हिंदी हैं हम हिंदोस्ता हमारा
हिंदी—जिसे हम रोज़ कमीज़ की तरह पहन लेते हैं और त्यौहार पर साड़ी की पल्लू-सी संभाल लेते हैं—वही अपनी औलादों से पूछती है: “बेटा, मुझे साल में एक दिन क्यों बुलाते हो? 14 सितम्बर को शगुन चढ़ा दोगे तो बाकी 364 दिन मैं वॉशिंग मशीन में घूमती रहूँ?” जवाब में हम सब मुस्कुरा देते हैं, मंच सजा देते हैं, माला-शाला चढ़ा देते हैं, भाषण में “अभिवादन” के साथ “एप्रिशिएशन” भी घुसा देते हैं, और मन ही मन सोचते हैं—हिंदी अच्छी है, पर अंग्रेज़ी “ऑल-इन-वन क्रीम” है; चेहरे पर लगाओ, मौके पर चकाचक!
मुद्दा यह नहीं कि सरकारें हिंदी के लिए क्या करती हैं; मुद्दा यह है कि भाषा को आप मैनेज कर सकते हैं, कंट्रोल नहीं। कविता हो, संगीत हो, विश्वास हो—ये सब बारात हैं; जुलूस का रस्ता तो तय कर सकते हैं, नाचना रोक नहीं सकते। हिंदी भी वैसी ही बारात है: रास्ते में रोकोगे तो और ऊँची ‘हुर्र’ निकलेगी, खुली सड़कों पर चलाओगे तो अपने ही ताल पर आगे बढ़ेगी। इसलिए राजभाषा के कमरे में फाइलें भले बढ़ें, भाषा की धड़कन श्रोताओं की छाती पर बजती है—वहीं से उसकी सांस चलती है।
हमारे यहाँ भाषाई हीनभावना का इलाज भी बड़ा देसी है: “बोला करो—और खूब बोला करो।” विदेश की ज़मीन पर पैर रखते ही जो लोग “हाउ डू यू डू, माय कंट्री” की धुन पर थिरकने लगते हैं, उन्हें घर लौटते समय बस एक प्रयोग करना चाहिए—फ्लाइट अटेंडेंट से मुस्कुराकर कहना: “धन्यवाद।” देखिए, दोहराएगी। भाषा का वर्चस्व ताक़त से आता है, पर टिकाऊपन भाव से आता है। पंजाबी ने यह काम खूब किया—लस्सी से लेकर ‘दीदी’ तक पूरे घर में पहुँचा दी; हिंदी ने भी वही करना है—दही जमानी है, जुमले नहीं।
नौजवान से पूछिए—वह कहेगा, विज्ञान और टेक्नोलॉजी का ज़माना है, हिंदी कहाँ? पर एआई जितना बढ़ेगा, संवेदना उतनी ही कीमती होगी। मशीनें चार्टर्ड फ्लाइट में बैठाकर शब्द पहुँचा सकती हैं, दिल की धड़कन का पासपोर्ट फिर भी इंसान ही बनाता है। कविता, कथा, मुहावरा—ये सब वही ‘हार्डवेयर’ हैं जिन पर समाज का ‘सॉफ्टवेयर’ चलता है। राम–कृष्ण की चर्चा आपको पुरातन लगे, पर वही तो “माया-पति बनाम मायावी” का कोड-रिव्यू है—तकनीक को हथियार बनाइए, आहार नहीं। वर्ना ऐप अपग्रेड होगा, आप डाउनग्रेड।
हिंदी की यात्रा किसी एक प्रांत की रेल-लाइन नहीं; यह तो संपूर्ण उपमहाद्वीप की पटरियों पर दौड़ती मालगाड़ी है—कहीं ब्रज की छोरी चछिया भरी छाछ लेकर चढ़ी है, कहीं अवधी का खेत, कहीं बुंदेली की पहाड़ी, कहीं मगही का मटमैला घड़ा। यह मिश्रण ही हमारी समृद्धि है। शुद्धता का आग्रह वहाँ तक ठीक है जहाँ तक भाव सुरक्षित रहें; उसके आगे वह “इन-लॉ” वाला रिश्तेदारी-फॉर्म भरवा देता है। हिंदी ने ‘भाभी’ बनाकर घर बचाया; अंग्रेज़ी ने ‘सिस्टर-इन-लॉ’ बनाकर केस ऐसा लिखा कि रिश्ता भी कोर्ट-कम्पाउंडर लगने लगे।
हाँ, एक सच्चाई और—हिंदी तभी प्रगाढ़ बनेगी जब वह आर्थिक रूप से भी सम्मानजनक होगी। गायक का मानदेय लाखों में तय करना आसान, कवि के लिए पाँच हज़ार की फाइल घूमानी ज़रूरी—यह जो ‘सर्कुलर-राज’ है, यही हमारे आत्म-सम्मान की चिट्ठी खा जाता है। जिस भाषा में आप फैक्ट्री के फ़्लोर से लेकर पावर ग्रिड तक आदेश सुनाते हैं, उसी भाषा का बिल पास करने में कंजूसी क्यों? हिंदी “नॉन-एसेट” नहीं, हिंदी वह माध्यम है जिसमें सारे एसेट खड़े हैं। जो बैंकिंग की डील बताती है, उसी को बैलेंस शीट में जगह मत काटिए।
हिंदी दिवस का असली अर्थ यही है कि जिस भाषा में बच्चा “मम्मी दूध” बोलता है, उसी में बड़ा होकर “मुझे मौक़ा दीजिए” भी न झिझककर कहे। मंच पर जितनी माला चढ़ानी हो चढ़ाइए, पर स्कूल के कॉरिडोर, स्टार्टअप के पिच-डेक, अस्पताल के काउंटर और अदालत की दलीलों में हिंदी की सुचारु, सुरुचिपूर्ण मौजूदगी सुनिश्चित करिए। यह दिन न स्मृति-लेन हो, न सांस्कृतिक फोटो-ऑप—यह वार्षिक एमओयू हो, जिसमें हम तय करें: अगले बारह महीनों में विज्ञान, वित्त, नीति और न्याय के चारों ‘जंक्शन’ पर हिंदी की नई-नई ट्रेनें चलानी हैं—समय पर, सलीके से, ससम्मान।
और हाँ, साहित्य की दो धाराएँ—पुस्तकी और मंचीय—एक-दूसरे को आँख न दिखाएँ। कविता वही जो कंठ पर चढ़ जाए; छंद वही जो भावों का ट्रैफ़िक कंट्रोल करे, न कि सायरन बजाकर भीड़ बढ़ाए। मुक्तछंद का अर्थ “छंद-मुक्ति” नहीं; और तात्कालिक ताली किसी शाश्वत पंक्ति का विकल्प नहीं। जो विश्वविद्यालय में पढ़ता है, मंच पर भी बजना चाहिए; जो मंच पर गूंजता है, पाठ्यक्रम में भी दर्ज होना चाहिए। गाली से तालियाँ आती हैं, पर भाषा के भाग्य नहीं बदलते; भाषा तब बदलती है जब शब्द, शिष्टता और शउर—तीनों साथ चलते हैं।
विदेशी वर्चस्व के अहंकार का इलाज भी भाषा से ही निकलता है। एयरपोर्ट की काउंटर-गर्ल जब “माय कंट्री” का झंडा लहराती है तो मुस्कुरा कर कह दीजिए—“आपके पुरखे जितने दिन रहे, उससे कम ही रुकूँगा।” दुनिया समझती है आत्मविश्वास की भाषा—चाहे वह हिंदी में बोली जाए या मुस्कान में। विकल्पों के इस बाजार में हिंदी कोई ‘बजट ब्रांड’ नहीं—यह प्रीमियम वही क्षण बनती है जब हम उसे अपनी सर्वोत्तम रचनाओं से, सर्वोत्तम कामकाज से, सर्वोत्तम व्यवहार से जोड़ते हैं। टैगोर बंगला में नोबेल तक पहुँचे; हमें हिंदी में ऐसे कालजयी काम करने हैं कि नाइजीरिया की बस में भी हमारी पंक्तियाँ गाई जाएँ, तंज़ानिया के बाजार में हमारे मुहावरे मोल-भाव करें, और स्वीडन की सर्द रात में हमारे दोहे रजाई बन जाएँ।
योजना सरल है, पर अनुशासन मांगती है—घर में बच्चों से हिंदी में बात, दफ़्तर में फाइल की पहली ड्राफ्ट हिंदी में, विज्ञान-पत्रिका में हिंदी सारांश अनिवार्य, स्टार्टअप डेक में समस्या-परिभाषा हिंदी में, और अदालत में सारस्वत अनुवाद के साथ हिंदी दलील। टेक्नोलॉजी की मदद लीजिए—ट्रांसलिटरेशन, स्पीच-टू-टेक्स्ट, अनुवाद एप—सब साधन हैं; पर साध्य एक ही—अर्थ, आत्मा और अनुपस्थित अहंकार के साथ हिंदी का निर्भीक प्रवाह।
भाषा माताओं से बड़ी होती है, शामियानों से नहीं। जो भाषा बेटों–बेटियों को वैश्विक मंच पर निर्भीक बना दे, वही राष्ट्र की पहचान लिखती है। हिंदी के पास तुलसी का शौर्य है, कबीर की खरोंच है, सूर का लोरीघर है, महादेवी की नमी है, निराला की धड़कन है, नीरज की रोशनी है—और सबसे बढ़कर, आपके मेरे रोज़मर्रा की साँस है। आप चाहें तो इसे “राजभाषा” कहिए, हम चाहें तो “राष्ट्रभाषा”—पर इससे भी बड़ा ख़िताब है: “मेरी भाषा।” जब यह भरोसा जीभ पर चढ़ जाता है, तब कोई दीवाना कहे या समझदार—हिंदी आपकी नहीं, आप हिंदी के हो जाते हैं। और यक़ीन मानिए, वही क्षण हिंदी का असली दिवस है—जो कैलेंडर में नहीं, कंठ में आता है।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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