कचरा गाथा: नाली के सम्राटों की जंग!
सुबह-सुबह घर से मॉर्निंग वॉक के लिए निकला ही था। हाँ, मैं मॉर्निंग वॉक को सुबह ही निपटा लेता हूँ! मेरे दो पड़ोसी, सपरिवार, अपनी आदत से मजबूर होकर आपस में लड़ रहे थे। यह कोई नई बात नहीं थी। अगर हमारी कॉलोनी का कोई स्थायी नियम था, तो वह यह कि सुबह की ताज़ी हवा के साथ गालियों की महक भी मिलनी चाहिए।
झगड़े की वजह थी कचरा। लेकिन कोई साधारण कचरा नहीं, बल्कि एक खास किस्म का जैविक कचरा, जिसे दोनों पड़ोसी रात के अंधेरे का फायदा उठाकर नाली में प्रवाहित कर दिया करते थे। इनका यह दैनिक अनुष्ठान प्रधानमंत्री जी के स्वच्छ भारत अभियान की ऐसी-तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। लेकिन आखिर क्या करें? आदतें जाती नहीं और परंपराएँ टूटती नहीं।
अब तक दोनों परिवार इस कचरा निस्तारण में संतुलन बनाए हुए थे—दोनों परिवारों के बच्चे अपनी-अपनी तरफ की नाली में “लाइन एंड ऑर्डर” मेंटेन करते हुए पंक्तिबद्ध बैठकर इसे अंजाम देते थे। रात के अंधेरे का फायदा उठाकर इन परिवारों की “कचरा वीरों की अर्धसैनिक टुकड़ी” नालियों पर धावा बोलते हुए देखी जा सकती थी।
समस्या तब खड़ी हो गई जब किसी एक पड़ोसी का बच्चा, जो अपनी बालसुलभ चंचलता में इस निस्तारण प्रक्रिया में अति आत्ममुग्धता का शिकार हो गया, दिशा भटक गया और अपना कचरा निर्धारित नाली की बजाय सामने वाली नाली में प्रवाहित कर दिया। इस घटना को अंजाम देते वक्त पता नहीं कैसे उसका निशाना चूक गया कि कुछ अवशेष नाली से सटी हुई पास की सड़क पर भी छोड़ गया..!
बस, फिर क्या था! पड़ोसी नंबर दो की धर्मपत्नी आगबबूला हो गईं। उन्होंने आँखें तरेरते हुए तर्क दिया—
“देखिए साहब, बच्चों को कोई संस्कार सिखाए नहीं इन्होंने! अब तो हद हो गई! ये देखिए, सड़क पर पड़ा है! साफ दिखाई दे रहा है! हमारे बच्चे ऐसा कर ही नहीं सकते! इनका निशाना कभी चूक ही नहीं सकता!”
पड़ोसी नंबर एक की धर्मपत्नी भी कहाँ चुप रहने वाली थीं! वह भी तर्क-वितर्क में पीएचडी थीं। उन्होंने विज्ञान-सम्मत उत्तर दिया—
“देखिए भाभी जी, गलत तोहमत लगा रही हैं आप! यह कचरा हमारा हो ही नहीं सकता। मेरा बेटा तो हरे रंग की करता है! उसे आयरन की कमी है, और डॉक्टर साहब ने रोज़ पालक खिलाने को कहा है। कल भी शाम को पालक खाया था। और इसका रंग देखो, यह तो साफ-साफ पीला है!”
अब तक पूरा मोहल्ला जमा हो चुका था। कुछ लोग न्यायाधीश की भूमिका में थे, तो कुछ दर्शकों की। गली के कोने पर चाय की दुकान चलाने वाले शर्मा जी ने भी अपनी विशेषज्ञ टिप्पणी दी—
“देखिए भैया, ये सब खान-पान का असर है। पहले लोग पराठे खाते थे, दही खाते थे, तो शरीर भी सुदृढ़ रहता था। अब ये चाइनीज मोमो और पिज़्ज़ा खाने लगे हैं, तो पाचन तंत्र भी गड़बड़ हो गया है। न रंग का ठिकाना, न रूप का!”
मुझे अपना अर्जित मेडिकल ज्ञान याद आ गया। मेरे दिमाग में तत्काल C.I.D. के इंस्पेक्टर प्रद्युम्न का चेहरा घूम गया। सोचने लगा कि क्यों न कचरे का सैंपल लैब में भेज दिया जाए? डीएनए टेस्ट हो जाए तो “दूध का दूध और पोटी का पोटी” अलग हो जाएगा!
मैं अपने ज्ञान की टांग इस मसले में अड़ाने ही वाला था कि श्रीमती जी की हिदायत याद आ गई—
“कोई ज़रूरत नहीं! इनका तो रोज़-रोज़ का काम है। अभी थोड़ी देर में ही एक-दूसरे के घर चीनी और चायपत्ती माँगते हुए नज़र आएँगे…”
मैंने घड़ी देखी। इस अंतहीन कचरा गाथा की हैप्पी एंडिंग देखे बिना आधे शो को ही छोड़कर मॉर्निंग वॉक के लिए खिसक लिया…!
पड़ोसी भला क्या करें? कचरा किसी को पसंद नहीं , अब कचरा कोई घर में रखने की चीज भी नहीं । और तो और, घर के सामने भी नहीं। हाँ, पड़ोसी के सामने कचरा रहे ,उन्हें कोई परेशानी नहीं है, चाहे उसकी सड़ांध उनके घर तक भी क्यों न आ रही हो।
इसलिए गृह निर्मित या मानव निर्मित .समस्त कचरा लुढ़कते-लोटते एक घर से दूसरे घर के सामने सरकता रहता है। जहाँ आदमी इंच भर जमीन और इंच भर जोरू के लिए अपना हक़ जमता फिरे वहां कचरे प्पर कभी कोई अपना हक़ नहीं जमाता..
कचरा ही है जिसने आदमी को गीता का ज्ञान दिलाया है—”कुछ लेकर नहीं जाना, सबकुछ यहीं छोड़ जाना है।” और इसलिए लोग इसे यत्र-तत्र-सर्वत्र छोड़ रहे हैं।

✍ लेखक, 📷 फ़ोटोग्राफ़र, 🩺 चिकित्सक
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