पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेते ही भारतीय चिंतन की वह धारा आँखों के सामने उभरती है, जो मनुष्य को केवल रोटी-कपड़े की व्यवस्था में सीमित नहीं करती, बल्कि उसे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के समग्र रूप में देखती है। ब्रजभूमि के नगला चंद्रभान में 25 सितम्बर 1916 को जन्मे इस साधारण बालक ने आगे चलकर असाधारण विचार प्रस्तुत किए—एकात्म मानववाद। माता-पिता के असमय निधन और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने अध्ययन, आत्मसंयम और अनुशासन को अपना मार्ग बनाया। सीकर, पिलानी और कानपुर से प्राप्त शिक्षा ने उनके भीतर स्पष्ट सोच और संयमित जीवनशैली का संस्कार भरा। अविवाहित रहकर उन्होंने संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा को समर्पित किया। आगे चलकर वे जनसंघ के शीर्ष मार्गदर्शकों में गिने गए और 1967 में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। किंतु अगले ही वर्ष, 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय स्टेशन के यार्ड में उनका शव मिला—एक ऐसी रहस्यमय घटना जो आज भी प्रश्नों से घिरी है।
दीनदयाल जी का वैचारिक योगदान सबसे गहराई से 1965 में बंबई में दिए गए उनके चार व्याख्यानों में देखा जा सकता है। इन्हीं व्याख्यानों को आगे चलकर “इंटीग्रल ह्यूमनिज्म” या “एकात्म मानववाद” के नाम से जाना गया। इस दर्शन में उन्होंने पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों की सीमाओं को उजागर किया और भारतीय परंपरा की उस संतुलित अवधारणा की ओर ध्यान खींचा, जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चार आधार माने जाते हैं। उनके अनुसार, समाज का आधार संघर्ष नहीं, बल्कि संयोग है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से मानवता—यह क्रम विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। जब तक मनुष्य को समग्र दृष्टि से नहीं समझा जाएगा, तब तक राजनीति और अर्थनीति स्थायी और संतुलित नहीं हो सकती।
उनकी आर्थिक सोच भी गहरे मानवीय सरोकारों से जुड़ी थी। उनके अनुसार राज्य का काम केवल प्रशासन नहीं बल्कि “अंत्योदय” है—समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक विकास की रोशनी पहुँचाना। इसलिए वे विकेंद्रीकरण, ग्रामोन्मुख विकास और लघु उद्योगों के पक्षधर थे। उनके विचार में महा-उद्योगों की अंधी नकल भारत के लिए उपयुक्त नहीं। उन्होंने बार-बार कहा कि विकास का मानक केवल उत्पादन नहीं, बल्कि व्यक्ति की गरिमा, सामाजिक समरसता और पर्यावरणीय संतुलन होना चाहिए। उनका मानना था कि यदि “अर्थ” को “धर्म” से अलग कर दिया जाए, तो नीतियाँ खोखली हो जाएँगी और यदि “धर्म” “मोक्ष” की दिशा से हट जाए तो सार्वजनिक जीवन कर्मठता खो देगा। उनका एकात्म मानववाद इन चारों मूल्यों को समरसता से जोड़ने का प्रयास था।
राजनीतिक जीवन में दीनदयाल जी का योगदान भी असाधारण रहा। वे केवल चिंतक नहीं, बल्कि संगठनकर्ता भी थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर उन्होंने भारतीय जनसंघ के विस्तार में बुनियादी भूमिका निभाई। 1967 में पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने संगठन, नीति और नैतिकता को एक नई दिशा दी। राजनीति में वे अवसरवाद और सत्ता-लालसा के सख्त विरोधी रहे। उनके लिए राजनीति सत्ता का खेल नहीं, बल्कि मूल्य-आधारित साधना थी। यही कारण था कि वे असहमति का सम्मान करते और संवाद को राजनीति का मूल मानते।
दीनदयाल जी की लेखनी भी उतनी ही तेज और सुस्पष्ट थी। ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पाञ्चजन्य’ और ‘स्वदेश’ जैसी पत्रिकाओं से उनका गहरा जुड़ाव रहा। वे लेखन और संपादन दोनों क्षेत्रों में सक्रिय रहे। उनकी पत्रकारिता का मापदंड था—कटु सत्य भी सौम्य भाषा में कहा जाए, असहमति भी शिष्ट शैली में रखी जाए। वे समाचार को उत्तेजना का साधन नहीं, बल्कि लोकशिक्षा का माध्यम मानते थे। यही कारण है कि उनके संपादकीय आज भी संयम और मर्यादा के आदर्श माने जाते हैं।
उनकी साहित्यिक कृतियों में भी वही संतुलन और गहराई दिखाई देती है। ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ और ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ जैसे नाटकों में उन्होंने इतिहास और राष्ट्रबोध को साहित्यिक रूप दिया। वहीं ‘अखंड भारत क्यों?’ जैसी पुस्तिका सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टि का प्रतिपादन करती है। आर्थिक विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकें—‘भारतीय अर्थनीति: विकास की दिशा’, ‘The Two Plans’ और ‘Devaluation: A Great Fall’—नीतिगत विश्लेषण और आलोचना की गंभीर मिसाल हैं। उनके विचारों को उस समय के नीति-निर्माताओं ने भी उपयोगी और गंभीर माना।
एकात्म मानववाद का गूढ़ अर्थ समझना हो तो उनके दो आग्रह याद रखने चाहिए। पहला, नीति-निर्माण मनुष्य के लिए है, न कि मनुष्य नीति के लिए। इसलिए कोई भी योजना तभी सार्थक होगी जब वह अंतिम व्यक्ति की गरिमा और जीवन-स्तर को ऊँचा उठाए। दूसरा, सत्ता और संपदा का एक ही केन्द्र में संकेंद्रण लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। वे शक्ति के विकेंद्रीकरण और समाज, राज्य तथा निजी क्षेत्र के बीच संतुलित सहभागिता के समर्थक थे। राज्य हर कार्य अपने हाथ में न ले, बल्कि वहाँ उतरे जहाँ समाज या बाजार जोखिम नहीं उठा पाते। यही संतुलन राष्ट्र को स्थायित्व और समरसता देता है।
उनकी मृत्यु अचानक हुई, किंतु उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। विचार कभी मरते नहीं; वे समय के साथ नई परिस्थितियों में नई तरह से जीवित रहते हैं। जब भारत में “अंत्योदय”, “लास्ट-माइल डिलीवरी”, “स्थानीय उत्पादन” और “स्वावलंबन” की बात होती है, तो उनके दर्शन की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। यह केवल राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि जीवन का व्यवहारिक मार्गदर्शन है।
दीनदयाल उपाध्याय की सबसे बड़ी सीख यही है कि विचार तभी सार्थक हैं जब वे व्यवहार में उतरें—जब वे बजट की पंक्तियों में, पंचायत की बैठकों में, शिक्षा की नीतियों में और नागरिक के रोजमर्रा के निर्णयों में झलकें। एकात्म मानववाद कोई मंत्रोच्चार नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन है, जो हमें याद दिलाता है कि हम नीतियों के विषय नहीं, बल्कि उनके उद्देश्य हैं। उनके जन्मदिवस पर उन्हें याद करना केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि यह संकल्प होना चाहिए कि हम उनके समग्र दृष्टिकोण को अपने समय की चुनौतियों पर लागू करें। ताकि विकास की रोशनी सिर्फ़ राजधानी तक न रहे, बल्कि गली-गली, द्वार-द्वार तक पहुँचे।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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