ब्लडी रेटिंग्स ‘Zwigato’ में गिग वर्ल्ड की सच्चाई
प्राइम वीडियो पर उंगली स्क्रोल कर रही थी कि कपिल शर्मा का चेहरा दिखा—सोचा, हंसी की फ्री-होम-डिलीवरी मिलेगी; निकली “Zwigato”—हंसी नहीं, जीवन की ईएमआई भरती जिन्दगी । नंदिता दास ने ऐसी दुनिया खोली जिसमें राइडर की बाइक से ज्यादा उसका धैर्य दौड़ता हुआ नजर आता है, और ऐप का एल्गोरिदम उसके पेट पर रेटिंग्स की तरह सितारे गिनता रहता है। कपिल का किरदार—मंझोला शहर, मझोला घर, लेकिन मझोले सपनों की बत्ती गुल। फैक्ट्री बंद, नौकरी गई, और अब प्लेटफ़ॉर्म इकोनॉमी का नया देवता: “डिंग!”—ऑर्डर आया, इंसेंटिव भागा, और बारिश में फिसला आर्थिक लोकतंत्र का फुटपाथ।
फिल्म की सबसे प्यारी बात यह कि गरीब और मध्यमवर्ग की वेदना-प्रदर्शन को मेले का तमाशा नहीं बनाया; घर के भीतर का प्रेम, शर्म, झेंप, जुगाड़—सब कुछ बिना बैंड-बाजे के रखा। पत्नी (शाहाना गोस्वामी, कमाल) घर के बर्तन और बाहर की झाड़ू के बीच अपनी अस्मिता बचाती है; पति की “मैं कमाऊंगा” वाली मर्दाना जिद से भिड़ती भी है और साथ भी देती है। दादी बच्चों के बीच चुपचाप पुरानी दुनिया की चाबी पकड़े बैठी है—कि घर, बस घर रहे; ऐप्स उसे महज्ज एक “लोकेशन” नहीं बना दें।
अब ज़रा मार्क्स की चश्मे से देखें—यहाँ वर्ग-संघर्ष लाल झंडों से नहीं, नोटिफ़िकेशन टोन से बोलता है। । आज का वर्ग-संघर्ष और मेहनतकश की पहचान उसके काम से नहीं, ऐप पर आती रेटिंग और पॉप-अप अलर्ट से होती है।” पहले शोषण मिल-मालिक करता था, अब उसे क्लाउड पर अपलोड कर दिया गया है: फैक्ट्री गायब, पर फैक्ट्री-डिसिप्लिन का अलार्म हर घंटे बजता है—लॉग-इन करो, समय पर पिक करो, देर से ड्रॉप तो रेटिंग ड्रॉप। “मज़दूर” अब “पार्टनर” कहलाता है, पर पेट्रोल उसी के पैसे से, बीमा उसका, रिस्क उसका; मुनाफ़ा किसका—ऐप का। मार्क्स के “अधिशेष मूल्य” की नई शक्ल यही है: हर डिलीवरी में श्रम का एक टुकड़ा प्लेटफ़ॉर्म निगल जाता है, और राइडर को धन्यवाद में मिलता है—“बैज” बेस्ट परफोर्मिंग पार्टनर का बैज । कमोडिटी फ़ेटिशिज़्म भी देखिए—ग्राहक दरवाज़े तक पहुंचते “गरम-गरम” खाने की पूजा करता है; जिसने पसीना बहाया, वह ऐप के मैप पर सिर्फ़ एक नीला तीर है।
बेरोज़गारी का चित्रण फिल्म का धड़कता दिल है। फैक्ट्री बंद होने से जो लोग “पक्के रोज़गार” से “पक्की अनिश्चितता” में आए—उनके चेहरे पर फिल्म कैमरा टिकाकर पूछती है: “अगला ऑर्डर कहाँ से आएगा?” शहरों की ओर आ रहे युवाओं की भीड़—रूरल से अर्बन की सनातन यात्रा—यहाँ भीड़ पैदल नहीं, बाइक पर चलती है, फिर भी पहुंचती वहीं है जहाँ किराया बढ़ता है और उम्मीदें सिकुड़ती हैं। गाँव में खेत छोटा था, शहर में कमरा छोटा है; फर्क सिर्फ इतना कि गाँव में मौसम रूठता था, शहर में एल्गोरिदम। नौकरी का सवाल स्टील के ताले जैसा है—जिसकी चाबी किसी HR के पास नहीं, किसी ऐप के पास भी नहीं—सिर्फ़ “डिमांड कर्व” के पास है, जो कभी ऊपर नहीं देखता।
ह्यूमर? बहुत महीन—न तुम पर हँसता, न किरदार पर; बस उस व्यवस्था पर मुस्कुरा देता है जहाँ 4.9 स्टार वाले राइडर को 3-स्टार देकर ग्राहक अपना नैतिक कर्तव्य निभा देता है। एक गलत लेन, एक गलत मोड़, एक गलत मिनट—और पूरा दिन “गलत।” फिल्म चुटकुला नहीं सुनाती, वो वह क्षण दिखाती है जब डिलीवरी बॉय के हाथ में आया खाना घर जाकर उसके बच्चों के लिए सपनों की “बचत” बनता है—और अक्सर वही बचत पेट्रोल में जल जाती है। लेकिन ज़रा सोचिए, एक ग्राहक से हल्की-सी बहस हो जाए, और ग्राहक को किसी शराबी की दुर्दशा पर तरस आ जाए—तो वह उसी डिलीवरी बॉय को शराबी साबित कर देता है। कंपनी बिना जाँच-पड़ताल के आईडी ब्लॉक कर देती है। नौकरी का भविष्य अब मेहनत से नहीं, एक क्लिक और एक झूठे फीडबैक से तय होता है। सच मानिए, ग्राहक अब भगवान नहीं रहा—छोटा-सा तानाशाह बन बैठा है।
कहानी एपिसोडिक है—जैसे शहर में जीने की कहानी होती है: छोटे-छोटे अपमान, छोटी-छोटी जीतें, और बहुत-सी प्रतीक्षा। यही जगह कुछ दर्शकों को “धीमापन” लगेगी; पर जीवन की असल स्पीड लिमिट यही है—हाईवे पर 80, लेकिन इस धड़कते हृदय में 8 की । कपिल शर्मा यहाँ चौंकाते हैं; कॉमेडी की टाइमिंग को ट्रैजिक टाइमिंग में बदलना आसान नहीं—उन्होंने किया। शाहाना हर सीन में घर की दीवार बनती हैं—नज़र नहीं आतीं, पर गिरें तो सब उजड़ जाए।
फिल्म की सबसे बड़ी बहस यह उठाती है कि “काम” और “रोज़गार” एक नहीं हैं। काम है—बहुत है—हर मोड़ पर है; कहते हैं रोज़गार वह अनुबंध है जो मानव को गरिमा देता है: बीमा, सुरक्षा, अवकाश l लेकिन यहाँ “कल फिर आना” का एक फीका सा भरोसा । गिग वर्ल्ड में “कल” एक कोड है जो रात को अपडेट हो सकता है—तुम हो भी सकते हो, नहीं भी। मार्क्स के शब्दों में कहें तो “एलिएनेशन” अब मिल की मशीन से नहीं, मोबाइल स्क्रीन से हो रहा है: आदमी अपने श्रम से नहीं, अपने मैप-पिन से पहचाना जा रहा है। एक डिलीवरी बॉय रोज़ दर्जनों घरों तक गर्म खाना पहुँचाता है,लेकिन उसके अपने घर में बच्चों को कई बार ठंडा खाना मिलता है।उसका श्रम दूसरों के लिए “सुविधा” है, पर उसके लिए सिर्फ़ “थकान।” यही है एलिएनेशन—वह स्थिति है जब इंसान का श्रम, उसकी रचनात्मकता और उसकी पहचान उससे छिनकर किसी और की संपत्ति बन जाती है, और वह अपने ही श्रम का गुलाम हो जाता है।
क्या फिल्म परफ़ेक्ट है? नहीं—कहीं-कहीं आर्ट-हाउस का प्रयोग संवादों की धार कुंद कर देता है, क्लाइमैक्स उम्मीद से कम विस्फोटक है, और कुछ सबटेक्स्ट सीधे कहे बिना भी कहा जा सकता था। पर यह छोटी कमियाँ उस बड़े आईने को धुंधला नहीं करतीं जो फिल्म हमारे सामने रखती है। यह “मनोरंजन” से ज़्यादा “मुक्तिबोध” की तरह बेचैनी देती है—कि अगले ऑर्डर के बीच एक मनुष्य भी रहता है।
फिर भी ओटीटी के इस ज़माने में नुडिटी,सेक्स, वल्गारिटी,अंधाधुन्द गालियों और एबसुरड टाइप थोपने के चक्कर में बन रहे कचरे से इतर एक साफ़ सुथरी फिल्म देखने को मिल जाए तो दिन बन ही जाता है l
हम तो यही कहेंगे मित्र —“Zwigato” हंसी नहीं, हिम्मत माँगता है; रेटिंग नहीं, रिश्ते याद दिलाता है; और यह भी कि बेरोज़गारी को नंबरों में नहीं, चेहरों में पढ़ना चाहिए। आप चाहें तो इसे “धीमी” कह लें, पर याद रखिए—जो कहानियाँ धीरे पकती हैं, वही पेट नहीं, समाज भी भरती हैं। “मेरी तरफ़ से बस एक ही निवेदन है—फिल्म देखिए, और दरवाज़ा खुलने पर अगले राइडर को सिर्फ़ ओटीपी ही नहीं, एक सच्ची मुस्कान भी दीजिए। याद रखिए, आपके दो सेकंड का अपनापन उसके पूरे दिन का मूड बदल सकता है। कई बार इंसेंटिव ऐप से नहीं, इंसानियत से मिलता है—और उसका असर पेट्रोल से भी ज़्यादा देर तक चलता है।”

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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