“बिटिया दिवस – कैलेंडर में साल में एक दिन दर्ज, दिल में स्थायी रूप से ”
सुनने में अजीब लगता है – क्या खुशी का भी कोई कैलेंडर तय किया जा सकता है? बिटिया तो वह सदा बहार बगिया है, जिसके फूल आपके जीवन के हर मौसम में खिलते रहते हैं। यह दिन क्या और क्यों? मानो सूरज के लिए “सूर्य दिवस” मना रहे हों या सांस लेने के लिए “ऑक्सीजन दिवस”।
बेटी होना अपने-आप में जीवन का सबसे बड़ा प्रमोशन है। पिता, भले ही बाहर सीईओ बने रहें, घर आते ही “पापा-प्रमोटेड टू डॉटर डैड” हो जाते हैं। बेटा अगर नखरे करे तो आप समझाते हैं, और बेटी अगर आँखों में आँसू ले आए तो पूरा इमरजेंसी अलर्ट बज जाता है।
यही वजह है कि पिता अपने बेटों को भी कभी-कभी प्यार से “बिटिया” कह बैठते हैं—क्योंकि “बेटे” शब्द में वो नमी कहाँ, जो “बिटिया” में है!
बेटियां ज्यादा भावनात्मक जुड़ाव रखती हैं। पापा उनके रोल मॉडल होते हैं। उनकी हंसी में पिता का गर्व होता है और उनके आंसुओं में पिता का असहज अपराध-बोध।
समस्या यह है कि पापा आज़ादी भी देते हैं और नियम भी बनाते हैं—“तू उड़, लेकिन मेरी परछाई में रहकर।”
यानी पिंजरे का दरवाज़ा खुला है, बस पंछी को उड़ते समय बार-बार आकर रिपोर्ट देना है!
समाज की विडंबना यह है कि बेटी को देवी कहकर पूजते हैं, लेकिन फैसले लेने का हक़ देने में “डिवीजन बाय जीरो” कर देते हैं।
उनके सपनों में अब घोड़े पर सवार राजकुमार नहीं, बल्कि सैलरी पैकेज, स्कॉलरशिप और पासपोर्ट आ चुका है। लेकिन हम हैं कि अब भी सोचते हैं—“बिटिया, ज़रा धीरे चलो… दुनिया खराब है।”
दुनिया खराब है, यह मान लिया, लेकिन बेटियां अब खुद से मोहब्बत करना सीख रही हैं, अपने फैसले खुद लेना सीख रही हैं। और यह सबसे बड़ा बदलाव है।
आज बेटी दिवस है।
कल को शायद “सास दिवस”, “ड्राइवर दिवस” और “मोबाइल चार्जर दिवस” भी कैलेंडर में जुड़ जाएँ। लेकिन बेटियों को किसी डे की ज़रूरत ही नहीं। वो तो साल के 365 दिन पापा की धड़कनें और घर की रौशनी होती हैं।

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’
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