क्वांटम फिजिक्स और अध्यात्म: जब ‘वेव’ वेदांत से हाथ मिलाती है
कभी सोचा है—एक ही चीज़ कैसे दो रूपों में जी सकती है? क्वांटम दुनिया कहती है: रोशनी हो या इलेक्ट्रॉन, कभी लहर (वेव) की तरह फैलते हैं, कभी कण (पार्टिकल) की तरह टिक जाते हैं। अद्वैत वेदांत कहता है: “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”—सब वही एक सत्ता है, रूप बस बदलते हैं। विज्ञान का ‘ड्युअलिटी’ और वेदांत का ‘एकत्व’—दोनों जैसे एक ही शीशे की दो सतहें; इधर से देखो तो लहरें, उधर से देखो तो कण, पर काँच वही है।
शुरुआत डबल-स्लिट से करते हैं, क्योंकि यहीं खेल खुलता है। आप फोटॉन/इलेक्ट्रॉन को दो बारीक छेदों से गुज़ारिए, स्क्रीन पर पैटर्न बनती है—दो ठप्पे नहीं, बल्कि तरंगों का इंटरफेरेंस। यानी सूक्ष्म कण लहरों की तरह बर्ताव करते हैं। पर जैसे ही आप “देखने” का साधन लगा देते हैं—साहब, तुरंत तेवर बदलते हैं; पैटर्न गायब, दो कण-जैसे निशान हाज़िर। इसे लोग ‘ऑब्ज़र्वर इफेक्ट’ कहकर रहस्य बना देते हैं—“देखोगे तो दुनिया बदल जाएगी!” अध्यात्म के नाम पर यहीं अक्सर D.I.Y. दर्शन बेचा जाता है। पर आधुनिक व्याख्या कहती है—यह जादू नहीं, ‘क्वांटम डीकौहेरेंस’ है: आपके मापन की ठेलमठेल से तरंगों का ‘सिंक’ टूट जाता है, इसलिए लहर वाला पैटर्न नहीं बन पाता। जैसे गरबा में सब एक ताल पर घूम रहे हों; भीड़ बढ़ते ही कदम बिगड़ें, ताल बिखरे—बस, वही डीकौहेरेंस।
तो क्या वेदांत का “एक” और क्वांटम का “दो” आमने-सामने हैं? नहीं—दोनों अपना-अपना लेंस पकड़े खड़े हैं। वेदांत ‘ब्रह्म’ को आधार मानता है: एक ऐसी निरपेक्ष सत्ता, जिससे कई नाम-रूप खिलते हैं। क्वांटम कहता है: सूक्ष्म स्तर पर ‘विमर्श’ (इंटरैक्शन) से संभावनाएँ सिमटकर एक विशेष परिणाम में ढलती हैं। एक इसे चेतना की भाषा में कहता है, दूसरा गणित की। दोनों का इशारा—रूप बदलते हैं, आधार एक है—पर दोनों की कार्य-प्रणाली अलग है।
अब चेतना पर आते हैं—सबसे पेचीदा गाँठ। विज्ञान अभी भी यह मानकीकृत उत्तर नहीं देता कि ‘कॉन्शसनेस’ क्या है; बस इतना दिखता है कि मापन/पर्यावरण के साथ अंतःक्रिया से तरंग-स्वभाव ‘कण-सरीखा’ दिखने लगता है। अध्यात्म कहता है—साक्षीभाव, ‘द्रष्टा’ की स्थिति, जिसमें घटनाएँ उठती-बैठती हैं। दिलचस्प यह है कि ‘द्रष्टा’ का विचार और ‘मेज़रमेंट’ का विचार—दोनों “ध्यान कहाँ पड़ रहा है” वाले बिंदु को केंद्र में लाते हैं; हाँ, तरीक़ा अलग-अलग है—एक साधना, एक प्रयोगशाला।
कई लोग यहीं फिसलते हैं: “विज्ञान ने साबित कर दिया कि देखने से चाँद बनता है!”—यह आधा सच है और आधा शरारत। क्वांटम स्केल पर ‘संभावनाएँ’ हैं; बड़े पैमाने पर—जहाँ टेनिस बॉल में दस क्वॉड्रिलियन परमाणु एक साथ ताल में आ ही नहीं सकते—तरंगों की बारीकी औसत होकर ठोस-धरोहर बन जाती है। इसलिए आपकी मेज़ रोज़ सुबह “लहर” बनकर रसोई में नहीं टहलती। ब्रह्मांड ने मैक्रो-लेवल पर स्थिरता का भी इंतज़ाम रख छोड़ा है—यही कारण है कि जहाज़ सुरक्षित उतरते हैं, दवाइयाँ असर करती हैं, और गुरुत्वाकर्षण रोज़ छुट्टी पर नहीं जाता।
पर यह स्थिरता ‘ऊर्जा’ से ही बनी है—यही तो क्वांटम का सुर है: अस्तित्व का सूक्ष्म संगीत ऊर्जा की लय में धड़कता है। वेदांत भी ध्वनि/ओंकार को सृष्टि का आरंभिक स्पंदन कहकर संकेत देता है। दोनों ही फ्रेम हमें यह सूझ देते हैं कि ठोस का गर्व ज़रा ढीला रखें—आधार में स्पंदन है; रूप आते-जाते हैं।
तो क्या वैज्ञानिक अब आध्यात्मिक ग्रंथ पढ़ रहे हैं? कुछ ज़रूर झाँकते हैं—क्योंकि भाषा अलग हो, प्रश्न तो वही पुराने: “मैं कौन?”, “यह जगत क्या?”, “चेतना कहाँ से?”—कभी सूत्रों में पूछे गए, कभी समीकरणों में। पर याद रहे: ग्रंथ का लक्ष्य ‘बोध’ है, प्रयोगशाला का लक्ष्य ‘मापन’। कोई भी दूसरे की जगह नहीं लेता, पर दोनों साथ चलें तो दृष्टि चौड़ी होती है—जैसे एक आँख दर्शन, दूसरी विज्ञान; दोनों खुली हों तभी गहराई दिखती है।
और अद्वैत? उसे यूँ समझिए—समुद्र एक है, तरंगें अनेक। क्वांटम कहता है—सूक्ष्म पर ‘वेव’ की तरह फैलो, अंतःक्रिया पर ‘पार्टिकल’ की तरह टिक जाओ; अद्वैत कहता है—लहर चाहे चंचल हो या तट से टकराकर लौट आए, मिलनी उसी समुद्र से है ।
एक सावधानी तो स्पष्ट करना जरूरी है : वैज्ञानिक निष्कर्षों को आध्यात्मिक नारे और आध्यात्मिक सूत्रों को वैज्ञानिक फ़ॉर्मूला मत बनाइए। दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अनुशासन माँगते हैं—यहाँ साधना, वहाँ डेटा। पर जब दोनों की भाषा का रस मिलता है, तो एक सुथरी सी पंक्ति उभरती है: हम सब ऊर्जा के स्वर हैं—कभी तरंग, कभी कण—और वही अद्वैत का इशारा भी है कि “जो दिख रहा है, वह अलग-अलग लगता ज़रूर है, पर आधार में एक ही संगीत बज रहा है।”

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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