लेखक, शॉल और सोहन पापड़ी
लेखक और शॉल का रिश्ता वही है जो संसद और हंगामे का होता है—एक-दूसरे के बिना अधूरा। किसी साहित्यिक आयोजन की कल्पना कीजिए, जहाँ लेखक महोदय मंच पर बुलाए जाएँ और उन्हें शॉल न ओढ़ाई जाए—तो वह दृश्य उतना ही असंभव लगेगा जितना बारिश में बिना गड्ढों वाली सड़क का दिखना। शॉल ओढ़ना लेखक के लिए किसी राजा के मुकुट धारण करने से कम गौरवशाली नहीं होगा । यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई—यह बताना कठिन है। शायद उसी दिन जब किसी दिवंगत शरीर को पंचतत्व में विलीन करने से पहले ससुराल पक्ष की ओर से शॉल ओढ़ाई जाती रही होगी। फर्क बस इतना है कि लेखक को यह सम्मान जीते-जी मिल जाता है, उसके लिए मरना जरूरी नहीं पड़ता। यही तो बड़ी उपलब्धि है।
अब सवाल उठता है कि आखिर यह शॉल की अनवरत आपूर्ति होती कहाँ से है? क्योंकि समाज में जितने शॉल बुनकरों के घर में,खादी मार्किट में नहीं मिलते, उससे कहीं अधिक संख्या में शॉल सम्मान समारोहों में खपते हैं। यह देखकर मुझे गणेश मंदिर के लड्डू याद आ जाते हैं। हमारे मोहल्ले के गणेश मंदिर के नीचे मंदिर के द्वारा ही संचालित अधिकृत लड्डू की दुकान थी। वहाँ लड्डू नित्य-नूतन रूप में पुनर्चक्रित होते रहते थे—एक भक्त चढ़ाता, दूसरा भक्त वही लड्डू प्रसाद के नाम पर वापस खरीद लेता। वही लड्डू, वही मिठास—बस यात्रा अलग-अलग आस्थावानों के हाथों की। शायद शॉल की यह सतत उपलब्धता उसी विचार से जन्मी है। शॉल भी वही यात्रा करता है, जो सोहन पापड़ी करती है।
लेखक चाहे शरीर से नश्वर हो जाए, पर शॉल में उसकी आत्मा समा जाती है। शॉल अमर रहता है। समस्या बस उसके निस्तारण की है। शॉल, सोहन पापड़ी की तरह, ‘डिस्पोजेबल’ नहीं होता। उसका रीसायकल होना अनिवार्य है। सोहन पापड़ी भी तो वैसी ही चीज़ है—प्लास्टिक जैसी। कई बार जब उसके एक टुकड़े को मुँह में डालो तो वह स्वाद में सचमुच प्लास्टिक-सा अहसास देता है। ऐसे में न खाई जा सकती है, न फेंकी जा सकती है। और अगर गलती से फेंक भी दी जाए, तो मोहल्ले की गली-कूचों में घूमते बेचारे निरीह प्राणी उसके टुकड़ों से वैसे ही पीड़ित होते हैं, जैसे लेखक अपनी आलोचना से। इसलिए एक ही उपाय बचता है—रीसायकल। और यही प्रक्रिया अब तो शॉल और सोहन पापड़ी दोनों पर एक समान लागू होती है।
शाल की महिमा अपरम्पार है l लेखक की नग्नता को भी ये छिपा लेते हैं और आयोजकों की नग्नता को भी। मंच पर शॉल ओढ़ा लेखक और आयोजक समिति के हजार हाथों से की गयी पैरावनी (इमेजिन करें जैसे दूल्हा घोडी पर चढ़ने से पहले उसकी पैरावनी हो रही है )—दोनों का मिलाजुला दृश्य बेहद फोटोजेनिक हो जाता है। माला के साथ खतरा यह रहता है कि भीड़ में छीनाझपटी हो तो माला टूट सकती है, मोती बिखर सकते हैं,फूल मुरझा सकते हैं ।कई बार लेखक की गर्दन की मोटाई इतनी अधिक होती है की माला छोटी पड़ती है , लेकिन शॉल के साथ यह जोखिम नहीं है। शॉल लेखक की गरीबी तक को ढँक देता है। हाट से किराये पर लिया गया,या शादी के समय सिलवाया गया एक मात्र सूट अगर जगह-जगह से फटा हो, तो शॉल सब पैबंद छिपा लेता है।
फूल-मालाएँ तो वक्त और परिस्थिति बता देती हैं—किसी के गले में पड़ी हैं या तस्वीर पर चढ़ी हैं। लेकिन शॉल इस मामले में बड़ा तटस्थ है। उसे सम्मानित के गले में ओढ़ा दिया जाए या दिवंगत के शरीर पर—दोनों ही अवस्थाओं में वह समान रूप से ‘गरिमामय’ बना रहता है। फर्क सिर्फ इतना कि सम्मानित व्यक्ति खड़े होकर उसे ग्रहण करता है, और दिवंगत व्यक्ति लेटे-लेटे।
कभी-कभी यही शॉल मंत्रीजी से शुरू होकर पी.ए. साहब तक, फिर उनके घर के स्टोर-रूम तक, और अंततः दीवाली की सफाई में किसी और के घर तक पहुँचा दिया जाता है। कई बार तो वही शॉल श्मशान घाट पर भी पहुँचता है—किसी दिवंगत आत्मा को ओढ़ाने। एक सर्वे के अनुसार शाल की सबसे ज्यादा आपूर्ति या तो नेता के घर से दिवाली पर स्टॉक क्लीयरेंस के समय होती है ,या फिर शवदाह करने वाले डोम परिवार के घर से ।
सोहन पापड़ी और शॉल के साथ अक्सर श्रीफल भी आता है। यह त्रिवेणी है सम्मान की। और ‘लिफाफ़ा’?—वह तो अब विश्विद्यालय के द्वारा डिग्री के पेपर में छपे स्वर्णपदक की तरह है l लिफाफे की आभासी राशी का महत्व अख़बार में छपी खबर तक ही सीमित रह गया है।
असल में शॉल जीवन-दर्शन है। हम क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाएँगे? यही शॉल है जो हमने अर्जित किया है, यही है जिसे आगे किसी और को देकर जाना है। अपने साथ कुछ नहीं ले जाएँगे।
कार्यक्रम से लौटते ही यह शॉल अलमारी की कोख में प्रवेश करता है। फिर किसी दिन वही शॉल अगले सप्ताह किसी और समारोह में निकल पड़ता है—किसी नए लेखक के कंधों पर अपनी अनवरत यात्रा जारी रखने। इसकी यह यात्रा आवश्यक है l अगर किसी मंच ,समिति,आयोग द्वारा ओढ़ाया गया शाल कंधे पर पडा ही रह गया तो धीरे-धीरे लेखक का कंधा, शॉल का बोझ उठाते-उठाते झुक जाएगा l उसकी रीढ़ की हड्डी तक को झुका देता है। यही झुकाव बाद में लेखक की वैचारिक प्रतिबद्धताओं तक पहुँच जाएगा ।नहीं तो शाल ओढाने वालों की तरफ से ओढम्बा मिलना शुरू हो जाएगा l
साथ में दी गई सोहन पापड़ी रिश्तों को जीवंत बनाए रखती है। यह वह पुल है जो औपचारिकता और मिठास के बीच सेतु का काम करता है। कितनी अच्छी बात है कि शॉल और सोहन पपड़ी पर नाम नहीं छपता , ज्यादा से ज्यादा एक स्टिकर लगा होता है—जो बाद में हटाया जा सकता है । पहले दीवार घड़ी दी जाती थी ,या स्टील का कटोरा l दोनों पर आयोजक नाम खुदा देते l उसे रीसायकल के लिए अर्थहीन बना देते l
दरअसल, शॉल और सोहन पापड़ी हमारे समाज की रीसायकल संस्कृति के जीवंत प्रतीक हैं। शॉल सम्मान का कंबल-ऋण है—जिसे समाज से लिया गया है और लौटाना ही पड़ता है। और सोहन पापड़ी रिश्तों की मिठास पर ब्याज है—जिन्हें अगर आपने खा लिया तो आप ‘ब्याजखोर’कहलाओगे इसलिए लौटना जरूरी है ।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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