इंस्पेक्टर जेंडे –रिव्यु
OTT पर कोई ढंग की कॉमेडी-फैमिली ड्रामा मूवी या सीरीज़ खोज ही रहा था कि अचानक नज़र Netflix पर इस फ़िल्म पर पड़ गई। फ़िल्म का टाइम ड्यूरेशन भी कम नहीं—पूरे डेढ़ सौ मिनट का है। सोचा कि इस पर अपना कीमती समय लगाने से पहले ज़रा इसका रिव्यू खंगाल लिया जाए, ताकि बाद में पछताना न पड़े।
कभी-कभी मन में सवाल उठता है कि आखिर क्यों अब उम्र के इस पड़ाव पर हिंसा, खून-खराबे और अंधेरे भरे दृश्यों वाली फिल्में देखना मुश्किल लगता है। गालियाँ, न्यूड और वल्गर सीन से लदी सीरीज़ भी झेलना भारी पड़ने लगी हैं। द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में देख लीं, लेकिन मन ने कहा – बस, अब और नहीं। दिमाग को सिर्फ़ और सिर्फ़ भारी करना हो तो वैसी फिल्में बार-बार क्यों देखी जाएँ? यही वजह है कि बंगाल फाइल्स जैसी नई “फाइल” से मैंने खुद को दूर रखा। और इसी मानसिकता के बीच Inspector Zende जैसी फिल्म सामने आई, जिसने उम्मीद से उलट हल्की-फुल्की, मगर असरदार कहानी पेश कर दी।
मनोज बाजपेयी: किरदारों के ‘जादूगर’
मनोज बाजपेयी का नाम आते ही दिमाग शूल के समर प्रताप सिंह और फैमिली मैन के श्रीकांत तिवारी को याद करता है। पुलिस की वर्दी को जितनी शिद्दत से उन्होंने जिया है, शायद ही किसी और ने निभाया हो। Inspector Zende में वे मधुकर बी. जेंडे बनकर लौटे हैं—वह इंस्पेक्टर जिसने चार्ल्स शोभराज जैसे कुख्यात अपराधी को दो बार पकड़ा था। फर्क बस इतना है कि यह फिल्म ‘क्राइम ड्रामा’ के बोझिल घेरे में फँसती नहीं है, बल्कि मुस्कुराहट और हल्के व्यंग्य के साथ दर्शकों को जोड़ती है।
बिल्ली-चूहे का खेल, मगर ट्विस्ट भरा
फिल्म की कहानी 1980 के दशक में सेट है। तिहाड़ जेल से भागा कुख्यात सीरियल किलर ‘काल भोजराज’ (जिम सरब) अपने जन्मदिन पर जेल के अफसरों को नशीली खीर खिला कर चंपत हो जाता है। और तभी एंट्री होती है जेंडे साहब की। 15 साल पहले चार्ल्स को पकड़ चुके इस ईमानदार पुलिस वाले को जैसे ही खबर मिलती है, उसका रोमांच जाग उठता है—“मैदान में वापसी का वक्त आ गया है।”
काल भोजराज यहाँ स्विमसूट किलर के नाम से बदनाम है—चालाक, सलीकेदार और मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में माहिर। जिम सरब हर सीन में दर्शकों को एक्सरे की तरह देख लेते हैं। उदाहरण के तौर पर, वह एक महिला से मुस्कुराकर कहता है कि “आप बेहतर के हकदार हैं”—जबकि अभी-अभी उसके बॉस को बंदूक की नोक पर लूटकर आया है। यही दोहरापन फिल्म को मज़ेदार बनाता है।
अभिनय की असली ताक़त
मनोज बाजपेयी यहाँ केवल इंस्पेक्टर नहीं, बल्कि हर घर का आदमी हैं। उनकी आँखों में ईमानदारी, चेहरे पर जिम्मेदारी और संवादों में सहजता—ये सब उन्हें बाक़ी पुलिस किरदारों से अलग खड़ा कर देते हैं। पत्नी का उन्हें प्यार से “कमिश्नर” कहना भी कहानी को घरेलू रंग देता है।
जिम सरब बतौर विलेन काल भोजराज डराते कम और खिझाते ज़्यादा हैं। उनका ठंडा, तंज भरा अंदाज़ आपको असहज कर देता है। वहीं, सपोर्टिंग कास्ट—भालचंद्र कदम, सचिन खेड़ेकर और ओमकार राउत—भी कहानी को वास्तविकता से जोड़ते हैं।
डायरेक्शन और ट्रीटमेंट
इस फिल्म का सबसे बड़ा जादू है इसका ट्रीटमेंट। द कश्मीर फाइल्स में खलनायक की भूमिका निभा चुके चिन्मय मांडलेकर ने यहाँ निर्देशक की कुर्सी संभाली है। उन्होंने गंभीर विषय को हल्के, सिचुएशनल ह्यूमर और नॉस्टैल्जिया के साथ परोसा है।
1980 के दशक का माहौल—कपड़े, बेल बॉटम पेंट,सेट-डिज़ाइन, बैकग्राउंड म्यूज़िक—सब कुछ दर्शक को उसी दौर में ले जाता है। कई चेस सीक्वेंसेस में बजता आर.डी. बर्मन-स्टाइल म्यूजिक कानों में पुरानी रेडियो तरंगों जैसी मिठास घोलता है।
क्या फिल्म देखनी चाहिए?
तो सवाल यही कि Inspector Zende को क्यों देखा जाए?
- क्योंकि यह क्राइम कॉमेडी का एक ताज़ा प्रयोग है।
- क्योंकि इसमें न गालियों का ओवरडोज़ है, न ही खून-खराबे का आतंक।
- क्योंकि मनोज बाजपेयी अपने हर फ्रेम में ‘जिंदा’ हैं।
- और क्योंकि यह हमें बताती है कि गंभीर सब्जेक्ट को भी हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा जा सकता है।
तो सौ बातों की एक बात ये है मित्र कि Inspector Zende उस ताज़ी हवा के झोंके जैसी फिल्म है, जिसे आप बिना तनाव के, परिवार के साथ बैठकर भी देख सकते हैं। यह आपको हँसाती है, गुदगुदाती है और बीच-बीच में सोचने पर मजबूर करती है।
अगर आप द बंगाल फाइल्स जैसे भारी विषयों को अभी टालना चाहते हैं, और वीकेंड पर घर बैठे एक दिलचस्प, सधी हुई और कमर्शियल फॉर्मूलों से अलग फिल्म देखना चाहते हैं—तो Inspector Zende नेटफ्लिक्स पर आपकी सही चॉइस है।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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बहुत खूब 👍