आँगन में पसरा हुआ मातमी सन्नाटा था। बरामदे के बीचोंबीच माँ का पार्थिव शरीर सफ़ेद चादर में लिपटा पड़ा था और उसके पास ही बैठा वह आदमी—शहर का सबसे धनी, सबसे चर्चित इंसान—बेसुध-सा विलाप कर रहा था। यह वही आदमी था जिसकी अमीरी, ऐशो-आराम और शानो-शौकत के किस्से पूरे शहर में मशहूर थे। लोग उसे उसकी रहमदिली और दरियादिली के लिए जानते थे। कितनी बार मोहल्लेवालों ने देखा था कि वह दूसरों के दुख-सुख में शामिल होता, किसी की पीड़ा को सहलाता, किसी के आँसुओं को ढांढस बँधाता। लेकिन आज, अपनी माँ के बिछुड़ जाने की इस अप्रत्याशित विपदा में, वही आदमी इतना बेसुध और लाचार दिख रहा था कि उसके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
उसके रोने की आवाज़ पूरे मोहल्ले में गूँज उठी। हर कान तक वह दस्तक पहुँची और जिसने सुना, दौड़ा-दौड़ा चला आया। लोग उसे धीरज बँधाने लगे। कोई कह रहा था—“माँ की खूब सेवा की थी, मौत तो आनी ही थी। भला हुआ, भगवान ने समय पर बुला लिया।” कोई जोड़ता—“एक उम्र होती है जाने की, भाग्यशाली हैं वह, वरना और ज़्यादा दुख में देह झेलतीं तो कैसा होता?” लेकिन उस आदमी की आँखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बार-बार वह बस एक ही बात दोहराता—“मेरी माँ को इन दीवारों ने मार डाला। काश ये दीवारें बोल उठतीं।”
लोग स्तब्ध होकर उसकी बात सुन रहे थे। हर कोई जानना चाहता था कि आखिर वह ऐसा क्यों कह रहा है। उसकी टूटी-फूटी आवाज़ में दबी हुई कथा बाहर आने लगी। उसने कहना शुरू किया—“हम बहुत गरीब थे। माँ कई घरों में कपड़े धोती थीं, बर्तन माँजती थीं और रात को थकी-हारी घर लौटती थीं। हम चार भाई-बहन और माँ-बाप, सब एक ही कमरे में सिमटे रहते थे। माँ अगर रात को करवट भी लेतीं तो हम सब जाग जाते थे। हर कोई एक-दूसरे का ख़याल रखता, यहाँ तक कि मौन आवाज़ें भी सुन लेते थे।”
वह यादों में खोते-खोते कहने लगा—“माँ की मेहनत और आशीर्वाद से हम सब पढ़े-लिखे, बड़े हुए और आज सब अपनी जगह पर हैं। माँ ने अपनी पूरी ज़िंदगी अभावों में गुज़ार दी। मेरी बस एक ही ख्वाहिश थी कि बुढ़ापे में उनके जीवन को सुख-सुविधाओं से भर दूँ। मैंने यह महल उनके लिए ही बनाया था—उनके लिए अलग कमरा, पूजा घर, नौकर-चाकर सबकुछ सजाया। पर हुआ क्या? वही माँ, जो हमारी हल्की-सी करवट पर भी जाग जाती थीं, रात को कब चली गईं हमें पता ही न चला। वह शायद चीखी होंगी, आवाज़ दी होगी, पर इन दीवारों ने सुनने नहीं दिया। इन दीवारों ने माँ की पुकार रोक दी। अगर मैंने उनकी आवाज़ सुन ली होती, तो शायद अस्पताल ले जा सकता था, शायद बचा सकता था। लेकिन इन सुख-सुविधाओं ने मेरी माँ की आवाज़ को खामोश कर दिया। काश ये दीवारें बोल उठतीं, काश इन्होंने माँ की पुकार सुना दी होती।”
उसकी सिसकियाँ अब गहरे विलाप में बदल चुकी थीं। लोग निशब्द खड़े थे। किसी के पास कोई जवाब नहीं था। महल की ऊँची-ऊँची दीवारें खामोशी से उस बेटे के आँसू देख रही थीं। शायद दीवारें भी चाहती होंगी कि काश वे बोल सकतीं—मगर वे बस ठंडी, बेजान पत्थर बनी रहीं।
✍️ रचनाकार – डॉ. मुकेश असीमित

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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