काम करने वाला कोई नहीं घर में
मेरे मन पर एक ऐसा अपराध-बोध हमेशा हावी रहता है, जिसे शायद मैं ज़िंदगी भर झटक नहीं पाऊँगा। यह अपराध-बोध उतना गहरा है, जितना शायद किसी जज को भी किसी को फाँसी की सज़ा सुनाते समय नहीं होता। और वह अपराध है—किसी मरीज को “प्लास्टर चढ़वाने की सज़ा” देना।
मुझे तो कई बार लगता है जैसे मेरी कलम से यह लिखा जा रहा हो कि—
“तज़ीराते-हिन्द चिकित्सा दंड संहिता की धारा 370 के अंतर्गत, मरीज का भेष धारण किए हुए अभियुक्त को दो महीने के कड़े, पक्के प्लास्टर की सज़ा सुनाई जाती है।”
लेकिन यह फैसला मैं अकसर बिना मरीज और उसके परिजनों की हालत पर गौर किए ही सुना देता हूँ।मेरा मतलब सजा सुनाने से पहले यह भी नहीं कह पाता की सभी हालातों पर गौर करने के बाद चिकित्सा शास्त्र इस नतीजे पर …..”
मरीज और उसके अटेंडेंट बार-बार गिड़गिड़ाते हैं—
“लॉर्ड! ज़रा देख तो लीजिए, हमारी उम्र देखिए, यह बुढ़ापा देखिए… और आप कह रहे हैं कि पूरे पैर पर पक्का प्लास्टर लगवाइए! इस हाल में हम घर कैसे चलाएँगे, काम कैसे करेंगे?”
“डॉक्टर साहब! घर में कोई काम करने वाला नहीं है। बहू तो है, पर गिलास भर पानी तक देने से इनकार कर देती है। बेटी को ससुराल से लाने नहीं देते—कहते हैं बेटे के रहते ससुराल से बेटी को क्यों बुलाएँ, इससे हमारी नाक कट जाएगी। अब बताइए, आप तो घर-घर के हाल जानते ही हैं। आपके इस ‘प्लास्टर लगवा लो’ वाले एक वाक्य ने हमारे गृहक्लेश का ट्रिगर दबा दिया है।”
मुझे भी लगता है—क्या मैं इतना बेरहम हूँ? मैं जानता हूँ कि उनके घर में सात पीढ़ियों के अधूरे काम वही अकेले निपटाते हैं। और मैं ठान लेता हूँ कि पक्का प्लास्टर ही लगेगा!
क्योंकि अगर कच्चा प्लास्टर बाँध दूँ तो दो दिन में वह टूट जाएगा, पत्ते-पत्ते, तिनके-तिनके अलग हो जाएँगे और मरीज चार दिन बाद लौटकर कहेगा—
“डॉक्टर साहब, यह क्या प्लास्टर लगाया आपने? दो दिन में ही चिथड़े-चिथड़े हो गया।”
और आप इसी मौके की तलाश में ,सटाक से अपना वही राग अलाप देंगे –“मैं न कहता था,पक्का ही लगवा लो ।”
वैसे तो मरीज को लगता है कि हड्डी एवं जोड़ की सारी बीमारियों का रामबाण इलाज सिर्फ लाल रंग वाली ‘क्रेप बैंडेज’ ही है—जिसे शरीर के किसी भी अंग पर बाँध दो तो चमत्कार हो जाए। फ्रैक्चर, मोच, सूजन सबका इलाज।
लेकिन मैं? मैं तो कितना निर्दयी प्रतीत होता हूँ—जैसे मेरा काम ही लोगों का काम-धंधा बंद करवाने की हो। मुझे तो सिर्फ एक्स-रे में फ्रैक्चर ही नज़र आता है, वो भी ऐसे ढूढं रहा हूँ जैसे कोई पिक्चर में दस गलतियाँ ढूंढ रहा हो..l न ही उसके चेहरे की विवशता देखी , न उसकी दबी ज़ुबान से हालात,भगवान और मुझे दी जाने वाली गालियाँ सुनी ।
जैसे ही किसी की हड्डी टूटती है, उसे अपने पिछले सात जन्मों के अधूरे काम याद आ जाते हैं। उसे सब इसी जन्म में पूरे करने होते हैं। और इधर मैं उनके इरादों पर पानी फेर देता हूँ—बिना यह मौका दिए कि वे किसी ज्योतिषी सेकम से कम ये तो पूछ लें कि प्लास्टर लगवाने के लिए कौन-सा शुभ नक्षत्र ठीक रहेगा। ताकि यह ग्रह-दशा अतिशीघ्र टाली जा सके l
कहते हैं मौत जब करीब आती है तो आदमी के द्वारा जिन्दगी भर किये गए फरेब और धोखा उसकी आँखों के सामने से फ़्लैश होते हैं l
प्लास्टर की सजा भी आदमी को पूरा दार्शनिक बना देती है-जिन्दगी भर माँ बाप के कंधो पर बोझ बना,निहायत ही वेल्या,बेरोजगार, बेबडा बन्दा भी कर्म योगी हो जाता है..l दिन भर सास ससुर निंदा-लिप्त ,रील बना बना कर घर,बच्चे और पति की रील बना देने वाली गृहणी भी कर्म योगिनी नजर आती है l
अपने अनुभव में मैंने अब तक कोई ऐसा इंसान नहीं देखा—चाहे आदमी हो, औरत हो या बच्चा—जो हड्डी सिर्फ इसलिए तुड़वाता हो कि वो प्लास्टर लगवा सके । जो अपने आपको हँसते-हँसते प्लास्टर के फंदे में कसवा ले और ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाता हुआ प्लास्टर रूम में दाखिल हो।
शायद इसी अपराध-बोध से मुक्ति पाने के लिए अब मन करता है कि क्लिनिक के साथ एक नया काउंटर-साइड बिज़नेस शुरू कर दूँ—
- बेसिक पैकेज – आपके घर एक आदमी भेजा जाएगा, जो आपके सारे अधूरे काम निपटाएगा।
- गोल्डन पैकेज – आपकी जगह हमारा आदमी प्लास्टर लगवा लेगा, और आप निश्चिंत रहेंगे।
- प्रीमियम पैकेज – इस ऑफ़र में तो डॉक्टर साहब (यानी मैं) खुद आकर आपके सारे काम कर देंगे।
👉 यही है मेरी ‘काम करने वाला कोई नहीं घर में’ वाली शाश्वत दुविधा।

डॉ. मुकेश असीमित
✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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