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स्मृतियों की छाँव में माँ-संस्मरण

A simple line drawing of a child resting in a mother’s lap under the shade of a tree, evoking nostalgia and maternal warmth.

“स्मृतियों की छाँव में माँ”

“कुछ यूँ ही एक फेसबुक पोस्ट ने बीते दिनों की स्मृतियों को फिर से जगा दिया…
वो बचपन, वो स्नेहिल छाँव, माँ के वात्सल्य में पला-पनपा हर एक लम्हा…
ऐसा लगा मानो यादों की अलमारी से कोई धूल भरा खिलौना फिर से मुस्कुरा उठा हो।
जीवन की आपाधापी में जो बीत गया, वही आज सबसे कीमती लगने लगा है…”

हमारी माँ शब्दों के लिहाज़ से भले ही निरक्षर हैं , लेकिन कहानियों,किस्सों ,लोकगीतों  के ख़ज़ाने की धनी हैं । बचपन उनके पास जुड़ी हुई किस्सागोई की एक अलग ही दुनिया में बीता —अधिकतर धार्मिक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियाँ, या जातक कथाओं जैसी नैतिक शिक्षाएँ। उन्हें कुछ विशेष पात्रों से गहरा लगाव था—जैसे शेखचिल्ली की कहानियाँ, चिडा और चिड़िया की कहानियां, जिनमें मासूमियत और हास्य का अद्भुत संगम होता। चिड़ा चिड़िया की एक कहानी मुहे याद है ,वो एक दुखांत कहानी ,हम उसे सुनकर रो पड़ते थे..लेकिन फिर भी जिद करते थे माँ से उसी कहानी को बार बार सुनने के लिए !

संगीत से उनका नाता बेहद गहरा और आत्मीय था। सुबह-सुबह जब वह चक्की पीसते हुए भजन गुनगुनातीं, तो उनकी आवाज़ में एक ऐसा सुर, एक ऐसी भावप्रवण ऊँचाई होती कि लगता मानो पूरा घर एक अदृश्य शांति से भर गया हो। चक्की की घूमती हुई ध्वनि उनके स्वर के साथ मिलकर एक लयबद्ध संगति रचती, मानो किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही हों। एक छोटा-सा अंतरा गुनगुनाने के बाद कुछ पल के लिए केवल चक्की की घुर्र-घुर्र सुनाई देती, जो उस काव्य संगीत का इंटरल्यूड (Interlude)  बन जाती।

हम बच्चे बिस्तर पर लेटे-लेटे, आंखें बंद किए, उस वातावरण में डूबे रहते — जैसे कोई अलौकिक अनुभूति हमें छू रही हो। कल मैंने माँ से आग्रह किया कि वह वही पुराना गीत फिर से सुनाएं। माँ ने मुस्कराकर सुनाया — “भरत विलाप” का वह लोकगीत। हाँ, ‘भारत मिलाप’ नहीं, ‘भरत विलाप’ — जो लोक परंपरा में एक क्षेपक कथा के रूप में जीवित है।

इस गीत में दृश्य कुछ यूँ है — भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास को निकल रहे हैं। भरत रथ के पहिये से लिपटे विलाप कर रहे हैं, और राम उन्हें सांत्वना दे रहे हैं। माँ ने जब वह पंक्तियाँ दोहराईं — भरत मेरे भैया… मत रोको रथ को पहिया…”, तो जैसे पूरे घर में फिर से वही पुरानी दिव्यता उतर आई।

वो अकादमिक रूप से पढ़ी-लिखी नहीं हैं , लेकिन भावनात्मक रूप से इतनी समृद्ध कि उनका ज्ञान जीवन के असली अर्थों को समझने के लिए पर्याप्त था। उनकी कहानियाँ, उनके गीत, और उनके अनुभव ही हमारे पहले अध्यापक बन गए।

माँ के साथ जुड़ी यह मेरी बचपन की स्मृति है…माँ आज भी हमारे साथ हैं—भौतिक रूप में भी, और भावनात्मक रूप से तो अनादि काल से। । इस जीवन-यात्रा में न जाने कितने गुरु, प्रेरक और मार्गदर्शक मिले, जिन्होंने अपने अनुभवों और शिक्षाओं से मुझे समृद्ध किया, पर बचपन में जो भाव, संस्कार, व्यवहार और साहित्यिक समझ के बीज माँ ने मेरे भीतर रोपे थे—वे ही आज तक अक्षुण्ण हैं।

उन्हीं बीजों ने समय के साथ अंकुरित होकर मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा है। वे कहानियाँ, वे गीत, वे सहज जीवन-दर्शन आज भी मेरी लेखनी, सोच और दृष्टिकोण में जीवंत हैं।

उनके सान्निध्य में आज भी वही ऊर्जा है, वही प्रेरणा है, जो शब्दों से परे, जीवन को अर्थ देती है। माँ सिर्फ एक संबंध नहीं, वह मूल स्रोत हैं—संवेदनाओं, विचारों और मूल्यों का, जो आज भी हर कदम पर साथ हैं।

रचनाकार –डॉ मुकेश असीमित
📧 संपर्क: [email protected]

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