश मुस्कानें फैली हैं; और इस चमकदार भीड़ के बीच एक अदृश्य, अनुपस्थित कवि—अमृत—की मौजूदगी का भारी बोझ माहौल को असहज बनाता है।"

पार्टी’: एक बंगले में कैद पूरा समाज

“गोविंद निहलानी की ‘पार्टी’ सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, उच्चवर्गीय बौद्धिकता का एक्स-रे है। चमकते बंगले में इकट्ठा लोग साहित्य से ज़्यादा एक-दूसरे की पॉलिश चमकाते…

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“पुराने जमाने के सिनेमा हॉल का भीड़भाड़ वाला दृश्य—आगे की सीटों पर बैठे बच्चे गद्दी की रुई निकालते हुए, बीच में घूमते चाय-कुल्फी-पापड़ वाले विक्रेता, खुले आँगन वाले सामूहिक वॉशरूम का अव्यवस्थित दृश्य, दीवारों पर तंबाकू की पिचकारी से बने एब्सट्रैक्ट निशान, और बाहर चमकती धूप में आँखें मिचमिचाते दर्शक—एक व्यंग्यात्मक, नॉस्टेल्जिक भारतीय सिनेमा संस्कृति को दर्शाते हुए।”

भारतीय सिनेमा जगत — जाने कहाँ गए वो दिन

“सिनेमाघर कभी मनोरंजन का देवालय था, जहाँ चाय-कुल्फी की आवाजें, तंबाकू की पिचकारियाँ, आगे की सीटों की रुई निकालने की परंपरा और इंटरवल का महाभारत—सब…

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“रेलवे टिकट विंडो की लंबी लाइन में खड़ा एक मध्यमवय व्यक्ति, मोबाइल स्क्रीन में डूबा हुआ, चारों ओर चॉकलेट-केक-सेल के विज्ञापनों की नोटिफिकेशन बौछार, पृष्ठभूमि में धीमा चलता गर्म पंखा, चिड़चिड़े यात्री, और एक जर्दा-चबाते दलाल की कोहनी से परेशान—सब मिलकर भारतीय लाइन-तंत्र की व्यंग्यात्मक अराजकता दिखाते हुए।”

मोबाइल और लाइन का लोकतंत्र : एक व्यंग्यात्मक संस्मरण

“इस देश में लाइनें कभी खत्म नहीं होतीं, इसलिए आदमी ने मोबाइल को जीवन-संगिनी बना लिया है। टिकट विंडो की कतार हो या दिवाली की…

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"एक लाइन का व्यंग्यात्मक कैरिकेचर: एक विशाल फ्लश टैंक से निकलते हुए रुपये, उपभोक्तावाद में डूबता आम आदमी और मुस्कुराता हुआ पूँजीवाद।"

पूँजीवाद की टंकी से फ्लश करता बाजार 

पूँजीवाद आज हमारे जीवन का रिमोट कंट्रोल बन चुका है। वह तय करता है कि हमें क्या खरीदना है, क्या छोड़ना है और किस चीज़…

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