राग दरबारी- एक अनवरत बजता भारतीय राग
“यह उपन्यास नहीं, व्यवस्था की एक्स-रे प्लेट है, जिसे देखकर सिस्टम खुद अपने चेहरे से डर जाए।”
राग दरबारी” को उपन्यास नहीं, बल्कि एक “व्यंग्य की क्लास” मानकर पढ़ना चाहिए । इस रचना की हर पंक्ति, हर संवाद, और हर प्रसंग अपने समय की सड़ी-गली व्यवस्था पर ऐसा आइना है जो आज भी जस का तस लगा हुआ है — फर्क सिर्फ इतना है कि दाग और गहरे हो गए हैं।
श्रीलाल शुक्ल उत्तर प्रदेश में पीसीएस अफसर रहे और बाद में पदोन्नत होकर आईएएस की कुर्सी तक पहुँचे। उन्होंने लगभग 25 पुस्तकें लिखीं, परंतु ‘राग दरबारी’ का जो रस-प्रसाद साहित्य जगत को मिला, वह निर्विवाद रूप से अद्वितीय है। इस उपन्यास का अनुवाद अंग्रेज़ी सहित पंद्रह से अधिक भाषाओं में हुआ है। ‘‘राग दरबारी’ व्यंग्य साहित्य का वह स्तंभ है, जो न केवल समाज की मेरुदंड पर उँगली रखता है, बल्कि मंचीय हास्य-व्यंग्य के अनेक ‘स्वघोषित महारथियों’ को भी जन्म देता है।
इस उपन्यास चुटीली ‘वन लाइनर्स इतनी धारदार और मसालेदार हैं कि इन्हें मंचों से पढ़कर न जाने कितने कच्चे-पक्के कवि खुद को शायर समझ बैठे — और कई ‘बोलबहादुर’ लोग ‘गंभीर विचारक’ के खिताब से नवाजे जाने लगे।
कुछ वन लाइनर देखिये और आनंद उठाइये -“राजनीति की विद्रूपताओं को उधेड़ती ऐसी पंक्तियाँ ही ‘राग दरबारी’ को कालजयी बनाती हैं।
“मैं तो घास छील रहा हूँ, और इसे अंग्रेज़ी में रिसर्च कहा जाता है।”
“गालियों की मौलिकता उनको ऊँची आवाज में कहने से प्राप्त होती है “
“कहने को तो एक ट्रक खड़ा था, लेकिन उसे देखकर लगता था कि इसका जन्म ही सड़कों के बलात्कार के लिए हुआ है।”
“हमारे यहाँ बेईमानी भी इतनी ईमानदारी से की जाती है कि बेईमानी पर विश्वास हो जाता है।”
“जिस देश में गधे मंत्री हो सकते हैं, वहाँ के नागरिक भी चुप रहने के आदी हो जाते हैं।”
“यहाँ सच्चाई का उतना ही महत्व है जितना मूर्तियों के नीचे लिखे गए उद्धरणों का।”
“गाँव में शिक्षा का प्रचार उतना ही हुआ है जितना पेड़ पर पतंग फँसाने से छाया होती है।”
“जिसका कुछ नहीं बिगड़ सकता, वह सुधार का सबसे बड़ा हिमायती होता है।”
“हमारी न्याय-प्रणाली ऐसी है कि सत्य खुद गवाही देने आए तो उसे भी साक्ष्य की ज़रूरत पड़े।”
“भाषण देना यहाँ एक सामाजिक कला है — और श्रोताओं का सो जाना भी।”
“झूठ का वजन हमेशा सच से ज़्यादा होता है, क्योंकि उसमें सजावट का तामझाम होता है।”
“मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था. “
“यह देश समस्याओं से नहीं, समस्याओं की पूजा से चलता है।”
“विकास की शुरुआत यहाँ तब होती है जब कोई पुरानी दीवार गिर जाए और उसके मलबे से नई फाइलें तैयार हो जाएँ।”
“यहाँ हर संस्था एक बीमार गाय की तरह है — न दूध देती है, न मरती है।”
“लोकतंत्र के इस मेले में जो सबसे ज़्यादा चिल्लाता है, वही देशभक्त कहलाता है।”
“यहाँ योजनाएँ बनाई नहीं जातीं, फुसलाई जाती हैं।”
“जो जितना बेकार है, वही उतना ऊँचा पद पाने के लिए उपयुक्त माना जाता है।”
“यहाँ शिक्षा से ज़्यादा डिग्री का महत्त्व है, और डिग्री से ज़्यादा फोटो खिंचवाने का।”
“हमारा गणतंत्र इतना मजबूत है कि उसमें सड़ाँध भी ससम्मान संरक्षित रहती है।”
“शांति व्यवस्था बनाए रखने का सबसे सरल उपाय है — सच्चाई को बंद कर दो।”
इस उपन्यास की भाषा लोकजीवन की धूल से लिपटी हुई है और चित्रण ऐसा कि जैसे राजनीति और प्रशासन की रग-रग स्कैन कर दी गई हो। चौचक संवाद, बमचक दृश्य और हाजिरजवाबी की मिसालों से भरी यह कृति आज भी उतनी ही ताज़ा लगती है, जितनी अपने प्रकाशन के समय थी — लगभग ६ दशक पहले।
‘राग दरबारी’ को पढ़ना वैसा ही है जैसे किसी गाँव की गलियों में नहीं, अपने भीतर के सिस्टम में घूम आना। शिवपालगंज कोई एक गांव नहीं, वह एक थिंकिंग पैटर्न है — एक व्यवस्था है जो हर गली, हर ऑफिस, हर राजनीति, हर संस्थान में पाई जाती है।
आज अगर राग दरबारी को व्याख्यान की तरह, ‘reading-between-the-lines’ की आदत के साथ पढ़ा जाए, तो हर पाठक यह महसूस करेगा कि वह स्वयं किसी “प्रबंध समिति” का सदस्य है, किसी “वैद्यजी” के इशारों पर चल रहा है, और हर दिन कोई “खन्ना मास्टर” उस पर वाइस प्रिंसिपल बनने का दावा और दबाब बना रहा है।
जैसा कि श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं — “गुटबंदी परमात्मा-भूति की चरम दशा है।” वेदांत की तरह हमारी सांस्कृतिक परंपरा है।”
आज भी हर संस्थान में दो गुट हैं, एक वैद्यजी का और एक रामाधीन का। एक ‘तंत्र’ है और एक ‘प्रतितंत्र’। एक सत्ताधारी और एक “हाशिये का”। फर्क सिर्फ इतना है कि अब अखबार की जगह ट्वीट है, ‘प्रबंध समिति’ की बैठक अब ज़ूम पर होती है।
श्रीलाल शुक्ल जब गुटबंदी को ‘वेदांत’ से जोड़ते हैं, तो वे सिर्फ कटाक्ष नहीं कर रहे होते, वे गंभीर यथार्थ पर प्रकाश डालते हैं। शिवपालगंज के कॉलेज की प्रबंध समिति में वैद्यजी और रामाधीन की टांग खिंचाई यह बताती है कि किस प्रकार हर संस्था में ‘सत्ता’ का मनोविज्ञान सांस्कृतिक बन चुका है।
आज जब हम विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव को देखें, या हर विभाग में पक्ष-विपक्ष का खेल देखें, तो वही वैद्यजी और रामाधीन जीवित हो उठते हैं। आईएएस लॉबी बनती है, डॉक्टरी में गुट हैं, न्यायपालिका में भी विचारधारा के नाम पर रेखाएं खींची जाती हैं। पद की चाह आज भी वही है ।
‘कॉलेज’ इस उपन्यास में एक प्रतीक है — यह शिक्षा का नहीं, ‘सिस्टम की एजुकेशन’ का केंद्र है। जहाँ संविधान की प्रस्तावना दीवार पर टंगी है लेकिन व्यवहार में सिर्फ “गुटबाजी की लकीरें” हैं। आज का यूनिवर्सिटी सिस्टम भी क्या इससे अलग है?
आज भी छात्रों की ऊर्जा “गुटों” में बंट जाती है। “गुंडई” और “गाली-गलौज” को संगठन में तब्दील करने की शिक्षा राग दरबारी का स्थायी पाठ्यक्रम है।
और यह सब “दार्शनिकता” की आड़ में चलता है — जैसे आजकल हर अराजकता का बहाना “लोकतंत्र” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” होता है।
“कॉलेज का संविधान पढ़कर मन वैसा ही निर्मल हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार पढ़कर।” यह एक ‘कॉमिक झुरझुरी’ नहीं है — यह उस दोहरेपन का पर्दाफाश है जो आज भी हमारी शैक्षणिक संस्थाओं में व्याप्त है। आज जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) का पाठ पढ़ाया जा रहा है, और दूसरी ओर शिक्षकों की नियुक्ति ‘कोटा, संपर्क और जातीय समीकरणों’ के अनुसार हो रही हो — तो यह उद्धरण सीधा आज की शिक्षा पर वार करता है।
कॉलेज में शिक्षा से ज़्यादा “प्रबंध समिति की बैठक” महत्वपूर्ण है — ठीक वैसे ही जैसे आज विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम से अधिक वाइस चांसलर की विचारधारा और छात्र गुटों का झुकाव मायने रखता है।
“इंसानियत… इंसानियत… पहले लगा कोई यह शब्द फुसफुसा रहा है, फिर लगा मंच से गंभीर आवाज़ में पुकारा जा रहा है, फिर लगा दंगा हो रहा है।”
यह उद्धरण शब्दों की बदलती ध्वनि और उनके बदलते सन्दर्भों को दर्शाता है — जब एक मूल्य धीरे-धीरे राजनीतिक नारेबाजी में तब्दील हो जाता है। आज जब मीडिया स्टूडियो में “संविधान”, “लोकतंत्र”, “राष्ट्रवाद”, “सेकुलरिज्म” जैसे शब्द चीख-चीख कर बोले जाते हैं, तो उनका नशा भी वैसा ही है — जैसे शिवपालगंज की गलियों में “इंसानियत” की चिल्लपों।
इन शब्दों की गरिमा अब “चोर-चोर” की भीड़ में खो गई है। वे मूल्य नहीं, डिजिटल माइक बन चुके हैं।
शिवपालगंज की गलियों में जब ‘इंसानियत’ गूंजती है तो वह एक गाली की तरह लगती है। आज के ज़माने में भी जब कोई ज्यादा नैतिक बनने की कोशिश करता है, तो बाकी लोग उसे ऐसे देखते हैं जैसे वह “खन्ना मास्टर” हो, जो अचानक वाइस प्रिंसिपल बनने चला है।
यह इंसानियत अब भी एक फैशनेबल शब्द है, ठीक वैसे ही जैसे कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सबिलिटी या हरित विकास। भीतर की नीयत वही शिवपालगंज वाली है — अवसर का उपयोग।
“चोर-चोर-चोर… फिर रिकॉर्ड की सुई की तरह वही शब्द फँस गया… और असल में चोर निकला बांसुरी बजाने वाला लड़का।”
श्रीलाल शुक्ल जिस तरह इस दृश्य को बनाते हैं, वह आज के फेक न्यूज़ और वायरल अफवाहों के युग की सटीक व्याख्या है। आज भी कोई घटना होती नहीं — उससे पहले “मीडिया ट्रायल”, “सोशल मीडिया ट्रेंड” और “पब्लिक वर्डिक्ट” हो जाता है।
और बाद में जब सच्चाई सामने आती है, तो सब कहते हैं — “ओह, ये तो कुछ नहीं निकला।” लेकिन तब तक कोई एक ‘विस्सल ब्लोअर वाला’ सिस्टम से बाहर कर दिया जाता है।
आज भी कोई मुद्दा उठता है, लोग लाठी लेकर दौड़ते हैं, शोर मचता है — पर अगले दिन सब भूल जाते हैं। असली चोर निकल जाता है, और मास्टर मोतीराम जैसे पत्रकार उसे डाकू बताकर खबर बना देते हैं।
खन्ना मास्टर का ‘वाइस प्रिंसिपल’ बनने का स्वप्न
“प्रिंसिपल साहब को देखकर लगता था कि वे बिना सहारे के बिजली के खंभे पर चढ़े हुए हैं…”
यह उद्धरण पढ़ते ही आज के किसी अफसर, कुलपति या प्रशासनिक प्रमुख की छवि सामने आती है, जिसे सत्ता ने कुर्सी दी पर सहारा नहीं। खन्ना मास्टर का ‘वाइस प्रिंसिपल’ बनने का सपना, योग्यता की नहीं, गुटबाजी की उपज है — और यही आज की नौकरशाही और राजनीति में होता है।
हर ‘खन्ना मास्टर’ अपने ‘प्रबंध समिति’ को साधने में लगा है — और हर ‘प्रिंसिपल साहब’ अपने डर में, अपना कोट उतार चुका है।
चोर-चोर की भगदड़ : मीडिया और अफवाहों का युग
रूपन बाबू, जागते रहो, और पितृभक्ति की लाठी
“लाठी चलाते समय बाप को अपवाद मान लिया जाता है — धन्य है भारत तेरी पितृभक्ति।”
भारतीय सामाजिक संरचनापर एक चुटीला तंज । हर आंदोलन, हर भगदड़ में कोई ‘अपवाद’ होता है — जिसे मारा नहीं जा सकता। कभी वह ‘बड़ा नेता’ होता है, कभी ‘मुख्य न्यायाधीश’, कभी ‘ईडी से बचा उद्योगपति’, कभी ‘मीडिया का चेहरा’।
शिवपालगंज की यह पितृभक्ति, आज के लोकतंत्र की नियम-अपवाद संस्कृति है। जहां हर नियम सिर्फ ‘आम आदमी’ के लिए है।
राग दरबारी आज भी बज रहा है…
यह एक ऐसी भारतीय विडंबना है, जिसे समझने के लिए आपको किसी राजनेता के इंटरव्यू नहीं, शिवपालगंज की छत पर सोए रंगनाथ की नींद के सपनों को पढ़ना होगा।
राग दरबारी कोई ‘पुराना’ उपन्यास नहीं है ,बार बार पढ़ा जाने वाला उपन्यास है !
‘राग दरबारी’ को अगर सिर्फ साहित्य की नजर से देखेंगे तो यह व्यंग्य है, पर अगर उसे diagnostic tool की तरह पढ़ें — तो यह भारतीय समाज की शिराओं में बहते सिस्टम की ECG रिपोर्ट है।
आज भी यह उपन्यास “टाई लगाए खन्ना मास्टरों”, “वेदांती वैद्यजियों”, “फ्री की खादी पहनकर तगड़ा भाषण देने वाले नेताओं”, और “जागते रहो” का नारा देने वाले ‘नशेबाजों’ से भरा समाज बयान करता है।
और अगर यह सब वैसा ही है, जैसा पहले था — तो यकीन मानिए, ‘राग दरबारी’ न सिर्फ आज भी प्रासंगिक है, बल्कि भारत की ‘साहित्यिक आत्मा’ का सबसे प्रामाणिक एक्स-रे है।
“राग दरबारी वह राग है जो दरबार में गाया जाता है, सत्ता के सुर में सुर मिलाकर।”
श्रीलाल शुक्ल ने उपन्यास लिखा नहीं — भारतीय लोकतंत्र का टेप रिकॉर्डर ऑन किया था। और अब वह रिकॉर्डर लगातार बज रहा है — चाहे विश्वविद्यालय हों या संसद, मीडिया चैनल हों या सोशल मीडिया, चाहे नेता हों या छात्र।
‘राग दरबारी’ को एक बार पढ़ना पर्याप्त नहीं। इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए — हर बार नए संदर्भों के साथ, क्योंकि हर सत्ता, हर कालखंड, हर पीढ़ी में एक नया “वैद्यजी”, “रामाधीन”, “खन्ना”, “प्रिंसिपल” और “रूपन बाबू” जन्म लेता है।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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