यह संग्रह पाठकों को समर्पित है—उन सभी साहित्यप्रेमियों को, जो कविता को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर जीवन-सत्य का आईना समझते हैं। प्रस्तुत संकलन “महादेव प्रसाद ‘प्रेमी’ की कुण्डलियाँ” उस परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें छंद की गेयता और लय के माध्यम से नीति, हास्य, व्यंग्य और सामाजिक यथार्थ का सहज चित्रण हुआ है।
कुण्डलिया छंद हिंदी काव्य की अत्यंत लोकप्रिय विधा है। यह छंद दोहा और रोला का अद्भुत संयोग है, जिसमें सात चरण होते हैं—पहले दो चरण दोहे के, अगले चार चरण रोला के और सातवाँ चरण पुनः प्रथम चरण की पुनरावृत्ति करता है। इस पुनरावृत्ति से कविता में कुण्डलाकार पूर्णता और स्मरणीयता आ जाती है। इसी कारण यह छंद कंठस्थ करने योग्य और जनमानस को प्रिय लगता है।
कुण्डलिया का इतिहास समृद्ध है। श्रीधर कविराय और गिरधर कविराय ने इसे अपने सहज और नीति-प्रधान काव्य से जनमानस तक पहुँचाया। श्रीधर कविराय की कुण्डलियाँ गंभीर और संस्कृतनिष्ठ हैं, जबकि गिरधर कविराय की रचनाओं में लोकजीवन की सरलता और आत्मीयता है। यही कारण है कि गिरधर को लोककवि कहा गया।
कालांतर में अनेक कवियों ने कुण्डलिया को अपनाया। इस छंद का स्वर कभी नीति और धर्मोपदेश बना, तो कभी व्यंग्य और हास्य का। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में यही छंद राष्ट्रीय चेतना का वाहक बना। आज भी अनेक कवि सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार और जीवन की विडंबनाओं पर कुण्डलिया के माध्यम से प्रहार करते हैं।
आधुनिक काल में जब छंदमुक्त कविता अधिक प्रचलित हो रही है और कविता की गेयता तथा लय कहीं विलुप्त-सी लग रही है, तब कुण्डलिया छंद हमें स्मरण कराता है कि कविता का असली आकर्षण उसकी सरलता, लय और जनसुलभता में निहित है। बौद्धिक गहराई और गूढ़ दार्शनिकता निस्संदेह साहित्य को गंभीर बनाती है, किंतु उससे कविता आम पाठक से दूर भी हो जाती है। इसके विपरीत कुण्डलिया छंद लोकगीतों की तरह सीधा श्रोता और पाठक के हृदय में उतर जाता है।
इसी परंपरा में महादेव प्रसाद ‘प्रेमी’ की कुण्डलियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इस संग्रह में प्रस्तुत रचनाएँ विविध विषयों को स्पर्श करती हैं—
- सामाजिक और राजनीतिक चेतना : आरक्षण, घोटाला, राजनीति
- हास्य-व्यंग्य : समोसे, आलू के परांठे, डिग्रियाँ
- प्रकृति और ऋतु : वर्षा, हरियाली, सवेरा
- धार्मिक और नैतिक भावभूमि : गणपति वंदना, माँ का मंदिर, चलना सच की राह
‘प्रेमी’ की विशेषता यह है कि वे गंभीर विषयों को भी सहज भाषा और लयात्मक छंद में प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए, ‘डिग्रियाँ’ शीर्षक कुण्डली में शिक्षा और बेरोजगारी की समस्या को उन्होंने इस प्रकार चित्रित किया है—
“डिग्रियां ढ़ेरों पड़ी, योग्यता भरपूर,
चेहरे पर मुस्कान है, अंदर दिल अमचूर।
अंदर दिल अमचूर, युवा हर परेशान है,
आरक्षण इस देश में, बन आया शैतान है,
‘प्रेमी’ अब युवाओं की मुश्किल में है जिंदगियां,
नौकरी दिखती नहीं, ढ़ेरों पड़ी ये डिग्रियां।”
इसी प्रकार हास्य-रस से भरपूर उनकी ‘समोसे’ शीर्षक कुण्डली देखें—
“समोसे को देखकर, कचौरी इतराय,
पकौड़ी के संग में जलेबी मिल जाए।
मिले जलेबी संग, पकौड़ी मिर्च मसाला,
खट्टी-मीठी चटनी के संग खाओ लाला,
‘प्रेमी’ कोई नमकीन बनी ना बने हैं डोसे,
कोई होड़ कर नहीं इनकी, वाह रे वाह समोसे।”
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि कवि ‘प्रेमी’ जीवन के गंभीर प्रश्नों से लेकर रोज़मर्रा की हल्की-फुल्की बातों तक को कुण्डलिया के छंद में ढाल देते हैं। यही उनकी मौलिकता है और यही उनकी कविताओं की व्यापकता।
आज के संदर्भ में यह संग्रह केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि चिंतन और आत्मावलोकन का भी माध्यम है। कुण्डलिया छंद का प्रयोग यहाँ नीति-उपदेश देने, सामाजिक बुराइयों पर प्रहार करने, लोकजीवन की झलक दिखाने और साथ ही हास्य-रस से पाठक को आनंदित करने के लिए हुआ है।
यह संकलन पाठकों को न केवल रस और आनंद प्रदान करेगा, बल्कि उन्हें समाज और जीवन के प्रश्नों पर सोचने के लिए भी प्रेरित करेगा। यही किसी भी साहित्य की वास्तविक सफलता है।
अंत में, मैं यह कहने में संकोच नहीं करता कि महादेव प्रसाद ‘प्रेमी’ का यह कुण्डलिया-संग्रह समकालीन हिंदी साहित्य में छंद-परंपरा को पुनर्जीवित करने की दिशा में एक सार्थक और सशक्त प्रयास है। यह संग्रह हिंदी काव्य-धारा में कुण्डलिया छंद की अमरता का प्रमाण है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत रहेगा।
✍️ यह संग्रह पाठकों को समर्पित है, ताकि वे इन कुण्डलियों के माध्यम से न केवल आनंद प्राप्त करें, बल्कि जीवन और समाज की सच्चाइयों से भी परिचित हो सकें।

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