डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 26, 2025
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“इस देश में लाइनें कभी खत्म नहीं होतीं, इसलिए आदमी ने मोबाइल को जीवन-संगिनी बना लिया है। टिकट विंडो की कतार हो या दिवाली की सेल—हर जगह कंपनियाँ आपको चॉकलेट, केक, EMI, लोन, ओवरड्राफ्ट और भविष्य-कथन तक परोसने के लिए बेताब हैं। आदमी लाइन में खड़ा है… लेकिन उसकी दुनिया मोबाइल की स्क्रीन में बह रही है।”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 21, 2025
व्यंग रचनाएं
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पूँजीवाद आज हमारे जीवन का रिमोट कंट्रोल बन चुका है। वह तय करता है कि हमें क्या खरीदना है, क्या छोड़ना है और किस चीज़ में ‘स्मार्ट चॉइस’ बनने का भ्रम पैदा करना है। बाजार अब सिर्फ चीजें नहीं बेचता, हमारी कमजोरियाँ, असुरक्षाएँ और आदतें भी खरीद लेता है। हर फ्लश, हर swipe, हर click के पीछे एक पूरा तंत्र सक्रिय है—जो हमें उपभोक्ता से ज्यादा उपलब्ध दिमाग मानता है। इस व्यंग्य में दिखाया गया है कि कैसे एक विशाल टंकी की तरह पूँजीवाद ऊपर बैठा है, और नीचे पूरा समाज उसकी एक हल्की-सी फ्लश से बहने लगता है।
Vivek Ranjan Shreevastav
Nov 19, 2025
व्यंग रचनाएं
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कमरे में घुसते ही लगा जैसे पूरा देश भीतर उतर आया हो। छत ऊँचा सोचने का उपदेश दे रही थी, पंखा शोर मचाते हुए ठंडा दिमाग रखने को कह रहा था, घड़ी और कैलेंडर समय का महत्व जता रहे थे, जबकि हल्का पर्स भविष्य बचाने की सलाह दे रहा था। हर वस्तु अपने दोषों के साथ दर्शन बाँट रही थी—एक सचमुच का व्यंग्यमय गृह-संसद।
Ram Kumar Joshi
Nov 12, 2025
व्यंग रचनाएं
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“When the bottle climbs, memories fall — and so do official scruples.”
“’Promise,’ said the Thanedaar — and the ledger smiled back with five hundred rupee handwriting.”
“In midnight justice, the court of convenience often arrives with a warm cup of tea and a wrapped note.”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 12, 2025
व्यंग रचनाएं
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“The truck isn’t just metal — it’s a moving philosophy, painted with poetry and powered by diesel.”
“Between the roar of the engine and the rhythm of the horn lies India’s true symphony.”
“Yes, my friend — the truck is the real father of the road.”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 12, 2025
व्यंग रचनाएं
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“In our country, traditions seep into your blood — and sometimes into your backside.”
“Before the sacred thread, there is the slipper: a father’s unofficial rite of passage.”
“We proudly say our children are filled — koot-koot — with ‘good’ manners.”
Pradeep Audichya
Nov 10, 2025
व्यंग रचनाएं
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भरोसीलाल ने चाय के डिस्पोज़ल कप को देखते हुए कहा — “ये चाय है चुनाव और कप है जनता, चुनाव खत्म तो जनता कचरे में!”
चुनाव के मौसम में बिजली ओवरटाइम करती है, सड़कें अचानक स्वस्थ हो जाती हैं, और नेता जनता की “कीमत” लगाते हुए मंडी में उतर आते हैं। वोट की कीमत कभी दस हज़ार, कभी तीस हज़ार, तो कभी एक साड़ी और पेय पदार्थ में तय होती है। भरोसीलाल का निष्कर्ष था — “इससे बढ़िया हाट बाजार तो कोई हो ही नहीं सकता!”
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 10, 2025
व्यंग रचनाएं
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मुद्दा कोई साधारण प्राणी नहीं — यह राजनीति की चुहिया है, जिसे वक्त आने पर पिंजरे से निकालकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है। झूठे वायदों की हवा और घोषणाओं के पानी से यह फूली-फली जाती है, और फिर चुनाव आते ही इसका खेल शुरू होता है। नेता डुगडुगी बजाते हैं, जनता तालियाँ पीटती है — और “मुद्दा” लोकतंत्र का मुख्य पात्र बनकर सबका मनोरंजन करता है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 4, 2025
व्यंग रचनाएं
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देवराज इंद्र की सभा के बीच अचानक नारद मुनि माइक्रोफोन लेकर प्रकट होते हैं और देवताओं को बताते हैं कि अब असली अमृतकाल मृत्युलोक में चल रहा है—जहाँ मानव ने देवों से भी बड़ी कला सीख ली है, रूप बदलने की। एक ओर देवता नृत्य और सोमरस में मग्न हैं, तो दूसरी ओर मानव मोबाइल कैमरे से लाशों की तस्वीरें खींचकर “मानवता शर्मसार” का ट्रेंड बना रहा है। व्यंग्यपूर्ण संवादों और पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से यह रचना बताती है कि जब मानवता ही मर जाए, तो अमरत्व भी व्यर्थ है।
डॉ मुकेश 'असीमित'
Nov 4, 2025
आलोचना ,समीक्षा
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“साहित्य के बाजार में आज सबसे सस्ता माल है ‘महानता’। पहले पहचान विचारों से होती थी, अब फॉलोअर्स और लॉन्च-इवेंट से होती है। व्यंग्य अब साधना नहीं, रणनीति बन गया है। व्यवस्था की आलोचना करने वाला अब उसी व्यवस्था का पीआर एजेंट बन बैठा है। असली लेखक कोने में खड़ा है, और मंच पर नकली लेखक चमक रहा है। विरासत अब शाल और शिलालेख में सिमट गई है — सवालों में नहीं। व्यंग्य की परंपरा विरोध में जन्म लेती है, करुणा में जीती है — और उसी करुणा को अब मार्केटिंग ने निगल लिया है।”